Tuesday 9 May 2017

मुठभेड़ समय से

2015 दीपावली में गीत-नवगीत का मेरा पहला संकलन "चार दिन फागुन के"' उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित हुआ था. इस संकलन के कई गीत विभिन्न पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में छपे, काव्य गोष्ठियों में सुनाने का आग्रह भी रहा. छिंदवाडा निवासी चित्रकार, रंगकर्मी और नवगीतकार और मेरे प्रिय मित्र Rohit G Rusia ने इसका मुखपृष्ठ तैयार किया था और इसका लोकार्पण आदरणीया पूर्णिमा वर्मन द्वारा आयोजित नवगीत महोत्सव-२०१५ में देश के दिग्गज नवगीतकारों के हाथों लखनऊ में संपन्न हुआ था. पुस्तक ने मुझे पहचान दिलाई और उत्तर प्रदेश सरकार का प्रतिष्ठित 51 हज़ार रुपये का हरिवंश राय बच्चन पुरस्कार भी दिलाया. हालांकि कुण्डलिया संकलन प्रकाशित कराने की भाई Trilok Singh Thakurela जी लगातार राजस्थान से हुरियाते रहे. लेकिन गीत नवगीत मेरी प्रिय विधा होने के कारण ""चार दिन फागुन के" बाजी मार ले गयी. आजकल वे नाराज़ भी चल रहे हैं.
इधर भाई Brijesh Neeraj ने कुछ उत्साही युवा साहित्यप्रेमियों के साथ मिलकर लोकोदय प्रकाशन की परिकल्पना साकार की. प्रयोग के तौर पर समकालीन कविता के युवा ख्यातिनाम आलोचक उमाशंकर सिंह परमार की आलोचना पुस्तक 'प्रतिपक्ष का पक्ष' और युवा कहानीकार Sandeep Meel का कहानी संग्रह 'कोकिला शास्त्र" आया. दोनों पुस्तकें अपनी-अपनी विधा में एक विशिष्ट स्थान रखती हैं और आने वाले समय में इन विधाओं को एक नयी दिशा दे सकती हैं चर्चा के केंद्र में तो रहेंगी ही. बांदा में आयोजित गत वर्ष के लोकविमर्श कार्यक्रम में इन दोनों सेलेब्रिटीज से मिलना भी एक उपलब्धि रही.
अब कुण्डलिया संग्रह "मुठभेड़ समय से" शीघ्र ही लोकोदय प्रकाशन से छपकर आपके हाथों में होगा. इसमें लगभग २०० से ऊपर कुण्डलियाँ हैं. इसका मूल्याङ्कन सायास ही भाई उमाशंकर सिंह परमार को दिया गया ताकि छंदबद्ध कविता को समकालीन कविता के आलोचकों की दृष्टि से भी परखा जा सके. भाई उमाशंकर परमार जी ने अपनी ख्याति के अनुरूप ही निरपेक्ष और दबंग बेबाक राय जाहिर की है आप भी देखिये:
"आधुनिक काल में साठ सत्तर के दशक में लय व गीतों पर जिस तरह से आलोचकीय बुर्जुवावाद थोपा गया उससे हिन्दी कविता की व्यापकता व परिक्षेत्र में काफी कमी आयी। आलोचना के यथार्थवाली मूल्यों में लय और छन्दों के बहिष्कार का माध्यम कविता के फार्मेट को बनाया न कि कान्टेट को। यह एक बड़ी विडम्बना है। लोक जीवन में संघर्षरत बहुत से कवि जिनकी कविता आमजन मानस को सहज में प्रभावित कर सकती है। वह अचानक ”कविता’’ की जमात से बाहर हो गये। बहुत से कवि हैं जिनका कान्टेन्ट किसी प्रतिबद्ध कवि से कमतर नहीं है। पर महज उन्हें फार्मेंट व बुनावट के आधार पर जमात से बाहर का रास्ता दिखा देना आलोचकीय बुर्जुवावाद कहा जायेगा।
यदि हम कविता की वैविध्यपूर्ण विरासत को विशाल लोकधर्मी परम्परा से जोड़ना चाहते हैं, तो बेहद जरूरी है इस आलोचकीय रीतिशास्त्र की भेड़िया धसान का प्रतिरोध करना। गीत और छन्दबद्धता के विरोध के नाम पर अकविता आन्दोलन चला उन लोगों में कन्टेन्ट और रचनात्मक स्तर पर कविता को बहुत नुकसान किया। लेकिन उन रचनाकारों की प्रशंसा करनी चाहिए जो अकवितावादियों की छींटाकसी सहकर अपनी मौलिक परम्परा से जुड़े हुए निरन्तर गीत साधना करते रहे और आज तक गीत व छन्दों की जन प्रिय परम्परा को बरकरार रखे हुए हैं।""
मेरे जैसे लय के आग्रही व्यक्ति के लिए यह बड़ी बात है. पुस्तक के बारे में कुछ नहीं कहूँगा. बस यही कि इसका मुखपृष्ठ प्रसिद्द चित्रकार और "'रंग जो छूट गया" के कवि Kunwar Ravindra ने तैयार किया है. यह मुझे बहुत पसंद आया. इसकी बेसब्री से प्रतीक्षा है मुझे और ठकुरेला जी को. शेष फिर. फिलहाल आप इसका मुखपृष्ठ देख सकते हैं. प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
- रामशंकर वर्मा 


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