Thursday 8 June 2017

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

समाज में लेखक अपनी कलम न केवल सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करने के लिए उठाता है, अपितु उन्हें बदल कर नये आयाम स्थापित करने के लिये भी प्रतिबद्ध रहता है। चाहे वह किसी भी वय का हो। उसे हर समय अपने आसपास हो रही गतिविधियों की जानकारी होती है जिन्हें वह अपने शब्दों के माध्यम से व्यक्त करता है। साहित्य में सतत रमे रहने वालों में से एक ऐसा ही नाम है प्रदीप सिंह कुशवाह। इनसे मेरा परिचय एक ऑनलाइन मंच ओबीओ के माध्यम से हुआ। सशक्त व्यक्तित्व के धनी प्रदीप जी व्यवहार में भी नम्र और हर समय जरूरतमंद की मदद करने को तत्पर रहे। मैं उन्हें 'चाचाजी' कहती हूँ। मेरे समकालीन सभी साहित्यकार और पाठकगण उन्हें चाचाजी ही पुकारते हैं। उनके कृतित्व पर कुछ बिंदु कहना सार्थक होगा। प्रदीप जी ने 'अलीवर्णपाद छंद' याने के 'छक्का छंद' और 'चुटकी छंद' निर्मित किये। जिन्हें अंतर्जाल पर खूब सराहा गया। अंतर्जाल पर कई मंच उनके सानिध्य में पुष्पित पल्लवित हुए, जिनमें साहित्य संगम मंच, आत्मजन मंच और चुटकी उल्लेखनीय हैं। कागज़ से लेकर अंतर्जाल तक साहित्य में उनका रुझान गहरे तक मायने रखता है। 'भारत मित्र मंच', 'निर्झर टाइम्स', 'संवेदन', 'मर्सी क्लबके सहप्रशासक के रूप में उन्होंने अपना सहयोग दिया। सर्वाधिक उल्लेखनीय है 'ओबीओ लखनऊ चैप्टर' को प्रारम्भ करने में उन्होंने तीक्ष्ण कलमकार 'बृजेश नीरज' के साथ कदम से कदम मिला के सराहनीय योगदान दिया। आज 'ओबीओ लखनऊ चैप्टर' अपने उन्नतिशील आयाम में है। 'विमला देवी सुघर सिंह फाउंडेशन' के संचालक के रूप में उन्होंने अपने माता-पिता के अच्छे पुत्र होने के भी कर्तव्य निबाहे हैं। उनकी अनेक कविताएं साधारण भाषा में तंज करती हैं जो उन आमजन को कविता से जोड़ती है, जो कविता से दूर हैं। उनकी कविताएं कई साझा संग्रहों में प्रकाशित हुईं हैं, जिनमें उल्लेखनीय हैं- परों को खोलते हुए१, सारांश समय का, काव्य सुगन्ध (भाग२), काव्य सुगन्ध (भाग३), सृजन सागर... इत्यादि। साहित्यकार का एक और रूप है समाज सुधार, वह 'एकलव्य छात्र सेवा समिति' के प्रदेशीय परामर्शदाता के रूप में देखा जा सकता है। इसी रूप की एक और बानगी 'खुलती परतें' भी है। स्वतंत्र रचनाओं में उन्होंने कई विषयों पर कलम चलायी है जिनमे स्त्री विमर्श, भ्रष्टाचार, गरीबी, लाचारी और मंहगाई मुख्य रूप से शामिल किये हैं।

प्रदीप जी की कविताएँ भारत के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई हैं जिनमें महत्वपूर्ण है- दैनिक जागरण, स्वतंत्र चेतना, निर्झर टाइम्स, दरभंगा टाइम्स एवं अनेक पत्र। "राष्ट्रभाषा रत्न 2015", "काव्य गौरव 2016", तथा साहित्य श्री सम्मान से विभूषित प्रदीप जी उम्र के चौथेपन में हैं। पिछले वर्ष जीवनसाथी के आकस्मिक छोड़ के चले जाने पर भी आत्मशक्ति बनाये रहे और निरन्तर साहित्यसेवा में संलग्न रहे। यह् सक्रियता उन्हें विरले साहित्यकारों की पंक्ति में स्थान प्रदान करती है।
वे मेरे प्रथम गीतसँग्रह 'अधूरी देह' के विमोचन के अवसर पर एक फोन के किये जाने पर सहजता से आ गए थे। किंतु उन्होंने मुझसे यह साझा नहीं किया कि वे अस्वस्थ्य हैं। जबकि चार महीने पूर्व ही उनकी जीवन संगिनी स्मृतिशेष नीलम कुशवाह का निधन हुआ था। वे उस समय जीवन के विकट दौर से गुज़र रहे थे। यह दुःख छुपा लेने की प्रवृत्ति कदाचित दूसरों को सुख आभास कराने की ही प्रवृत्ति है। मैंने कथाकार महेंद्र भीष्म, जो कि मेरी पुस्तक विमोचन में मुख्य आतिथ्य से मंच को शोभायमान कर रहे थे; से अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुये कहा कि मैं 'अधूरी देह' के लोकार्पण में  चाचाजी की उपस्थिति हृदय से चाहती हूँ। और प्रदीप चाचा जी आये भी और अस्वस्थता के बावजूद मंच की सीढ़ियों पर चढ़े और मंच पर आसीन हो कर मुझे मेरे 'माता-पिता' साथ होने का आभास करा के मनोबल दिया। मुझ अकिंचन के निर्देशन में लखनऊ में खेले जाने वाले हर नाटक में प्रदीप चाचाजी  समय निकाल के उपस्थिति होते हैं और नाटक के अंत में बिना मिले, मुझे बधाइयाँ दिए बगैर नहीं जाते। मैं दूसरे शहर में भी उनकी उपस्थिति से अपना शहर महसूस करने लगती हूँ।

उनकी कृति 'चलें पोरबंदर' मेरे हाथ में आयी जो कि नाट्य काव्य के रूप में है,  मुझे अत्यंत प्रसन्नता प्रदान कर रही है। 

आत्मकथ्य में उन्होंने कहा "सपने जरूर देखिये, जब टूटते हैं तो उनका सुख अलग मानिये और जब पूरे होते हैं तो उनका सुख अलग"  यह बात वस्तुतः मेरी पीढ़ी के युवाओं के लिये एक प्रबल प्रेरणा है जो सपनों के टूटने से टूट जाते हैं।

'चलें पोरबंदर' के कुछ नाटक तो मुझे बेहद पसंद आये। जिनमें 'चलें पोरबंदर', 'आखेट पुरुस्कार', 'काँपती रूह', 'कबड्डी आश्रम' शामिल हैं। मैंने निश्चय किया है कि टीकमगढ़ मूल की अपनी नाट्य संस्था 'समर्पयामि रंगमंडल टीकमगढ़' के जरिये ये नाटक अवश्य खेले जाएंगे। इन मंचों में मुझे मदद करने का वचन कथाकार महेंद्र भीष्म ने दिया है। साथ ही एक नाटक की योजना उनके पैतृक निवास 'कुलपहाड़' में भी खेले जाने की बन रही है। सँग्रह की सफलता की आकांक्षा लिये मैं आशान्वित हूँ और ईश्वर से अनन्य प्रार्थना करती हूँ कि प्रदीप जी स्वस्थ रहें सानन्द रहें और हम सबको अपने सानिध्य में अपने बचपन को जीने के सुअवसर प्रदान करें। 

-गीतिका वेदिका
टीकमगढ़ (म. प्र.)

फोन- 9826079324
मेल- samrpyami@gmail.com

Thursday 1 June 2017

हास्य-व्यंग नाटिका ‘चलें पोरबन्दर’ के प्रति दो शब्द

हास्य-व्यंग नाटिका चलें पोरबन्दरके प्रति दो शब्द
गद्य, कविता, कहानी, लेख, नाटक, नौटंकी विधाओं पर साहित्य-लेखन करने वाले साहित्यकार प्रदीप कुमार सिंह कुशवाह विरचित हास्य-व्यंग नाटिका चलें पोरबन्दरनयनेन्द्रियों का विषय बनने वाले काव्य-रूप अर्थात् दृष्य-काव्य के अन्तर्गत है। इसकी कथा-वस्तु नट-नटी के  आपस के संवादों के माध्यम से व्यक्त है। इसका कार्य व्यापार मूर्त एवं चाक्षुश है। इसका मंचीय विधान एक से अधिक अंकों में विभक्त है। इसकी संवाद योजना में वस्तु-विधान का अंग उत्पाद्य है अर्थात् जो वस्तु कवि-मस्तिष्क की उपज (कल्पना) होती है जिसमें जीवन-बिम्बों का समावेश होता है उसे उत्पाद्य वस्तु कहते हैं।
इस नाटिका में नेता या नायक के रूप में मुख्य पात्र नट (नायक) व नटी (नायिका) ही हैं। कतिपय स्थलों पर कुछ सहयोगी पात्र भी नट-नटी के संवादों में आ टपकते हैं जो व्यंग के तेवर में अभिवृद्धि करते हैं। संवादों में मुहावरे, चटपटी भाषा व तीक्ष्ण तेवर प्रभाविकता रोचकता उत्पन्न करने में कमाल का काम करते हैं। नाटिका में आद्योपान्त अधिकांशतः वाचिक अभिनय ही है। वाचिक अभिनय के अन्तर्गत वाणी द्वारा उच्चरित ध्वनि-संवाद आदि आता है। प्रसंगानुकूल निहित भावों पर आधारित पात्रों का बोलना, बोली में उतार-चढ़ाव लाना, थिरकन, कंपन, गायन आदि ध्वनियों का समुचित प्रयोग वाचिक अभिनय कहलाता है। नाटिका में मंचन के माध्यम से ऐसा कर पाने में नट-नटी प्रायः सक्षम दिखते हैं।
नाटिका का रचयिता ईश-भक्त व देश भक्त है। फलतः उसने प्रथमतः ईश्वर, राष्ट्र व भारत माता को कृति का समर्पण किया है। उसने मुक्त छन्दों के माध्यम से गणेश-वन्दना, ईश वन्दना व पत्रकार होने के नाते प्रेस-वन्दना भी सरस-सरल खड़ी बोली में प्रस्तुत किया है। कृतिकार आम पन्थ का पक्षधर है। धर्मनिरपेक्षता का भी पक्षधर होने के कारण वह सहयोगी पात्र के रूप में राम, रहीम, गोविन्द व जॉन नाम के चार बालकों को नाटिका में प्रस्तुत करता है। मानवता में व्याप्त विविध अवगुणों को केन्द्र में रखकर तमाम ज्वलन्त प्रकरणों पर व्यंग भरे स्वर नाटिका की कथा वस्तु है। असहिष्णुता, पुरस्कार, महंगाई, महिला आरक्षण, साम्प्रादयिकता, अहिंसा, दुराचरण पर तीखे संवाद, कटाक्ष व व्यंग नाटिका का कलेवर है। नाटिका की सरल व चटपटी भाषा में प्रभावोत्पादकता है। सामाजिक विघटन को नाटिका में प्रभावी ढंग से उकेरा गया है। कृतिकार ने अन्यार्थ (व्यंगार्थ) के माध्यम से देश व समाज के सुधार हेतु बहुत कुछ कहा है जिसके लिए वह बधाई का पात्र है
                                                              रामदेव लाल विभोर
                                                         565 क/141, अमरूदही बाग,               आलमबाग,     
                                                                लखनऊ- 226005