आख़िरकार!
जी हाँ, आख़िरकार। अब जाकर मेरी भाषा में प्यार, रोमांस
और चाहना पर ऐसी किताब आई है, जिसमें से प्यार करने वाले नौजवान इफ़रात
में ‘कोट’ करेंगे और जिसे प्रेम में डूबी लड़कियाँ अपने तकियों के नीचे दाबकर सोएँगी।
यह सच ही है कि नौजवान प्रेमियों को हिन्दी में प्यार पर
ऐसी पंक्तियाँ बहुत नहीं मिलती थीं, जिनमें एक कॉन्टेम्परेरी
मुहावरा होने के साथ ही लिटरेरी वैल्यू भी हो, ताकि उन्हें कोट या फ़ॉरवर्ड
करते समय उनकी रुचियाँ आहत ना हों।
सस्ती शायरियाँ और सतही तुकबन्दियाँ वॉट्सएप्प पर बहुत चलती
हैं। लद्धड़ अंग्रेज़ी वाले पल्प फ़िक्शन भी ख़ूब बिकते हैं! परिमार्जित रुचि हो
तो नौजवान लोग या तो उर्दू की रोमैंटिक पोएट्री या पाब्लो नेरूदा जैसे दुर्निवार
प्रेम-कवि को कोट करते हैं - इक्कीस प्रेम कविताएँ और उदासी का एक गीत - जिन्हें
बाद के सालों में पाब्लो ख़ुद ख़ारिज कर देता, अगर उसका बस चलता तो।
प्यार पर लिखी जाने वाली कविता अनिवार्यत: आवेग को अंगीकार
करेगी। उसमें ऐंद्रिकता होगी, नाटकीयता होगी और प्रेम विषय होने के कारण
सम्प्रेषणीयता तो अनिवार्यतः होगी ही। कि सधे हुए तीर की तरह प्यार करने वाले हृदय
को बेध जावै,
वैसी नुकीली रचना वह हो।
किन्तु मेरी भाषा के कवि आवेग से संकोच करते हैं। अव्वल तो
वे प्रेम से ही संकोच करते हैं। प्रेम को वे मनुष्यता के प्रति वृहत्तर प्रेम में
डायल्यूट करने की कोशिश करते हैं, उस चिर-परिचित अपराध बोध का परिचय देते
हुए, जो आधुनिक भारतीय संचेतना के मूल में है। जबकि यहाँ कालिदास हुए, जयदेव
हुए, अर्वाचीनों में शमशेर और नरेश मेहता!
प्रेम के उदात्त, दार्शनिक, लोकसम्मत
आशयों को अपने भीतर स्थान देने को आतुर हिन्दी कविता के समक्ष मेरा यह पूर्वग्रह
है कि प्रेम यानी स्त्री और पुरुष के बीच होने वाला ऐंद्रिक, यौनिक, सघन
और संतप्त प्यार! प्लैटोनिक होने के साथ ही सेक्सी!
मृत्यु के बाद कोई और चीज़ मनुष्य के जीवन में इतनी
महत्वपूर्ण नहीं,
जितने कि उसके अवचेतन की भित्तियों पर विपरीत लिंगी के
प्रति चाहना के चित्र हैं। और इस बात को ये कविताएँ और गद्यगीत निश्चयपूर्वक
व्यक्त करते हैं।
ये कविताएँ वृहत्तर मनुष्यता के प्रति प्रेम का आरोपित
आत्मचेतस पाखण्ड नहीं रचतीं। ये स्त्री और पुरुष के बीच निर्मित होने वाले चाहना
के निजी रागात्मक बिम्बों का मूर्तन करती हैं - कामना के शोक और चाहना के दंश सहित
- अनअपोलोजेटिकली सेंसुअस एंड ईवन इरोटिक।
इस संकलन के साथ हिन्दी प्रेम कविता का संकोच टूटता है और
वह समकालीन प्रासंगिकता में प्रवेश करती है!
‘मैं बनूँगा गुलमोहर’
दो खण्डों में है- पहले खण्ड ‘चित्रलिपि’ में
मुख्यतया कविताएँ हैं,
अपने सौंदर्यशास्त्रीय मानकों के प्रति निष्ठावान। दूसरे
खण्ड ‘रेखाचित्र’
में गद्य रचनाएँ हैं, अधिकांशत: नैरेटिव प्रोज़।
पुस्तक के ये पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध एक परस्पर का निर्माण करते हैं और यह तय
है कि पाठकों के निजी फ़ेवरिट चैप्टर्स इनमें अलग-अलग होंगे।
सोशल मीडिया पर अत्यंत लोकप्रिय सिद्ध हुई कुछ रचनाओं और
शृंखलाओं को इसमें स्थान दिया गया है। प्रकाशित शब्द के रूप में उन्होंने अपना
मोक्ष पा लिया है। दीप्ति नवल के लिए लिखी गई नौ कविताओं की सीरीज़ इसमें है। कुछ
दृश्यबंध और भावचित्र भी चले आए हैं। पुस्तक के कवर पर मेरी ही खींची गई तस्वीर
है।
लोकोदय प्रकाशन को शुक्रिया कि उन्होंने यह किताब छापी।
बृजेश नीरज, अरुण श्री और श्री प्रशांत विप्लवी के प्रति विशेष आभार। मैं प्रकाशकों से
इतना ही कहूँगा कि आशा है हम शीघ्र ही इसके दूसरे संस्करण की रूपरेखाओं पर बात
करना आरम्भ कर देंगे,
एज़ द फ़र्स्ट एडिशन सेल्स लाइक पीनट्स एंड द स्टॉक्स गेट
एग्ज़ॉस्टेड!
प्रो. आनंद कुमार सिंह ने समय निकालकर पुस्तक के लिए ब्लर्ब
लिखा, इसके लिए उनका आभार। एक लघु प्रशस्ति श्रीयुत गीत चतुर्वेदी की ओर से भी है।
यह सुशोभित की पहली किताब है – देर-सबेर
प्रकाशित होने जा रही दर्जनों में से पहली! मैं अप्रकाशित सामग्री के एक
ज्वालामुखी पर बैठा हूँ और वह लावा लोकवृत्त में आने को व्यग्र है। भवितव्य ही
उसकी चिन्ता करेगा। मैंने तो केवल अपने दायित्व का कटिबद्ध होकर निर्वाह करना है।
जैसा कि अंग्रेज़ी में कहते हैं- देयर वॉज़ लाइट एट द एंड ऑफ़
टनल, बट इट वॉज़ ओनली ऑफ़ एन अपकमिंग ट्रेन। कि ये उम्मीद का अंतिम सुदूर टिमटिमाता
तारा नहीं है,
धड़धड़ाकर सामने आती एक सच्चाई है, रौशनी
का गोला लिए।
पुस्तक की अमेज़ॉन लिंक नीचे दे रहा हूँ। वहाँ क्लिक करने से
पुस्तक को प्राप्त करने की रीतियाँ आपके सम्मुख उपस्थित हो आएँगी।
मेरे वे शब्द अब सार्वजनिक दायरे में हैं। उन्हें मेरा आशीष, वे
यशस्वी हों, और मेरी उत्तरजीविता को धारण करें। अस्तु।
सुशोभित
पुस्तक यहाँ उपलब्ध है--
वाकई सुशोभित को किताब की शक्ल में पढना रोमंच और कौतुहल होगा। वर्क की खुशबू को महसूस करने और समेच कर ज्जबातों मे ढाल देने की कोशिशों के लिए किताब जरूरी पढी जानी चाहिए
ReplyDeleteवाकई सुशोभित को किताब की शक्ल में पढना रोमंच और कौतुहल होगा। वर्क की खुशबू को महसूस करने और समेच कर ज्जबातों मे ढाल देने की कोशिशों के लिए किताब जरूरी पढी जानी चाहिए
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