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Tuesday, 4 November 2025

प्रतिपक्ष का पक्ष – लोकधर्मिता के नए प्रतिमान

 -    प्रेम नंदन

आलोचना महज प्रशंसा या कमियाँ तलाशने का उपक्रम नही है; बल्कि किसी भी रचना या रचनाकार को समग्रता से समझने का एक साहित्यिक उपादान है आज जब आलोचना अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है और मात्र ठकुरसुहाती में तब्दील होती जा रही है, ऐसे में आलोचना के क्षेत्र में भी तोड़फोड़ की जरूरत लम्बे समय से महसूस की जा रही थी, ठीक इसी समय आलोचना के क्षेत्र में उमाशंकर परमार जैसे तेजतर्रार, बेबाक और तार्किक ढंग से अपनी बात कहने वाले यंग्री यंगमैन आलोचक के रूप में उभरना आलोचना के क्षेत्र में एक सुखद घटना है आलोचना के समकालीन परिदृश्य में अपनी टिप्पणियों और लेखों से हलचल मचाने वाले युवा आलोचक उमाशंकर परमार के लेखों का संग्रह है– प्रतिपक्ष का  पक्ष, जिसमें समय–समय पर लिखे गए और विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पर्याप्त चर्चा बटोर चुके उनके इक्कीस लेख शामिल हैं इन आलेखों में नवउदारवाद के आर्थिक, सामजिक व उत्तरआधुनिक, रूपवादी विमर्शों के बरक्स लोकधर्मी चेतना का वैचारिक पक्ष लेकर बहुसंख्यक जनता की जीवन समग्रता का खाका खींचने वाले लेखकों और पुस्तकों पर लिखे गए हैं

समकालीन कविता का सबसे बड़ा सच भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में व्यवस्था का प्रतिरोध है, यह प्रतिरोध लोकधर्मी चेतना का युगसत्य है ‘प्रतिपक्ष का पक्ष’ में शामिल सभी लेख इसी व्यवस्था के प्रतिपक्ष की चर्चा करते हैं और आम आदमी के जीवन स्थितियों को चित्रित करती रचनाओं को और रचनाकारों, जिनमें समकालीन कविता के युवा और वरिष्ठ कवियों की चर्चा की गई है समय के साथ साहित्य की चिन्तन धारा भी बदलती है। कविता की रचना प्रक्रिया और शिल्प में परिवर्तन होते हैं तो आलोचना भी इन परिवर्तनों के आलोक में अपने मूल्य तय करती है। 1991 का वर्ष भारतीय इतिहास में बड़े  आर्थिक  परिवर्तन का वर्ष है। आर्थिक उदारीकरण लागू हुआ सार्वजनिक क्षेत्र में विनिवेश की प्रक्रिया तीव्र की गयी। इस नयी आर्थिक नीति का प्रभाव भारतीय आम जनता पर नकारात्मक रहा। जंगल और पहाड़ों के साथ भारतीय गाँव भी इसकी चपेट में आए। बढ़ते बाजारवाद के खिलाफ कविता और कहानी में प्रतिरोध की आवाज बुलन्द हुई। 2010 के बाद तो रचनाधर्मिता का आशय ही प्रतिरोध से लिया गया। जब रचना की मुख्यधारा प्रतिरोध है तो स्वाभाविक है आलोचना भी इस प्रतिरोध को रेखांकित करेगी क्योंकि आलोचना रचना से भिन्न नहीं होती है रचना और आलोचना एक दूसरे से जुडी हैं, एक-दूसरे की पूरक हैं। युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार की किताब ‘प्रतिपक्ष का पक्ष’ साहित्य में प्रतिरोध की लोकधर्मी चेतना की पहचान कराने वाली बेहतरीन पुस्तक है। इस पुस्तक का आलोचकीय ताना-बाना प्रतिरोध और लोक को लेकर बुना गया है जिसके तहत परमार ने 2010 के बाद प्रकाशित कविता संग्रहों और कहानी संग्रहों को विशेष स्थान दिया है। इन किताबों की समीक्षा और सौन्दर्य उदघाटन में परमार भारतीय काव्यशास्त्र के सिद्धांतों को अपनी जरूरत के हिसाब से परिभाषित करते हुए रूपवादी समीक्षा व कलावाद के विरुद्ध अस्मिताओं के सवाल व हाशिए के सवालों को बड़ी शिद्दत के साथ समाहित किया है। इस पुस्तक में आज की कविता व नवनिर्मित आलोचकीय प्रतिमानों को पहचाना जा सकता है। समय के साथ आलोचना कैसे अपने औजार तय करती है, परखा जा सकता है। युवा आलोचक परमार नयी भाषा के साथ पुरानी आलोचकीय शब्दावलियों में तोड़-फोड़ करते हुए अपने अनुरूप शब्दावलियों का निर्माण किया है। साथ ही लोक और लोकधर्मिता को नए ढंग से परिभाषित करते हुए भाषा और साहित्य के विकास में लोक की भूमिका का नए सिरे से रेखांकन किया है। लोक की गतिशील संकल्पना प्रस्तुत करते हुए परम्परागत जड़ मान्यताओं व लोक सम्बन्धी फैले भ्रमों का तर्क के साथ निराकरण किया है। हालाँकि पुस्तक में सम्मिलित आलेख पूर्व प्रकाशित हैं मगर वह सारे आलेख विभिन्न समय में विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पर्याप्त चर्चा भी पा चुके हैं लेकिन ‘प्रतिपक्ष का पक्ष’ में इस क्रम से उन आलोखों को लगाया गया है कि व्यवधान के बजाय एकसूत्रता व एकरूपता दिखाई देने लगती है और अलग-अलग समय के लिखे गए आलेख पूर्ण योजनाबद्ध सुविचारित किताब की तरह लगने लगते हैं। चूँकि लेखक ने एक ही विचार व पक्ष को लेकर इस पुस्तक की योजना रखी है अस्तु नवउदारवाद और हिन्दी कविता की इससे बेहतर कोई दूसरी किताब फिलहाल हिन्दी में दूसरी नहीं दिखाई दे रही है। परमार ने अपने लम्बे आलेख ‘हिन्दी कविता लोक और प्रतिरोध’ में बुजुर्ग पीढ़ी से लेकर आज की और आने वाली युवा पीढ़ी तक के कवियों पर बड़ी बेबाक राय रखी है जिस भी लेखक को लोक के विरुद्ध या कलावादी देखा तो उसकी निर्मम आलोचना भी है। कविता और कवियों पर बात करते समय परमार कहीं भी निर्णायात्मक तर्कहीन नहीं होते, न ही अनगढ़ व अप्रासांगिक उद्धरण देकर आलेख को आप्त वाक्य बनाने की कोशिश करते हैं। वह किसी भी आलेख में पूर्व आलोचकीय अभिमत नहीं देते वह कविता और अपनी विचारधारा की अन्तर्संगति द्वारा खुद का निर्णय देते हैं, किसी अन्य समझ की सहायता नहीं लेते हैं। यह आज की अकादमिक आलोचना से बिल्कुल अलग अन्दाज है परमार की आलोचना व सैद्धांतिकी उसके निर्णयों से समझी जा सकती है कविता की भाषा, लोक की समझ और रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए उमाशंकर परमार कहते हैं– “भाषा का संकट आज की कविता का सबसे बड़ा संकट हैमहानगरों में रहने वाले अधिकांश कवि भाषा के मौलिक श्रोत लोक से कटे हुए हैं ये कवि अपनी कविता में एक ऐसी पेशेवर भाषा का प्रयोग करते हैं जो कविता के समक्ष मौलिकता का संकट खड़ा कर देती है” आज की कविता के सन्दर्भ में लोक की अवधारणा के बारे में वे बहुत तार्किकता से बात करते हुए कहते हैं और लोक के नाम पर दक्षिणपंथी कवि, प्रेम गीत गाने वाले फर्जी लोकवादियों को जमकर लताड़ते हैं वे आगे कहते हैं- “आज की कविता के सन्दर्भ में जब लोक पर बात होती है तो सबसे बड़ा खतरा लोक की समझ का खड़ा जाता है लोक के प्रति एक सुसंगत नजरिया न होना आज की कविता के लिए संकट खड़ा कर रहा है लोक के बारे में उमाशंकर परमार के विचार एकदम स्पष्ट हैं वे कहते हैं– “लोक ही आम आम जनता है जो गाँवों से लेकर शहर तक व्याप्त है।“ यही लोक आदिकाल से लेकर आधुनिककाल तक हमारी रचनाधर्मिता का हेतु रहा है लोक ही कविता का विषय है व लेखक का सरोकार है इसी लोक को विषय बनाकर लिखा गया साहित्य लोकधर्मी साहित्य कहलाता है लोक से इतर लिखा गया साहित्य, सामन्तवादी, लोक विमुख एवं प्रतिक्रियावादी साहित्य ही  हो सकता है क्योंकि लोक ही पक्षधरता है लोक को अस्वीकार करने का आशय है पक्षधर न होना व प्रतिबद्द न होना लोक के सन्दर्भ में कैलाश गौतम की कविता पर विचार करते हुए वे लिखते हैं– “कैलाश गौतम की कविता लोकधर्मी कविता है लोकधर्मी कविता के सभी मौलिक लक्षण कैलाश जी की कविताओं में उपलब्ध हैं विचार, प्रतिबद्धता और संघर्ष के स्तर में इनकी कविता उत्कृष्ट है वे आगे कहते हैं– “लोकधर्मी कवि की सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वह अपने लोक की परम्परा, रीतियों के साथ-साथ चरित्रों का भी उल्लेख करता है।“ ये चरित्र लोक की विसंगतियों और त्रासदियों के भोक्ता होते हैं इनके माध्यम से कवि या लेखक अपने सरोकारों की अभिव्यंजना करता है ये चरित्र ही कवि के वैयक्तिक और सामाजिक सवालों के जवाब देते हैं वरिष्ठ कवि और ‘दुनिया इन दिनों’ जैसी चर्चित पत्रिका के सम्पादक सुधीर सक्सेना की बहुचर्चित लम्बी कविता ‘धूसर में बिलासपुर’ की चर्चा करते हुए उमाशंकर कहते हैं– ‘धूसर में बिलासपुर केवल लोक का विषयपरक आख्यान ही नहीं प्रस्तुत करती अपितु लोक से अपनी ऊर्जा उपार्जित करते हुए लोक की सामायिक त्रासदियों का मुकम्मल विवेचन भी करती है।‘ लेखक की स्मृतियों का बार-बार अतीत में जाना, अतीत के  अवशेषों की पड़ताल करना, उन्हें पूँजीवादी, बाजारवादी परिवेश के  बरक्स चिन्हित करना, कवि के अंतर्मन में उपस्थित बिलासपुर के सूक्ष्म आक्रोश की प्रतिक्रिया है बिलासपुर के प्रति अभिव्यंजित नास्टेल्जिया यथार्थ की अभिव्यक्ति को धारदार बना रहा है हमारे समय के जाने-माने कवि और चित्रकार कुँवर रवीन्द्र यथार्थवादी सौन्दर्यबोध के कवि हैं उनके चित्र और कविताएँ हिन्दुस्तानी अवाम की मनोव्यथा की कथा कहते जान पड़ते हैं उनके कविता संग्रह ‘रंग जो छूट गया था’ की चर्चा करते हुए उमाशंकर लिखते हैं– ‘रवींद्र की कविताओं में हिन्दुस्तानी अवाम का वह अनुभव अभिव्यक्त हुआ है जो उनके चित्रों में छूट गया था।‘ इनकी कविताओं में हिन्दुस्तान का आमजन साकार हो गया है समूचा लोक अपनी सामयिक वस्तुस्थिति के साथ रवीन्द्र जी की कविताओं में उतर आया है    

‘प्रतिपक्ष का पक्ष’ पुस्तक में कविता के वर्तमान रचनात्मक संकट व लोक की अवधारणा तथा सौन्दर्यबोध की वर्गीय दृष्टि को समाहित करते हुए कविता में प्रतिरोध की परंपरा का विवेचन किया गया है साथ ही समकालीन कविता के युवा व वरिष्ठ कवियों की महत्वपूर्ण रचनाओं पर भी बात की गई है इन कवियों में विजेंद्र, सुधीर सक्सेना, केशव तिवारी, कुँवर रवीन्द्र, बुद्धिलाल पाल, शम्भू यादव, संतोष चतुर्वेदी, महेंश चन्द्र पुनेठा और अजय सिंह हैं लोक की प्रतिरोध परम्परा को स्पष्ट करने के लिए मान बहादुर सिंह और कैलाश गौतम पर भी दो महत्वपूर्ण लेख लिखे गए हैं इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘प्रतिपक्ष का पक्ष’ लोकधर्मी काव्य परम्परा को स्पष्ट करते हुए आज के रचनात्मक सरोकारों को चिन्हित करने और उनके पक्ष में मजबूती से खड़े रचनाकारों की रचनाधर्मिता को सामने लाने में पूर्णतया सफल है 

                      

समीक्षित कृति : 'प्रतिपक्ष का पक्ष(आलोचना)

रचनाकार : उमाशंकर सिंह परमार, पृष्ठ : 196 (पेपरबैक),       

प्रकाशक : लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ  

 

 मो.- 9336453835

Wednesday, 29 October 2025

कारावास

इन कविताओं के कवि के पैरों-हाथों की बेड़ियाँ उसके विचारों को अनंत तक उड़ने के पंख दे देती हैं जिनकी मदद से वह एक अलग ही कविता संसार में निरंतर उड़ान भरता है। कभी कान में किसी रेशमी डोर से गुदगुदी पर उसके भीतर कहकहा बन जाता है। कभी उसे लगता है मन पागल हो जाएगा। वह आईसीयू में भर्ती, थके हुए अपने नाविक को इस हाल में भी परिवार की चिंता करते हुए पतवार के लिये पूछते देखता है, चिरविदा ले चुकी माँ से मोबाइल पर बात करना चाहता है। कभी वह पूछता है- घर जाने को निकले कितने, कितने सचमुच में घर गये, कितने बचे कितने मर गये? उसे देश और देह दोनों समान अराजक और उच्छृंखल लगते हैं। पृथ्वी उसे क्रोध और प्रेम का पर्याय लगती है। बीमारियों के बीच आसन्न मृत्यु की आहटों के बीच उसे दाम्पत्य की चुहुल सूझती है जिसे वह चाय बनाने से लेकर किचकिच से दूर किचन और शयनकक्ष के बीच आवाजाही करने देता रहता है। प्रेयसी के कांधे की सिहरन और पैरों की थिरकन को भांप लेने का उसका पुरूष कौशल आवृत्त चेहरे के पीछे भी देख लेता है।

         कोरोना काल की ये कविताएँ जैसे समूचे जीवन को आईना दिखाती हुई एक आम आदमी के जीवन को एक खुले कारागार की तरह बिंबित करती चलती हैं जो रोटी के लिये घर त्यागता है और जीवन बचाने की आपाधापी में पुनः घर को दौड़ता है। घर की चहारदीवारी में सुरक्षित और सुविधासम्पन्न जीवन में भी जकड़ चुकी ऊब इन कविताओं में उभर उभर आती है। एक महामारी द्वारा थोपे गये ये पल अपने साथ एकाकी जीते हुए हताशा, आशा, विराग, उल्लास, भय, आश्वस्ति, नैकट्य और विछोह का जीवन वृत्तांत लिपिबद्ध करती चलती हैं। मृत्यु की बात करते इनमें जीवन दिखता है और जीवन से होते हुए वे मृत्यु तक हो आती हैं।

Friday, 30 August 2024

जीवन एक बहती धारा....

 पुस्तक समीक्षा

चलो फिर से शुरू करें (कहानी संग्रह)

लेखक - सुधा ओम ढींगरा

प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर, मप्र 466001

प्रकाशन वर्ष - 2024

समीक्षक - जसविन्दर कौर बिन्द्रा 


    
    लगातार साहित्य लेखन से जुड़ी सुधा ओम ढींगरा अपने नवीन कहानी संग्रह 'चलो फिर से शुरू करें' के साथ पाठकों के सम्मुख उपस्थित हुई हैं। लंबे समय से प्रवास में रहने के कारण सुधा जी के साहित्य में प्रवासी भारतीयों को मुखर रूप से देखा जा सकता है। उनसे जुड़े पारिवारिक रिश्तों व अन्य समस्याओं को कहानी के केंद्र में रखकर, भारत व प्रवासी संदर्भों के बीच पुल का काम भी करती है और पाठकों को वहाँ के परिवेश से परिचित भी करवाती है, जिनकी जानकारी हमें यहाँ बैठे नहीं होती। सामान्यतः भारतीयों को लगता है कि विदेशों और विशेषकर अमरीका में बसने वालों को भला कोई तकलीफ या परेशानी कैसे हो सकती है!

    'वे अजनबी और गाड़ी का सफरकहानी हमें एक ऐसे विषय से अवगत करवाती हैजिसे अक्सर फिल्मों व अंतर्राश्ट्रीय सीरियलों में देखा जाता है। दो भारतीय पत्रकार युवतियों ने एक चीनी युवती को यूरोपीय पुरुष के साथ रेलगाड़ी में जाते देखा परन्तु वह लड़की बहुत तकलीफ में प्रतीत हो रही थी। उन दोनों युवतियों ने किस होशियारी व सर्तकता से उस लड़की को ड्रग माफिया से मुक्त करवायावह कहानी पढ़ने से ही पता लगता है। इस कहानी को केवल 'एक्साइटिटकरने या आज के दौर की सनसनीखेज़ घटना के तौर पर नहीं देखा जा सकताक्योंकि वास्तव यह कहानी हमें अपने और अमरीकी तंत्र व पत्रकारिता के बीच के अंतर को दर्शाती है। वहाँ एक युवती पत्रकार के एक मैसेज पर सिक्योरिटी ऑफिसर्ज़ द्वारा 'हयूमन ड्रग बॉम्बके तहत उठायी जा रही उस चीनी लड़की को उस पूरे गैंग से मुक्त करवा लिया गया।

    रेलगाड़ी अपनी गति से चलती रहीयात्री अपने-आप में व्यस्त बैठे रहें और एकदम सावधानी और सर्तकता से बिना कोई शोरगुल मचाएहाय-तौबा किएलड़की को बचा लिया गयामैसेज करने वाली लड़की की तारीफ भी कर दी गई। यहाँ तक कि उसके अखबार के मुख्य संपादक को उसका प्रशंसात्मक पत्र तक भिजवा दिया गया। भारत में हमने ऐसा कभी होते देखा हैइतनी सजगताइतनी सर्तकताबिना देर किए कदम उठा लेना...! वास्तव में ऐसी बातें यूरोपीय व अमरीकियों से सीखनी वाली हैंगारंटी हैजो हम कभी नहीं सीख पाएँगे।




    अंधविश्वास केवल एशिया व भारत में ही सर्वोपरि नहींबाहर के देश भी इसके प्रभाव से मुक्त नहीं। वहाँ भी ग्रामीण क्षेत्र हमारे समान ही पिछड़े हुएकई प्रकार के दुरावों व पाप-पुण्य के बीच उलझे हुए हैं। इसी कारण जब अगाध सुंदरी डयू स्मिथ ने गौरव मुखी को अपने जीवन के काले अतीत के बारे में बताया तो एक बार वह यकीन न कर पाया। उसे यह जानकर अत्यन्त हैरानी हुई कि डयू के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआजैसाकि किसी भी सुंदर लड़की को जवान होने पर बुरी नीयत और दुश्कर्म से गुज़रना पड़ सकता है परन्तु माँ-बाप ने अपने धर्माधिकारी के चरित्र पर संदेह न किए जाने के अपने रूढ़िवादी और अंधविश्वासी व्यवहार को निभाया। जबकि डयू उस दुश्कर्म के कारण एच आई वी वायरस की लपेट में आ गयी। अपनी मेहनत व योग्यता के बल पर वह एक बड़ी कंपनी में उच्च पद पर पहुँच गयीउसके पास सब कुछ था परन्तु उसकी सुंदर नीली आँखें उदास बेनूर थीजिसके पीछे का रहस्य आज गौरव को समझ में आया था। इसलिए डयू उससे शादी नहीं करना चाहती थी क्योंकि वास्तविक जीवन में ऐसा करना संभव नहीं था। इस बीमारी का इलाज सारी उम्र करना पड़ता है। बाहर के देशों में ऐसी बीमारी के मरीज़ ज़्यादा है परन्तु इसके बाद भी वे जीवन में आगे बढ़ते हैंसमाज उन्हें उस प्रकार से नहीं दुत्कारताजिस प्रकार का व्यवहार हमारे यहाँ परिवार व समाज द्वारा किया जाता है।

    'वह ज़िन्दा है...कहानी हस्पताल की उस वास्तविकता को दर्शाती हैजिसमें अल्ट्रासाउंड करने वाली नर्स कीमर्ली ने जब एकदम सपाट तरीके से गर्भवती कविता से कह दिया कि 'मिसेज़ सिंह युअर बेबी इज़ डेड।ऐसा सुनते ही कविता के शरीर की गति वहीं रुक गई। फिर जो हुआवह बहुत ही दर्दनाक था। कविता के शरीर के गतिहीन हो जाने से मृत बच्चे को बहुत मुश्किल से उसके शरीर से बाहर निकाला गया। कविता की केवल साँसें से चल रही हैं जबकि वह अपना मानसिक संतुलन खो चुकी है क्योंकि दो बार गर्भपात हो जाने के बाद यह तीसरा मौका ही उसे माँ बना सकता था परन्तु नर्स द्वारा बिना किसी भावनात्मक अंदाज़ केप्यार या फुसला कर कहने की बजाय सच को पत्थर की तरह उसके दिल पर दे मारा। जिसे कमज़ोर कविता सहन नहीं कर पायी। पति के कार को पार्क करके वापस आने तक के कुछ मिनटों में ही उस दंपत्ति की ज़िदगी उजड़ गयी। अब पति हस्पताल के मैनेजमेंट से मानवता की लड़ाई लड़ रहा है । उसका तर्क बस इतना ही है कि 'वह सच बोलने के खिलाफ नहीं पर सच को बोला कैसे जाए!यह बात विदेशियों को हमसे सीखने की आवश्यकता है। कई बार भावनात्मक स्तर को सँभालने के लिए झूठ का सहारा भी लिया जा सकता है या उसे टाला जा सकता है। वास्तव में लेखिका दो भिन्न परिवेशों व परिस्थितियों को उनके दृश्टिकोणों द्वारा अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत करती है। इसे तुलना न भी कहा जाए तब भी लगता हैअच्छी बातअच्छी सलाह जहाँ से भी मिलेउसे सीख लेने में कोई बुराई नहीं। इससे आगे बढ़ने में मदद मिलती है।

    'भूल-भुलैयाभी कुछ इसी प्रकार के अंतर को बयान करती है। भारतीयों के वट्सएप ग्रुपों में लगातार इस प्रकार संदेश आ रहे थे कि एशियाई लोगों को अकेले-दुकेले देख करअगवा कर लिया जाता है और उन्हें मॉल्स के बड़े ट्रकों में उठा ले जाकरउनके मानवीय अंग निकाल लिए जाते है। इन संदेशों से घबरायी सुरभि ने जॉगिग करते हुए एक पार्क में उसका पीछा करते एक पुरुष-स्त्री को उसी गैंग का समझ लिया और अपने बचाव के लिए पुलिस को फ़ोन कर दिया। पुलिस ने आकर उसकी गलतफहमी दूर की कि ये सारी अफवाहें है और वे स्त्री-पुरुष उसकी सहायता के लिए उसके साथ-साथ आ रहे थे। जिस घटना के कारण ऐसी अफवाहें फैलने लगीवह एक गलती के कारण घटी और तभी खत्म भी हो गई परन्तु उस एशियन महिला ने बात का बतंगड़ बना करअटेंशन लेने के लिए कुछ का कुछ बना दिया। यह कहानी केवल विदेशों में ही नहींकहीं भी रहते हुए ऐसे फैलने वाले और फॉरवर्ड किए जाने वाले संदेशों से सतर्क करती है। जिस डिज़ीटल मीडिया की सुख-सुविधा ने हमारा जीवन आसान किया हैउस पर बढ़ती निर्भरता हमें बेआराम करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। भावनात्मक स्तर की बात करें तो संग्रह की बहुत सारी कहानियों में इसे प्रमुखता से देखा जा सकता है, जिसमें भारतीय पारिवारिक मूल्यों की अधिकता समायी हुई है।

    'कभी देर नहीं होतीमें ददिहाल के लाडले नंदी को माँ और ननिहाल के प्रभाव में आनंद में बदलना पड़ा। ननिहाल की चालाकी और तेज़-तर्रार भरे व्यवहार के कारण आनंद और उसके छोटे भाई को बचपन से ही दादा-दादी के प्यार व ममत्व भरे माहौल से दूर होना पड़ा। सब कुछ समझने के बावजूद उसके पापा ने मम्मी और ननिहाल के आगे चुप्पी साध ली ताकि बच्चों की परवरिश पर कोई बुरा असर न पड़े। जब इतने वर्षों के बाद अमरीका के एक शहर में रहते हुए उसकी बुआ ने 'नंदीकह कर पुकारातो वह इतने वर्षों के लंबे अंतराल के बाद उसी माहौल व अपनेपन से भर उठा। अंग्रेज़ी के दो शब्द हैंजो संबंधों के लिए प्रयोग किए जाते हैं 'कनेक्टहोना और 'रिलेशनहोना। परन्तु हम जानते हैं कि हर शब्द का अपना लहज़ाटोन व संदर्भ तो होता ही हैउसकी अनुभूति भी अलग होती है। यहाँ कनेक्शन से अर्थसंस्कारों सेभावनाओं सेअपने मूल से जुड़ा होना हैजिसमें वर्षों की दूरी भी कोई अर्थ नहीं रखती जबकि दूसरी ओर रिलेशनशिप में संबंध तब तक रहेगाजब तक आप चाहें...! इसलिए रिश्तों में कनेक्शन होना चाहिएरिलेशनशिप तो आती-जाती चीज़ है।

    ऐसा ही कुछ 'चलो फिर से शुरू करेंशीर्षक कहानी में भी देखा जा सकता है। विदेशी महिला से विवाह कर पुत्र माँ-बाप से अलग हो गया। माँ-बाप ने भी उसकी गृहस्थी में दखल देना ठीक न समझउससे दूरी बनाना उचित समझा। परन्तु जब उन्हें किसी परिचित द्वारा मालूम हुआ कि मार्थाकुशल को तलाक देकरबच्चों को उसके पास छोड़ कर चली गई। इतना ही नहींवह उसके नाम पर तीन मिलियन का कर्ज़ लेअपनी माँ के साथ चली गयी। यदि कुशल श्वेत अमेरिकन होता तो मार्था बच्चे साथ ले जाती परन्तु भारतीय अमेरिकन पिता के बच्चों को वह कभी स्वीकार नहीं करेगी। ऐसी मुश्किल स्थिति में कुशल को भुला दिए गए माँ-बाप ही याद आए क्योंकि उसे मालूम था कि उसके माँ-बाप ने उसे कभी भुलाया नहीं होगा। इसलिए उसने अपने पिता को फ़ोन किया और उनके पास अपने बच्चों को छोड़ करजीवन में एक नयी शुरूआत करने का संकल्प लिया।

    कॉलेज जीवन में ऐसे कई मित्र मिलते हैंजिनसे सारी उम्र का नाता बन जाता है और कई बार ऐसी कुछ घटनाएँ भी घट जाती हैंजिसकी कड़वाहट जीवन में घुल करपरिवार को भी बदनाम कर देती है। 'कँटीली झाड़ीमें डिप्टी कमिश्नर की बेटी होने के घमंड में खोयी अनुभा ने कॉलेज में अपना रौब बनाए रखा। परन्तु जब उससे अधिक योग्य और सुंदर नेहा पर उसका यह रौब न चला तो उसने नेहा को बदनाम करने की कोशिश की। यहाँ तक कि शादी के बाद किसी परिचित के घर पर मिलने परअनुभा ने फिर से नेहा के ड्राईवर के साथ घर से भाग जाने की बात फैला करससुराल में उसकी बदनामी करनी चाही। तब नेहा ने सभी को उसकी सारी सच्चाई से अवगत करवाया कि यह उसी के साथ घटा था। नेहा को समझ आ गया कि कुछ लोग इतने विषैले व कांटों भरे होते हैं कि उनसे न केवल बच कर रहना चाहिए बल्कि उन्हें उनकी औकात भी बता देनी चाहिए ताकि उनके खतरनाक कारनामों पर लगाम लग सके। इसी प्रकार कई बार पूजा व दीपक जैसे मित्र भी होते हैजिनकी शुरूआत लड़ाई से हुई हो परन्तु एक-दूसरे के संपर्क में आने और गलतफहमी दूर होने से दोनों ही एक-दूसरे के मददगार साबित हुए। परन्तु जीवन के लंबे समय में मित्र खो भी जाते हैंफिर ऐसी स्थिति आ जाती हैजब 'कल हम कहाँ तुम कहाँ'। कोई कहीं भी रहेंमीठी याद बन कर अवश्य दिल में समाए रहते हैं। मन क्या हैइसका चेतन/अवचेतन उसे कहाँ से कहाँ पहूँचा सकता है। सदियों से इसे जानने-समझने की कोशिश धर्मग्रंथोंशास्त्रों व फिलॉसफी द्वारा की जा रही है। कई बार निकट के संबंधों को व्यक्ति सारी उम्र समझ नहीं पाता और कई बार दूर-देश में बैठे अपने बच्चों की दुख-तकलीफ को माँ-बाप अपने घर में बैठे महसूस करतड़पने लगते है। कई लोगअपनों के अलावा दूसरों के दुख-दर्द या किसी आने वाले अनिष्ट को भांप लेते हैं। यह सब अबूझ पहेली समान हैजिसकी थाह पाना संभव नहींउस व्यक्ति के लिए भी नहींजिसे कुछ अप्रिय घटने का अंदेशा होने लगता है। माना जाता है कि सारा ब्रह्यांड एक-दूसरे से जुड़ा हुआ हैइससे बाहर कुछ भी नहीं। इसलिए प्रकृति में कुछ भी घटने का भासविशेषकर अप्रिय व दुखद घटने का एहसास संसार के कुछ जीवों को होने लगता है। कुछेक मनुष्यों को ऐसी अनुभूतियों का एहसास होना उनके अपने बूते की बात नहीं होती मगर कभी-कभार ऐसा होता है। ऐसी अनुभूतियों को लेकर दो कहानियाँ इस संग्रह में शामिल है। 'इस पार से उस पार' में सांची को ऐसा कुछ का एहसास अपने बचपन से ही होने लगा। उसने जब अपने परिवार व गली-मुहल्ले में एक-दो घटनाओं के बारे में घटने से पहले ही बता दिया परन्तु उसके परिवार वालों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। बल्कि उसकी इस अनुभूति को हमेशा के लिए दबा देने की कोशिश की। बरसों बाद उसने फिर एक बार अपनी सखी अनुघा को फलां समय पर सड़क पार करने से चेतावनी देकर उसे बचा लिया।

    'अबूझ पहेलीनामक कहानी की मुक्ता धीर को 9/11 के हवाई जहाज़ हादसे के दृश्य कुछ दिन पहले से ही नज़र आने लगे थे। उसे बार-बार दिखायी दे रहे इस दृश्य की समझ नहीं आ रही थी। परन्तु उसका तन-मन उदासक्लांत और निर्जीव महसूस कर रहा था। अपने पति व बेटे को बता देने के बावजूदउसे स्वयं पर भी यकीन हो रहा था। परन्तु वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का हादसा सच में घट गयाउसके पति व बेटे को उसकी बात पर यकीन आ गया । परन्तु इतने बरसों बाद भी मुक्ता स्वयं इस पहेली को बूझ नहीं पायी कि उसे वे दृश्य कुछ दिन पहले कैसे दिखायी देने लगे थे। वास्तव में मनुष्य विज्ञानमेडिकलअंतरिक्ष व तकनीकी स्तर पर कितनी भी प्रगति कर लेंप्रकृति और मन के बहुत सारे रहस्यों को समझ पाना अभी भी उसके वश की बात नहीं है।

    सुधा ओम ढींगरा की सारी ही कहानियाँ उसके शीर्षक 'चलो फिर से शुरू करें' को ही सार्थक करती है। मानवीय जीवन उतार-चढ़ाव का ही नाम है। इसमें हिम्म्त रखकर, डट कर चलने वाले ही जीवन की बहती धारा को पार सकते हैं।

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Monday, 16 March 2020

कहानी संग्रह "संगतराश" पर एक टिप्पणी

कहानियां मूलतः कोरी कल्पनाएं नहीं होतीं...  पात्र लेखक के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं जिनमें कल्पना तड़का लगाकर वह अमली जामा पहनाता है।  लेखक समाज में घट रही घटनाओं के साथ समानुभूति रखकर ही अपने रचना संसार का सृजन करता है। कई बार लेखक अपने शिल्प को गढ़ने के चक्कर में शब्दों का ऐसा मकड़जाल बुन लेता है कि उसका 'कहन' उसी जाल में फंसकर रह जाता है। "बात वही होती है जो ठक से लगे.." कोई तीन पांच नहीं... कोई बारगेनिंग नहीं... जो कहना है सीधे कह दो... जैसे किसी पहाड़ से नदी उतर रही हो... जैसे हेंवत में कोई अलाव भभक कर जल रहा हो... जैसे फागुन में कोई बयार मंद मंद बह रही हो... सब नैसर्गिक कोई बनावटी पन नहीं...

नज्म सुभाष का ये कहानी संग्रह वर्तमान परिस्थितियों का एक लिखित दस्तावेज है। रिश्तों का स्वार्थ, सरकारी योजनाओं की खाना पूर्ति, दफ्तरों का नाकारापन, नेताओं की करतूत लेखक ने अपनी कहानियों में समाज के हर पक्ष पर पैनी नजर रखते हुए पात्रों के किरदार को चुना है। उनका ये पहला कहानी संग्रह होने के बावजूद इनकी कहानियां हर स्तर पर सराहनीय हैं।

सबसे पहले तो उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा 'अंतर्विरोधों का बुनियादी रचाव' भी पठनीय है और प्रस्तुत कहानी संग्रह में चार चांद लगाने वाला है। 

पहली कहानी 'मुर्दाखोर' गरीबी में जी रहे 'मड़ई' के संघर्षों की कहानी है। जो अंततः उसके पिपरमिंट पीकर मर जाने पर समाप्त होती है। पात्रों के हिसाब से अवधी मिश्रित भाषा कहानी को और आकर्षक बनाती है। 

दूसरी कहानी 'खिड़कियों में फंसी धूप' में 'सुरजी' जो कि विधवा है, के माध्यम से सामाजिक ताने-बाने पर करारा प्रहार करने का सफल प्रयास है। ये कहानी भी पठनीय है।

तीसरी कहानी... 'मेरा कुसूर क्या था' में कॉलेज मित्र शिल्पा की डायरी के पांच पन्नों को मिलाकर एक भावपूर्ण  कहानी बुनी है। जिसके अंत में लेखक खुद कहता है- "यथार्थ ऐसा भी हो सकता है मैंने पहली बार जाना । इन पांच पन्नों ने शिल्पा की जिंदगी की प्रत्येक गांठ को खोलकर रख दिया। लेकिन वह खुद एक गांठ बन गई....

चौथी कहानी 'मुक्ति' ...... "आज इस घटना के पांच साल गुजर चुके हैं। सपना ने अपनी मुक्ति के बारे में सोचा, उसने मुक्ति पायी या नहीं ये तो मुझे नहीं मालूम , लेकिन मेरे दिल ने उसकी यादों से मुक्ति नहीं पायी। आखिर कब मिलेगी मुझे मुक्ति ....

ये कहानियां सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखी गई हैं। नए तेवर नए कलेवर के साथ भावों को सही दिशा देने का सफल प्रयास हैं। ये कहानियां एसी कमरों में बैठकर फुटपाथों का प्रलाप नही है। ऐसा लगता है कि जैसे लेखक ने पात्रों को खुद जिया हो...। व्यंजनाओं में कोई बनावटी पन नहीं, संवाद भी ऐसे लिखे गये हैं जैसे पात्रों के मुंह से सहज ही निकले हों ... ये तारीफ मेरे पसंदीदा होने भर से ही नहीं है कहानियां हैं ही ऐसी कि आप पढ़ेंगे तो तारीफ किये बिना नहीं रह पाएंगे .....

पांचवी कहानी 'कहर'.... दस वर्षीय भीखू की सांप काटने से मौत.... बाढ़ राहत के नाम पर साहब लोगों बेहूदगी अंत में 'शंकर' का एंग्री यंग मैन वाला अवतार.... गंवई भाषा की छौंक के साथ आगे बढ़ती कहानी बहुत बढ़िया बनी है। 
"अरे साहब ईका नाम गोबर सींग है।" प्रधान चिल्लाये
"गोबर सींग" यहौ कोई नाम होत।"
.... "नाव तौ हमार गोबर्धन सिंह है मुला सब बिगारि-बिगारि कैहां यहै कहै लागि'

छठवीं कहानी.... "सौ रुपये का नोट"....जब भी गांव की बात चलती है कामिनी चिढ़ जाती है। और मुझे चिढ़ाते हुए कहेगी-"तुम्हारे गांव की औरतें भी अजीब हैं, अपने से बड़ों के आगे एक हाथ का घूंघट काढेंगी, मगर जब शौंच के लिए जाएंगी तो सड़क पर ही झुंड की झुंड बैठ जाएंगी। उनका पिछवाड़ा तो हर कोई देख सकता है और अनुमान लगा सकता है कि यह किस घर का है। मगर कोई उनका मुंह नहीं देख सकता।" ..... शुरुआत तो चुटीले ढंग से की गई है पर अंत तक करुणा अपना पाँव फैलाती है और पाठक को रुला कर छोड़ देती है। कहानी में गांव से लेकर शहरों के भी वो इलाके जो दूर-दराज बसे हैं उनका बृहद वर्णन है। 

सातवीं कहानी 'शतरंज'....गांव की परधानी का चुनाव... अगड़े-पिछड़ों का संघर्ष, कुटिल राजनीति, दारू से लेकर पैसे तक का जोर, दलित उम्मीदवार की जहरीली शराब पिलाकर हत्या और अंत में दसकों के प्रधान का चुनाव हार जाना... फुल प्रूफ ड्रामे से भरपूर कहानी जिसपर पूरी पिक्चर भी बन सकती है।

आठवीं कहानी 'भेड़िए'... जाति विशेष में प्रचलित रिवाज जिसमें एक भाई की शादी होने पर अन्य भाई भी उस ब्याहता के साथ पति की तरह ब्यवहार कर सकते थे के खिलाफ 'बुधिया' के संघर्षों की कहानी जिसमें उम्मीद जगाती हुई उसकी जीत नई उम्मीद जगाती है। ये कहानी भी पठनीय है। पुरुषों के वर्चस्व पर पात्रों के माध्यम से चोट करके महिलाओं की स्थिति को दिशा देने का सफल प्रयास किया गया है। 

नौंवी कहानी..'मजमेबाज' बेरोजगारी का दंश झेल रहे युवा के माध्यम से देश की वर्तमान का वृहद वर्णन... बीच में जमूरे और मदारी का तड़का भी... टीवी वाले भैया लोगों का तो कहना ही क्या है। लगे रहो इंडिया... इधर मारो उधर गिराओ बाल की खाल निकालो और कुत्ते को पहनाओ कुल मिलाकर मजे लेना है तो कहानी पढ़ो..."दुनिया एक मजमा ही है। जिसकी जम गई उसकी बल्ले-बल्ले वरना थल्ले-थल्ले .....

दसवीं कहानी... 'मैं पाकिस्तानी नहीं हूँ' देश की वर्तमान स्थिति पर करारा तमाचा...जाति व्यवस्था और धार्मिकता पर करारा प्रहार... कहानी में एक मजदूरी करने वाले आबिद को पाकिस्तानी आतंकवादी कहकर मार दिया जाता है और बाद में उसको मारने वाला पुलिसवाला खुद भी पागल हो जाता है। अच्छी बुनी हुई कहानी..

ग्यारहवीं कहानी- 'दाग' ... सड़क दुर्घटना से चेहरे पर आए दाग से जूझती एक युवती की कहानी.. परिस्थितियों का मनोवैज्ञानिक चित्रण अकेले पन का दर्द अपनो का स्वार्थ हंसी मज़ाक और यौनिकता का तड़का... सब है कहानी में और अंत सुखद है।
बारहवीं कहानी- 'सौदा' ... बेरोजगारी से जूझते सामान्यवर्ग के युवक की कहानी... आरक्षण पर भी लेखक के विचार संसद तक पहुचाने योग्य हैं। नौकरी के एवज में पागल लड़की से शादी का प्रस्ताव ... मरता क्या न करता वाली स्थिति फिर अंत में नौकरी वाली ख़ुशख़बरी सुनने से पहले ही उसकी मां का देहांत ... बढ़िया कहानी।

तेरहवीं कहानी- 'रग्घुआ सिर्री होइ गा' अब्यवस्थाओं की पावन भूमि है भारतवर्ष... यहाँ रग्घू सिर्फ मर ही सकता है और कर भी क्या सकता है? वैसे तो पूरा गांव रग्घू और सुरसती से कटा रहता है पर उसके दारू की भट्टी खोलने पर वही गांव वाले उसकी रौनक बढ़ाने भी आ जाते हैं। बिना लाइसेंस के दारू की भट्टी चलाना वैसे तो जुर्म है पर अगर पुलिस को घूस दे दिया जाय तो ठीक हो सकता है। कहानी स्कूली मास्टरों की हरामखोरी से शुरू होकर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन तक जाती है और अंत आते आते बहुत कुछ सोचने के लिए छोड़ जाती है।

चौदहवी कहानी - 'संगतराश'... कारीगर बाप बेटे के जद्दोजहद की कहानी... मेहनत की बारगेनिंग मूर्तियों की चोरी पुलिस का रिपोर्ट न लिखना। डॉक्टरी पेशे की हरामखोरी। एक आम आदमी की जिंदगी को संगतराश कारीगरों के माध्यम से बखूबी दर्शाया गया है इस कहानी में...'एक परिपक्व कहानी' जिसे पढ़ते हुए पाठक को लेखक के उम्रदराज होने का वहम भी हो सकता है और नए लेखकों को जलन भी कि कोई इतना अच्छा कैसे लिख सकता है। कुल मिलाकर एक मानक स्तर की कहानी जिसे पढ़ते हुए आप रोमांचित भी होंगे, गुस्सा भी आएगा, दया भी आएगी और आप करुणा से भी भर जाएंगे। 
पंद्रहवीं कहानी -  'अपने-पराये' ... जिसमें दादी के माध्यम से पारिवारिक रिश्तों का गहन विमर्श है। दादी को टीबी है जिसे वो मानने को ही तैयार नहीं होतीं... मानती भी हैं तो इलाज पूरा होने से पहले ही गांव के लिए निकल जाती हैं। 
भाषा वही है नज्म सुभाष टाइप.. "डाक्टरवा पगलेट है... हमरे टी बी नाइ हय।"
अंतिम कहानी- 'बरसात की रात' बेहद मार्मिक दृश्यांकन 
"कुत्ते ने कान झाड़े, एक नज़र गौर से रवि के चेहरे पर डाली। जहाँ लताड़ का कोई भाव न था। वह भागते हुए आया और रवि का हाथ चाटने लगा। रवि को महसूस हुआ सारी ठंड अब गायब हो चुकी थी.... 
सराहनीय कहानी संग्रह जिसे पढ़ा ही जाना चाहिए।

पुस्तक- संगतराश
विधा- कहानी संग्रह
लेखक- नज्म सुभाष
प्रकाशक- लोकोदय प्रकाशन , लखनऊ

चित्र गुप्त

Sunday, 1 March 2020

शिक्षा के सवाल

          कुछ समय पहले आदरणीय महेश पुनेठा सर जो कि स्वयं सरकारी विद्यालय में अध्यापक हैं, की पुस्तक 'शिक्षा के सवाल' पढ़ी। मैं समीक्षक नहीं बल्कि छात्र हूँ। कम शब्दों में इस किताब पर अपने विचार देना चाहूंगा। इस किताब के माध्यम से वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की छोटी से छोटी कमियों  को उजागर किया गया है। सुधार हेतु मजबूत सुझावों के साथ ही अपने द्वारा व विभिन्न जगहों में  परिचित अध्यापको के द्वारा प्रत्यक्ष प्रयोग में लायी गयी बातों व  उनके प्रभावों का भी विवरण दिया गया है।


           यह किताब केवल सवाल ही नही करती वरन  शिक्षा से सम्बंधित सभी पहलुओं पर सुस्त अध्यापको को,नीति निर्माताओं को जिन्होंने विश्वबैंक,मुद्रा कोषो आदि को शिक्षा में हस्तक्षेप की छूट दी हुई है जिन्होंने शिक्षा को बिकाऊ बनाया है,चयन कर्ताओं को जो पांच -पास,आठ- पास लोगो को अध्यापक बनाते है, पढ़ने के लिए माहौल को लेकर अभिभावकों को,आम नागरिकों की मानसिकता को, यहां तक कि समाज को भी छात्रों के जीवन के लिए  कटघरे में खड़ा किया है। परिवार से आरम्भ होने वाली शिक्षा प्रक्रिया को आड़े हाथों लिया है।गरीबो के लिए शासन से सवाल है,अंग्रेजी के प्रभाव पर सवाल है। शिक्षा के नाम पर खुली दरिद्र दुकानों का भंडाफोड़ किया है।अच्छी बात ये है कि साथ मे  उत्तम व्यवस्था के निर्माण का मार्ग भी बताया है। अर्थमानव बनाने वाली सोच पर प्रहार किया गया है। शिक्षा पर बाजार के प्रभाव को अंकित किया है वैज्ञानिक सोच के बल पर स्वमूल्यांकन करने की बात की है।
          संछेप में कहू तो शिक्षा के हर पहलू को उजागर किया है.अंतिम सत्य को नकारने की,स्वेच्छिक परीक्षा कराने, अध्यापको को बाल-मन को समझने की,अधिक से अधिक संवाद कराने की,शिक्षा निर्धारकों द्वारा बच्चों की हर समस्या के निदान के लिए प्रयास करने,अध्यापको को बच्चों के साथ प्रेमपूर्वक रहने,कल्पनाशील-संवेदनशील होने,सीखने सिखाने के तरीके ढूढ़ने, अनुभव या फिर डायरी लिखने,अपडेट रहने,निरन्तर अध्ययन करते रहने,यात्राएं करने की बात की है। अध्यापको द्वारा ये सब करने से बच्चें पर प्रत्यक्ष व सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
 बच्चों में भागीदारी बढ़ाने व राजनीतिक प्रक्रिया को आसानी से समझाने के लिए 'बाल-सरकार' बनाने या फिर 'विद्यालय प्रतिनिधि सभा' बनाने की पूरी प्रक्रिया विधिवत दी हुई है। वो भी प्रयोग करने के बाद।
बीच मे चंद्रकांत देवताले की कविता का उल्लेख किया है-
वे पृथिवी के बाशिन्दे है करोड़ो/
और उनके पास आवाजो का महासागर है/
जो गुब्बारे की तरह/
फोड़ सकता है किसी भी वक्त/
अंधेरे के सबसे बड़े बोगदे को।
गरीब बच्चों की पीड़ा को ले आये है।
          अँग्रेजी की चल रही होड़ का पर्दाफाश किया है। यूo पीoएसoसीo के लिए बनाई गयी नीतियों के लिए सरकार से प्रश्न किया है। बच्चों की जिज्ञासा सांत करने के लिए  कार्यशाला को उपयोगी बताया है।साथ ही अपने व सहयोगी अध्यापको द्वारा चलाये गए 'दीवार पत्रिका' अभियान जो बच्चों के सीखने का,समझ बढ़ाने का,सोचने का,अपने को प्रदर्शित करने का,खुलने का, सबसे अच्छा माध्यम है इसके विषयो,प्ररूपो,बनाने की विधियों आदि का उल्लेख सरलता से किया गया है।इस के प्रभाव भी अंकित किये गए है।
           वर्तमान में लागू की जा रही 'वाउचर' प्रणाली पर गहराई से प्रकाश डाला है।उसके प्रभावों को भापा है। प्रतिस्पर्धाओ को खत्म करने,अंधविश्वास पर खुल कर बात करने की बात की है। भय का पंचांग खोल दिया है भय की तुलना 'लू' से की है।अध्यापको से भय को समाप्त करने की बात की है। 'यात्रा'को सीखने का उपयुक्त माध्यम बताया है 'किताबे हमे ज्ञान की उस गहराई तक नही पहुँचाती जहां तक यात्राएं पहुँचाती है।' अस्कोट-आराकोट यात्रा का उल्लेख प्रेरणादायी है आस-पास भृमण से चीजो को  समझने का समर्थन किया है। मीना डायरी से अनेक अनुभवों को पाठको के सामने लाने का प्रयास किया गयाहै प्रारम्भ में 'सर्जनसीलता' पर विस्तार से प्रकाश डाला है।नया सोचने और नया करने की बात की है। अध्यापको की परेशानियों की जड़ पकड़कर इसके निदान हेतु अध्यापन के अतिरिक्त अन्य कार्यो से उन्हें मुक्त रखने की पैरवी की है। विद्यालय में पुस्तकालय न होने पर कम से कम किताबों का एक कोना जरूर बनाने की सिफारिश की है। सम्पूर्ण दुनिया को स्कूल बताया है। सरकारी विद्यालयों को वास्तविक अर्थो में विद्या का घर माना है । सरकारी विद्यालयों को सुविधाएं देने,अध्यापको की बात सुनने के लिए सरकार को जगाने का प्रबल प्रयास किया है। जो कुछ भी अनजान छात्रों को स्कूली जीवन में चहाईये होता है उन सब को इस किताब में रेखांकित किया गया है यह किताब शिक्षा  व्यवस्था में सुधार व सकारात्मक परिवर्तन की परिचायक है।
                     - दिनेश जोशी।

Thursday, 9 January 2020

एक धरती मेरे अन्दर

पुस्तक समीक्षा
कविता संग्रह/ एक धरती मेरे अंदर/ उमेश पंकज
                                      - जयनारायण प्रसाद

    किसी ने कहा है कि ज्वलंत समय में संवेदनशील, सुंदर और दूसरों से संवाद करतीं कविताएँ लिखना 'शब्दों से मुठभेड़' करने जैसा है। मेरे मित्र और एक जमाने में कोलकाता से 'वृत्तांत' जैसी जनवादी चेतना की उल्लेखनीय साहित्यिक पत्रिका निकालने वाले उमेश पंकज के पहले कविता संग्रह 'एक धरती मेरे अंदर' में शामिल कविताएँ यह बताती हैं कि घोर हताशा और संवादहीनता के इस दौर में भी वे बेहतरीन जिंदगी का सपना देखते हैं। उमेश पंकज की कविताओं को पढ़ना सचमुच 'आज के समय' और 'इस दौर' को जानने जैसा हैं। उनकी एक कविता है- 'उस पार जाना है।' (पृष्ठ 32) इस कविता में उमेश पंकज लिखते हैं-

जीवन की सुखी नदी में
तैरते-तैरते 
थोड़ा थक गया हूँ
करने लगा हूँ-शवासन
भ्रम हो सकता है
बह रही है कोई लाश
मंडरा सकते हैं गिद्ध
मेरे ऊपर 
हमला कर सकते हैं 
सावधान हूँ, लेकिन
बटोर रहा हूँ ऊर्जा
जाना है उस पार
जहाँ खड़े हैं
हरे भरे पेड़
झूमते हुए
बेसब्री से
मेरी प्रतीक्षा करते हुए
    उमेश पंकज के इस संग्रह में कुल 82 कविताएँ हैं, लेकिन सिर्फ दो कविताएँ ऐसी हैं, जो 80-81 के दौर में लिखी गईं। ये कविताएँ हैं- महानगर एक अजगर और बरगद काटने की प्रक्रिया में। बाकी की कविताएँ जनवरी, 2018 से अप्रैल, 2019 के बीच की हैं। कवि का कहना है कि उनके जीवन का अच्छा और बेहतरीन फेज महानगर कोलकाता में बीता, जहाँ उन्होंने न सिर्फ 'वृत्तांत' जैसी उत्कृष्ट मासिक का संपादन किया, बल्कि कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर (हिन्दी) की पढ़ाई करते-करते छात्र राजनीति से भी जुड़े रहे। यह सन् 1985 का दौर था- जूझारू, संघर्षशील और कुछ-कुछ उत्कृष्ट भी। इसी दौरान बाबा नागार्जुन के सान्निध्य में अखिल भारतीय स्तर का एक युवा रचना शिविर भी उमेश पंकज ने आयोजित किया, जिसमें देश भर से करीब सवा सौ रचनाकार शामिल हुए।
     उत्तर प्रदेश के बलिया में जन्मे और लखनऊ में बसे उमेश पंकज की कविताएँ हमें सचेत और जागरूक भी करती हैं। उनकी एक और कविता है- 'समय हँसता है।' इस कविता की अंतिम कुछ पंक्तियाँ हैं-

उसे पुकारा, पीछा किया उसका
लेकिन पकड़ नहीं सका
अलबत्ता दमे ने पकड़ लिया मुझे
रोज खांसते हुए हांफता हूँ
और समय हँसता है
हाथ लहराते हुए

    इस कविता में तंज भी है और एहसास-बोध भी ! 'तमीज' शीर्षक उनकी कविता भी 'समय से मुठभेड़' करती दिखती है। जंगल का दर्द, राम खेलावन, राख होने के पहले, अभी जिंदा हूँ, वह तो पूरा पागल है और जादूगर शीर्षक रचनाएँ समय-बोध, टीस और स्याह अंधेरे को अभिव्यक्त और रेखांकित करती कविताएँ हैं। उमेश पंकज का यह कविता संग्रह लखनऊ के लोकोदय प्रकाशन से आया है और इसका आमुख चाक्षुष और पाठकों को आकर्षित करने वाला है।
    कवि त्रिलोचन, नागार्जुन, राजेश जोशी, अरुण कमल और मदन कश्यप जैसे कवियों की कविताएँ उमेश पंकज को ज्यादा भाती हैं। वे कहते हैं- ऐसे कवि की कविता/ रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं, तो सुकून-सा लगता है और एक अजीब-सी ऊर्जा से सराबोर हो जाता हूँ।

Tuesday, 3 December 2019

पुस्तक समीक्षा- हवा को जाने नहीं देगी।

गणेश गनी द्वारा लिखित साहित्य सम्वाद बारह कवयित्रियों की कविताओं पर केंद्रित है। पुस्तक 'हवा को जाने नहीं देगी' साहित्य की हर विधा का आनंद और रसास्वादन कराती है। बारह रचनाकारों की कविताओं से गुजरते हुए गणेश गनी संस्मरण, यात्रा वृतांत, लोक कथा जैसी तमाम विधाओं से तो गुजरते ही हैं साथ ही किस्सागोई की प्राचीन शैली को नए रूप में पाठकों के सामने ले आते हैं। आलोचना की पुस्तक होते हुए भी यह एक अनूठी पुस्तक है। गद्य और पद्य की नवीनता से पाठक रूबरू रू-ब-रू होता है। गणेश इसे साहित्य संवाद कहते हैं। किताब में साहित्य संवाद से पहले वह स्वयं की एक कविता, हवा को जाने नहीं देगी, देते हैं-
आज वह आई है ठान कर
कि अपनी सीटी की आवाज से 
बुलाने पर पल में 
दौड़ी चली आने वाली हवा को 
जाने ही नहीं देगी।

प्रस्तुत पुस्तक में सबसे पहले ममता कालिया हैं जिनका नाम पाठक वर्ग के लिए अपरिचित नहीं है। ऐसे ही हर आज का कल होता रहा शीर्षक में गणेश बर्फ और पहाड़ से संवाद करते हुए ममता कालिया की कविताओं को पढ़ते हैं। संवाद के माध्यम से उनका आलोचक रूप भी पाठक के सामने आता है। वह कहते हैं ’ममता कालिया की तमाम कविताएँ जीवन से जुड़ी हैं। संबंधों और रिश्तों को अपनी कविताओं में जिस साफगोई से ममता कालिया ने उकेरा है, वैसा कोई कोई ही कर पाता है। सीधी-सीधी बात करना और बेबाक तथा निडर होकर जीवन की हकीकत बयान करना कवयित्री को अच्छे से आता है। स्थानीय तथा आम बोलचाल के शब्दों का बखूबी प्रयोग किया गया है।’ इस तरह की आलोचनात्मक टिप्पणियाँ पूरी पुस्तक में दिखाई देती हैं। ममता कालिया की कविताओं को गनी ने बड़ी बारीकी से पकड़ा है। गणेश के यह शब्द ममता कालिया के साथ स्वयं गणेश पर भी लागू होते हैं। एक मुक्तक में पूरा दर्शन समेटकर ममता ने साबित कर दिया है कि बड़ी बात कहने के लिए लंबी चौड़ी तहरीर की जरूरत कतई नहीं होती है। जितना यह कथन ममता कालिया पर लागू होता है उतना ही गणेश पर भी लागू होता है। छोटे-छोटे आलोचनात्मक कथ्य मुक्तक की तरह आलोचना के दर्शन को समेटे हुए हैं। अपने आलोचनात्मक तथ्य को स्पष्ट करने के लिए गणेश मनोवैज्ञानिक वेंकट मैस्लो, अमृता प्रीतम, मणि मोहन का अनुवाद भी प्रस्तुत करते हैं जो उनके व्यापक अध्ययन का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। ममता कालिया ने प्रेम और औरत को स्त्री के नजरिया से लिखा ही नहीं है बल्कि उसे रचा भी है। ममता जी की हर कविता हर औरत की कविता है और यह भी बड़ा सच है कि बच्चे अक्सर पैरों में बेड़ी बांध देते हैं जिससे कि स्त्रियाँ स्वतंत्रता की उड़ान नहीं भर पाती हैं-
तीन बीस पर छूटती थी रेल दिल्ली जाने वाली 
वह रोज सोचती 
उतारेगी वह अलमारी के ऊपर से अटैची
भरेगी उसमें अपनी दो चार साड़ियाँ सलवार सूट 
पर्स में रखेगी अपनी चेक बुक संदूकची में 
छुपाए हुए रुपए भी 
निकल पड़ेगी वह नई राह पर 
प्रवाह पर 
तीन तीस पर बच्चे लौटते थे स्कूल से 
यहीं से उसकी पराजय शुरू होती थी
वह तो अपने आप कपड़े भी नहीं बदलते हैं 
खाना निकालकर क्या खाएँगे
ऐसे ही हर आज का कल होता रहा।

गणेश का मानना है की रेखा की कविताओं ने शब्दों को जीवन के अनुभवों से निकाला है। रेखा पर आलोचनात्मक दृष्टि डालते हुए गणेश की एक खूबी मेरे सामने आती है, वह अक्सर एक कवि की रचना से गुजरते हुए दूसरी कविता की विवेचना भी करते चलते हैं ठीक भाव साम्य के आधार पर। बेहतरीन कविता भीतर तक रोशनी देती है इस तरह के सत्य हमें पता हैं पर गणेश उस सत्य को कहते हैं और उसी सत्य से कविता को जोड़ देते हैं। गणेश गनी प्रकृति को बड़े अपनेपन से ग्रहण करते हैं। अपनी रचनात्मकता में उन्होंने पहाड़ों की पूरी जिंदगी और उसे जीने की शैली को इस पुस्तक में पूरी तरह से डाल दिया है और फिर उसी से कविता के रस को गुनगुना दिया है। पहाड़ पर धूप के टुकड़े आदि प्राकृतिक बिंब रचनाकार की कविताओं की प्रकृति से ऐसे  मिल गए हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। यहाँ अपनेपन की तलाश की बड़ी अनूठी व्यंजना है और लेखन की प्रकृति भी अलग है। तभी तो रेखा जी भी कहती हैं-
चढ़ता है चाव
फिर से ओढूँ अपनी देह
देखूँ
क्या वह मुझे आज भी पहन पाएगी।

प्रकृति के और भी रंग हैं जो समालोचना के दौरान आए हैं पर एक रंग जिसे इंसान ने अपने लाभ और स्वार्थ के लिए खड़ा किया है वह बहुत ही पीड़ादायक है। प्रकृति के ऐसे रूप की चिंता सिर्फ रचनाकारों को ही नहीं बल्कि आलोचक गणेश को भी है।
सुदर्शन की कविताओं में सिर्फ नारेबाजी नहीं बल्कि प्रयास है, प्रेरणा और विचार बदलने की ताकत भी है। गणेश इन कवयित्रियों की रचनाओं में बिंब, प्रतीक, भाषा और शैली पर विचार करते हैं। गनी रचनाकार की सृजन प्रक्रिया को प्रकृति के माध्यम से बताते  हैं-
तुम चाहो तो इसे 
कमरे के कोने में 
गमले में उगा सकते हो 
दोस्तों को दिखा सकते हो 
अपनी उपलब्धियों की तरह 
आदेश दे सकते हो जड़ों को 
कहाँ तक फैलना है इन्हें 
कह सकते हो टहनियों से कि
कहाँ खत्म होना जरूरी है 
उनकी उत्कंठा 
पेड़ की छाया तले बैठा मानव 
हो सकता है बोधिसत्व 
मानव की छाया तले उगा वह बौना सा पेड़ 
एक दुर्घटना है बस।

कवयित्री सुदर्शन शर्मा की कविता में व्यंग्य की धार दिखाई देती है पर यह आक्रामक नहीं बल्कि सहज है।-
तुमने कहा भूख 
उन्होंने कहा 
क्षुध धातु से बना है 
जिसका अर्थ है भूख 
तुम थाम कर रखो भूख को 
हम क्षुधा की निगरानी करेंगे।

सुदर्शन शर्मा की कविताओं में राजनीति, आस्था, ईश्वर, मनुष्य सभी रचनाकार की अलग दृष्टि का परिचायक है- 
अपने दुखों को वहीं ढेर कर
क्यों नहीं ईश्वर के घर का द्वार बंद कर दिया जाए 
हो सकता है भूखा प्यासा ईश्वर 
एक दिन तार भेजे मनुष्य को
 कि आओ दुखों का हिसाब किताब करते हैं।
गणेश इन कवयित्रियों की रचनाओं में उपमान, बिंब, प्रतीक, भाषा, शैली सब पर विचार करते हैं। रचनाकार की प्रक्रिया को प्रकृति के माध्यम से बताते और महसूस करते हैं। सीधी उपस्थित तभी तो बताते हैं। पुस्तक में लोक कथाओं का रसास्वादन अपने आप बड़ा मधुर बन पड़ा है। गणेश लोक कथाओं का वर्णन करते हुए कथा प्रवाह को आगे बढ़ाने के लिए कविताओं को बीच-बीच में टांक देते हैं। पढ़ने पर बाद में ध्यान आता है कि यह कविता तो कवि की है पर लोककथा में फिट बैठ जाती है, जो अपना अलग संदर्भ खोलती है। कहीं-कहीं संवाद के साथ अचानक कविता के उदाहरण आ गए हैं जो संवाद से मुखातिब नहीं है परन्तु ऐसा कुछ ही स्थल पर हुआ है। उदाहरणार्थ चित्रकार की कहानी और संध्या जी की कविता को हम देख सकते हैं। इसी तरह से चंद्र और भागा की कहानी में अचानक सुमन शर्मा की कविताएँ आ जाती हैं। परन्तु साहित्य संवाद एक अलग विधा के रूप में हम देख सकते हैं इसलिए इन कमियों को नजरअंदाज करना ही पड़ेगा। उसमें लोक की कहावतें और कथाएँ बड़े अनोखे ढंग से गूंथी हैं। हर संवाद के  अर्थ हैं पर मेरे मन में यह प्रश्न आता है कि अगर पाठक संवाद की पगडंडियों पर न चलना चाहे तब? वह कविता और उसके अंदर से संवाद को न जुड़ना चाहे तब? इसका जवाब गणेश एक जगह देते हुए कहते हैं ’लोक कथाओं में सच्चाई होती है बाकी आपकी मर्जी’। कहीं-कहीं संवाद बेहद प्रिय हैं। प्रियंका की कविताओं से गुजरते हुए गणेश गनी कहानी में रिश्तों की बुनावट बताते हैं फिर रिश्ते की उसी डोर से प्रियंका जी की कविता बांध देते हैं। एक छोर से दूसरे छोर तक जाने के लिए रिश्ता माध्यम बन जाता है और कविता की संवेदना को काव्य कसौटी के मानदंडों की आवश्यकता नहीं रह जाती है। प्रियंका की कविताओं पर लिखते हुए गणेश स्त्री विमर्श की कुछ छिपी परतों को सहज शब्दों के सहयोग से व्यंग्य में खोलते हैं। वह कहते हैं ’शब्दों की जादूगरी के खेल में छली गई स्त्री हमेशा। वे लोग विमर्श में उलझे रहे और मूल प्रश्न उन पर हँसता रहा।’ यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि स्त्री विमर्श का यही आईना है। 
भावना मिश्रा बड़े ठोस शब्दों में स्त्री विमर्श की सच्चाई को सामने लाती हैं जिसे गणेश अपनी आलोचना में रेखांकित करते हुए कहते हैं-
आज तुम हर मंच पर चढ़कर
 चीख रहे हो मेरी स्वतंत्रता के हक में 
और तुम्हारी इस चीख के पृष्ठ में
 मैं सुन रही हूँ एक और अनुबंध की अनुगूंज
 कि मुझे आजीवन रहना होगा
 शतरंज का एक  मोहरा।

कहीं-कहीं कविता का चयन गणेश गनी आश्चर्यजनक रूप में करते हैं। संवेदना की दृष्टि से बड़ी सूक्ष्म पकड़ उनकी योग्यता का परिचायक है। सोनाली जी की एक कविता का उदाहरण देखिए-
स्त्री के नैनों में ताकता हुआ पुरुष 
प्रकृति की निश्छलता देख रहा था
 प्रेम में स्त्री प्रकृति हो जाती है 
निश्चल प्राकृतिक और स्वयं में पूर्ण।

इस कविता को रेखांकित करते हुए गणेश कहते हैं कि पुरुष महिलाओं को न केवल पर्सनल प्रॉपर्टी ही समझते हैं बल्कि उनके बोलने पर भी अपना अधिकार चाहते हैं। वह क्या बोले, कब बोले, कहाँ बोले, यह सब पुरुष चाहता है। यह दीवार, यह अतिवाद जीवन में ही नहीं साहित्य के क्षेत्र में भी फैला हुआ है। गणेश का आलोचनात्मक दृष्टिकोण और विचारों की पारदर्शिता इन स्थलों पर दिखाई देती है। किताब काव्यात्मक रसास्वादन के साथ आलोचनात्मक आनंद भी देती है। यह पुस्तक पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी है।
                                               - डॉ शुभा श्रीवास्तव

Saturday, 30 November 2019

राजधानी - 1

लोकोदय नवलेखन से सम्मानित कविता संग्रह 'राजधानी' के सम्बंध में युवा कविता और युवा द्वादश के लिए कवियों का चयन करने वाले आलोचक निरंजन श्रोत्रिय कहते हैं -
युवा कवि अनिल पुष्कर की ये बावन कविताएँ निरंकुश सत्ता के आततायी चेहरे और दुरभिसंधियों को बहुत बेबाकी से बेनकाब करती हैं। क्रूर, शोषक सत्ता द्वारा उत्पन्न भय, खौफ़, उत्पीड़न और अनाचार के खिलाफ इस कवि के भीतर एक जरूरी और जेनुइन गुस्सा एवं नफरत है। वह इन सबके खिलाफ़ अपनी कविता में उबल पड़ता है और अपनी कविता को संघर्ष का हथियार बनाता है।
कवि को अपने समकाल, समाज और राजनीति की गहरी समझ है। यही कारण है कि वे शब्दों और परिभाषाओं के पीछे छुपे उस सत्य को उजागर करते हैं जिसका मोहक व्याकरण सत्ताधीश रचते हैं। धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर फैलाए जाने वाले झूठ और पाखण्ड दरअसल सत्तापक्ष की चालाक युक्तियाँ हैं जिन्हें अनिल अपनी कविताओं में न सिर्फ बेनकाब करते हैं बल्कि जनता को इन खतरों के प्रति आगाह भी करते हैं।
अनिल अपनी कविताओं में झूठे आशावाद से परहेज ही नहीं करते बल्कि इस अफीमी नींद में एक दुःस्वप्न की तरह दाखिल होते हैं ताकि यह लम्बी नींद जल्द टूटे। यह एक उत्तरदायी कवि-कर्म है। एक तय प्रतिबद्धता और राजनीतिक सजगता से कवि अपनी अंतर्दृष्टि को चेतना सम्पन्न बनाता है। 
अनिल की ये कविताएँ एक सजग इतिहासबोध का पता भी देती हैं। वे उस फ़र्क को बयाँ करते हैं जब सत्ता के खेल को इतिहास और जनता के इतिहास को खेल करार दिया जाता है। सत्ता की निरंकुश क्रूरता और जनता की विवश तालियों का यह द्वन्द्व इस युवा कवि को एक नया तेवर प्रदान करता है जहाँ गुस्सा है, कटाक्ष है, वक्रोक्ति और व्यंग्य है। चाहे वो ‘राजधानी’ शृंखला की कविताएँ हों या ‘ओ लोकप्रिय देश’ जैसी लम्बी कविता, यह युवा कवि मानो सत्तातंत्र के ग्रीनरूम में बैठकर उनके वास्तविक एजेण्डे को उजागर करता दिखाई देता है। 
युवा कवि अनिल पुष्कर की ये कविताएँ गहरे अवसाद लेकिन अंततः प्रतिरोध की कविताएँ जो हमें गहरी-नशीली-मीठी नींद से उठाकर झकझोरना चाहती हैं। एक कवि के रूप में उनकी चाह केवल यह नहीं है कि जनता को उसका वास्तविक हक मिले बल्कि यह भी कि सत्तामद अपने किए का दण्ड भी भोगे। 
                                                                                                  - निरंजन श्रोत्रिय

Friday, 29 November 2019

सुशोभित की कविताएँ

सुशोभित की कविताएँ एक आदिम भित्तिचित्र, एक शास्‍त्रीय कलाकृति और एक असंभव सिंफनी की मिश्रित आकांक्षा हैं. ये असंभव काग़ज़ों पर लिखी जाती होंगी- जैसे बारिश की बूँद पर शब्‍द लिख देने की कामना या बिना तारों वाले तानपूरे से आवाज़ पा लेने की उम्‍मीद. 'जो कुछ है' के भीतर रियाज़ करने की ग़ाफि़ल उम्‍मीदों के मुख़ालिफ़ ये अपने लिए 'जो नहीं हैं' की प्राप्ति को प्रस्‍थान करती हैं. पुरानियत इनका सिंगार है और नव्‍यता अभीष्‍ट. दो विरोधी तत्‍व मिलकर बहुधा रचनात्‍मक आगत का शगुन बनाते हैं. कम लिखने वाले और उस लिखे को भी छुपा ले जाने की आदत वाले सुशोभित सक्‍तावत हिन्दी में लोर्का के पत्रों का पुस्‍तकाकार अनुवाद कर चुके हैं. कविता के अलावा दुनिया के संगीत और सिनेमा में गहरी दिलचस्‍पी रखते हैं.           
                                                                                                                      --गीत चतुर्वेदी

मैं बनूँगा गुलमोहर- पुस्तक समीक्षा

“मैं बनूँगा गुलमोहर” सुशोभित सक्तावत का पहला कविता संग्रह है। “मैं बनूँगा गुलमोहर” प्रेम कविताओं का गुलदस्ता है जो प्रेम, मिलन, प्रतीक्षा, चाहनाओं, कामनाओं और ऐषणाओं के अनगिन फूलों से गुंथ कर बना है। सुशोभित ऐसे शब्द-शिल्पी हैं जिनकी कविताओं तथा वृतांतों में अतिरिक्त शब्द नहीं मिलेगा। जहाँ जो होना चाहिए वह वहाँ ही मिलेगा। उनके बिम्बों में ताजगी है। उनकी कविताओं में हर बिम्ब नया है।
लाल रंग प्रेम का रंग है इसलिए लाल रंग उत्सव का भी प्रतीक है। प्रेम के बिना उत्सव कहाँ? लालसा, कामना का भी रंग लाल है। लाल रंग अन्य रंगों से मिलकर कई रंगों की उत्पत्ति करता है। जीवन ऊर्जा से संचालित है। ऊर्जा का रंग भी लाल है। रक्त का रंग भी लाल इसलिए लाल को रक्त रंग भी कहते हैं। लाल रंग में जब पीला मिलाते हैं तो नारंगी लाल बनता है जिसे केसरिया भी कहते हैं जो सूर्योदय का रंग भी है। सूर्योदय की पहली किरण जब धरती को स्पर्श करती है तो उसकी उष्मा से हर जीव आलस्य त्याग नई ऊर्जा नयी उमंग से भर जाता है। नई उत्पत्ति होती है। इस प्रकार जीवन अपनी धुरी पर चलता रहता है।
गुलमोहर के फूल का रंग भी नारंगी लाल है। लोग इसे लाल फूलों वाला पेड़ तथा स्वर्ग के फूल भी कहते हैं। इसमें औषधीय गुण अत्यधिक होते हैं। इसके मकरंद से शहद बनता है। इसमें पत्तियाँ नाममात्र की ही होती हैं। किन्तु यह अपने रक्तिम फूलों से लदा इतना सुंदर दिखता है कि लोग इसे अपने आंगन में लगाना पसंद करते हैं इसलिए कवि कहता है “मैं बनूँगा गुलमोहर”।
आज की अखबारी भाषा में कहें तो सुशोभित फेसबुक सेनसेशन हैं! यह अतिशयोक्ति भी नहीं होंगी। उनके फेसबुक पोस्टों का गुलमोहर के फूलों से तुलना की जाये तो कहा जायेगा पाठक उसके मकरंद से शहद बनाने की कोशिश करते हैं। सुशोभित विद्यावसनी कवि लेखक हैं। उनके अध्ययन का विस्तार इतना है कि अपने शब्दों से नित्य नये वितान रचते हैं। वे यूँ ही संवेगो से आवेशित होकर नहीं लिख देते। सुविचारित तरीके से अपनी बातों को रखते हैं।
संग्रह की पहली कविता “प्रेम पत्र” में इसकी बानगी देखिये

 कांस की सुबहें
और सरपत की साँझे
तुम्हारे पूरब-पच्छिम थे

जब गूँथती थी चोटी तो
हुलसते थे चंद्रमा के फूल

और काँच की चिलक जैसी
मुस्कुराहट तुम्हारी लाँघ जाती थी देहरियाँ
जबकि अहाते में ऊँघता रहता था
दुपहरी का पत्थर

कि मैं जो न होता तुम्हारे बरअक्स
और तुम में तो ढह जाती नमक की मीनारें
और पाला सा पड़ जाता रेशम और रोशनियों पर
और सेब की ओट हो जाती पृथ्वी

कवि ऐसा शब्द चितेरा है जिसके चित्रों में प्रेयसी और प्रणय के शब्द चित्रों को आप पढ़ते नहीं बल्कि देखते हैं। संग्रह में कवि ने प्रेम, विरह, लालसाओं, कामनाओं के कई चित्र उकेरे  हैं। कवि अपने प्रेम की उद्घोषणा करता है।

और, मैंने भी तो लिख डाले हैं
प्यार के इतने अनगिन तराने
और साथ ही कहता है…

//अच्छा सुनो
यदि प्रेम हो
तो संकोच न करना
कह देना निशंक: मैं प्रेम में हूँ!

होना यूँ तो मुकम्मल है पर नाकाफी
मुकम्मल काफी हो
ये जरुरी तो नहीं!

मत रखना दुविधा
कह देना कि प्यार है
मुझसे न कह सको तो
कह देना किसी दरख़्त से
या मुझी को मान लेना
चिनार का एक पेड़!

जब प्रेम में होओगी तुम और
कहना चाहोगी अपना होना
मैं बनूँगा गुलमोहर 

प्रेम में होना मतलब हर वक्त प्रतीक्षा में होना। प्रेयस या प्रेयसी को अपनी कल्पना की आँखो से देखना, महसूसना। प्रतीक्षा की उन घड़ियों में कई बार यूँ ही उसका नाम उच्चारना, पुकारना।

एक सफेद गुलाब स्वप्न देखता है।
स्वप्न में सिहरता है
हरी सुइयों का एक समुद्र।

जबकि तुम ओस भीगी
अपनी त्वचा के तट पर
रहती हो प्रतीक्षारत।

तुम्हारी प्रतीक्षा के समुद्र तट पर खड़े होकर
वक्त को उम्र बनते देखा मैंने
उम्र को याददाशत। 

बहुत सारी ऐन्द्रिय कविताएँ हैं किन्तु कवि रीतिकालिन कवियों की तरह प्रियतमा का नख शिख वर्णन नहीं करता बल्कि यहाँ भाव पक्ष मुखर है।

मेरी भाषा-सी अधूरी मत रहो
तुम्हारा समर्पण जितना सम्पूर्ण एक वाक्य
लिखना है मुझे अपनी अंगुलियों से
तुम्हारी पीठ पर अपनी नदी से कहो
बदले करवट

शताब्दी का पहला शुक्र तारा जोहता है बाट
बनो ज्वार ओ लहर जिस पर
रिझे चंद्रमा तिरे हंस

कितने पुरुषों ने अपनी प्रियतमाओं का मन समझा होगा?
यहाँ कवि समझता है तभी तो अपनी प्रेयसी के लिए लिखता है..

मैं हैरान हूँ,
तुम्हारे मन का गुड़
अब तक किसी ने
चखा नहीं

सुशोभित कई बार चौंका देते हैं। विस्मय से भर देते हैं। कवि और वृतांतकार के रुप में बेबाक हैं। कवि को बॉलिवुड अभिनेत्री दीप्ति नवल का सौन्दर्य मोहता है। वह इस आर्कषण को कविता में पिरो देता है। संग्रह की नौ कविताएँ सिर्फ दीप्ति नवल को संबोधित हैं या कहे समर्पित है। यह ईमानदारी किस कवि में आपको देखने को मिलेगी?
खिलाडियों और फिल्मी सितारों पर फिदा हो जाना नई बात नहीं है। जहाँ लड़कियाँ देवानंद, शम्मी कपूर, धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, हृतिक रौशन की दीवानी होती रही हैं तो अभिनेत्रियों पर मर मिटने की लंबी फेहरिस्त है। सोशल मीडिया ने उनके फैन को प्रेम जताने और करीब आने के कई रास्ते दिखाये हैं। किन्तु इस फेहरिस्त में मधुबाला का सौन्दर्य अद्वितीय था। आज भी उनके अभिनय और सौन्दर्य से लोग बंध जाते हैं। आज भी “जब प्यार किया तो डरना क्या“ टीवी पर आता है तो सब काम छोड़ मंत्रमुग्ध होकर देखने लगते हैं। लाखों लोगों को उनसे प्यार हुआ होगा। उनके सौन्दर्य और अभिनय पर कितने ही पेज रंगे गये होंगे किन्तु किसी ने इतनी बेबाकी से कविताएँ भी लिखी होंगी क्या? नि:संदेह इस लिहाज से दीप्ति नवल भाग्यशाली रहीं।

वह दीप्ति है।

तानपूरे के शीशम वन में बैठी बदन चुराए
गाएगी मालकौंस।

सूने कमरे की दीवार पर
उसकी मुस्कुराहट की खिड़की
वैनगॉग के सूरजमुखी में पीली चाँदनी भरेगी।

देह में लहर की लय लिए
वह चहकेगी, इठलायेगी।
'काली घोड़ी' पर गोरे सैंया संग
जब निकलेगी तो क्या चकित नहीं तकेगी
'सगरी नगरी'।

दीप्ति समानांतर फिल्मों की सफल अभिनेत्री तो रही ही हैं। वह फोटोग्राफी और कविता लिखने का भी शौक पालती हैं। यात्राएँ उनके प्रोफेशन का हिस्सा रही हैं। दीप्ति से संबंधित आठवीं गद्य कविता में ये बातें कवि भी कहता है।

अच्छा सुनो,
मैं ये तो नहीं कहने वाला कि इंतेहा फिदा हूँ तुम्हारी नायाब खूबसूरती, हुस्नो-नज़ाकत पर
या तुम्हारा लड़कपन भी दिलफ़रेब है।

फारुख शेख के साथ दीप्ति नवल की रोंमाटिक जोड़ी  सबसे अधिक सफल रही है। साथ-साथ फिल्म में जगजीत सिंह और चित्रा सिंह द्वारा गायी गयी गज़लें जो इन जोड़ियों पर फिल्मायी गयी हैं ‘तुमको देखा तो ये ख्याल आया’, ‘ये तेरा घर ये मेरा घर’, ‘प्यार मुझे जो किया तुमने तो क्या पाओगी’, ‘ये बता दे मुझे ज़िन्दगी’ और ‘यूँ ज़िन्दगी की राह में, सुपर हिट रही हैं। फारुख शेख जैसा लड़का हो, दीप्ति नवल–सी लड़की कविता उसी जोड़ी का स्मरण कराती है।
किताब में गुलाब इस संग्रह की सबसे प्यारी कविता है।

हाथ
गुलाब भी हो सकते हैं।

हथेलियाँ
किताब भी हो सकती हैं।

तुम मेरे हाथों को
अपनी हथेलियों में
छुपा लो।

करीब सत्ताइस रेखाचित्र हैं जिन्हें बार-बार पढ़ने को मन करता है। “प्रणय पुरुष का एकालाप है।“ स्वांग है उसका धनुष! जैसी कई रेखाचित्र हैं जो आपके मर्म को छूते हैं।
इन रेखाचित्रों में जो याद रह जाता है उसमें एक है- गोत्रनाम तो भूल गया, किन्तु नाम था गायत्री तथा वह लड़की : जिसने कहा था मुस्कराकर दिखाओ ना!--------
संग्रह पठनीय और संग्रहणीय भी है।
                                                                                                         - महिमाश्री

कविता संग्रह- मैं बनूँगा गुलमोहर (प्रेम कविताएँ व गद्य गीत)
 कवि- सुशोभित सक्तावत
 लोकोदय प्रकाशन
 मूल्य- 150