Tuesday 3 December 2019

पुस्तक समीक्षा- हवा को जाने नहीं देगी।

गणेश गनी द्वारा लिखित साहित्य सम्वाद बारह कवयित्रियों की कविताओं पर केंद्रित है। पुस्तक 'हवा को जाने नहीं देगी' साहित्य की हर विधा का आनंद और रसास्वादन कराती है। बारह रचनाकारों की कविताओं से गुजरते हुए गणेश गनी संस्मरण, यात्रा वृतांत, लोक कथा जैसी तमाम विधाओं से तो गुजरते ही हैं साथ ही किस्सागोई की प्राचीन शैली को नए रूप में पाठकों के सामने ले आते हैं। आलोचना की पुस्तक होते हुए भी यह एक अनूठी पुस्तक है। गद्य और पद्य की नवीनता से पाठक रूबरू रू-ब-रू होता है। गणेश इसे साहित्य संवाद कहते हैं। किताब में साहित्य संवाद से पहले वह स्वयं की एक कविता, हवा को जाने नहीं देगी, देते हैं-
आज वह आई है ठान कर
कि अपनी सीटी की आवाज से 
बुलाने पर पल में 
दौड़ी चली आने वाली हवा को 
जाने ही नहीं देगी।

प्रस्तुत पुस्तक में सबसे पहले ममता कालिया हैं जिनका नाम पाठक वर्ग के लिए अपरिचित नहीं है। ऐसे ही हर आज का कल होता रहा शीर्षक में गणेश बर्फ और पहाड़ से संवाद करते हुए ममता कालिया की कविताओं को पढ़ते हैं। संवाद के माध्यम से उनका आलोचक रूप भी पाठक के सामने आता है। वह कहते हैं ’ममता कालिया की तमाम कविताएँ जीवन से जुड़ी हैं। संबंधों और रिश्तों को अपनी कविताओं में जिस साफगोई से ममता कालिया ने उकेरा है, वैसा कोई कोई ही कर पाता है। सीधी-सीधी बात करना और बेबाक तथा निडर होकर जीवन की हकीकत बयान करना कवयित्री को अच्छे से आता है। स्थानीय तथा आम बोलचाल के शब्दों का बखूबी प्रयोग किया गया है।’ इस तरह की आलोचनात्मक टिप्पणियाँ पूरी पुस्तक में दिखाई देती हैं। ममता कालिया की कविताओं को गनी ने बड़ी बारीकी से पकड़ा है। गणेश के यह शब्द ममता कालिया के साथ स्वयं गणेश पर भी लागू होते हैं। एक मुक्तक में पूरा दर्शन समेटकर ममता ने साबित कर दिया है कि बड़ी बात कहने के लिए लंबी चौड़ी तहरीर की जरूरत कतई नहीं होती है। जितना यह कथन ममता कालिया पर लागू होता है उतना ही गणेश पर भी लागू होता है। छोटे-छोटे आलोचनात्मक कथ्य मुक्तक की तरह आलोचना के दर्शन को समेटे हुए हैं। अपने आलोचनात्मक तथ्य को स्पष्ट करने के लिए गणेश मनोवैज्ञानिक वेंकट मैस्लो, अमृता प्रीतम, मणि मोहन का अनुवाद भी प्रस्तुत करते हैं जो उनके व्यापक अध्ययन का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। ममता कालिया ने प्रेम और औरत को स्त्री के नजरिया से लिखा ही नहीं है बल्कि उसे रचा भी है। ममता जी की हर कविता हर औरत की कविता है और यह भी बड़ा सच है कि बच्चे अक्सर पैरों में बेड़ी बांध देते हैं जिससे कि स्त्रियाँ स्वतंत्रता की उड़ान नहीं भर पाती हैं-
तीन बीस पर छूटती थी रेल दिल्ली जाने वाली 
वह रोज सोचती 
उतारेगी वह अलमारी के ऊपर से अटैची
भरेगी उसमें अपनी दो चार साड़ियाँ सलवार सूट 
पर्स में रखेगी अपनी चेक बुक संदूकची में 
छुपाए हुए रुपए भी 
निकल पड़ेगी वह नई राह पर 
प्रवाह पर 
तीन तीस पर बच्चे लौटते थे स्कूल से 
यहीं से उसकी पराजय शुरू होती थी
वह तो अपने आप कपड़े भी नहीं बदलते हैं 
खाना निकालकर क्या खाएँगे
ऐसे ही हर आज का कल होता रहा।

गणेश का मानना है की रेखा की कविताओं ने शब्दों को जीवन के अनुभवों से निकाला है। रेखा पर आलोचनात्मक दृष्टि डालते हुए गणेश की एक खूबी मेरे सामने आती है, वह अक्सर एक कवि की रचना से गुजरते हुए दूसरी कविता की विवेचना भी करते चलते हैं ठीक भाव साम्य के आधार पर। बेहतरीन कविता भीतर तक रोशनी देती है इस तरह के सत्य हमें पता हैं पर गणेश उस सत्य को कहते हैं और उसी सत्य से कविता को जोड़ देते हैं। गणेश गनी प्रकृति को बड़े अपनेपन से ग्रहण करते हैं। अपनी रचनात्मकता में उन्होंने पहाड़ों की पूरी जिंदगी और उसे जीने की शैली को इस पुस्तक में पूरी तरह से डाल दिया है और फिर उसी से कविता के रस को गुनगुना दिया है। पहाड़ पर धूप के टुकड़े आदि प्राकृतिक बिंब रचनाकार की कविताओं की प्रकृति से ऐसे  मिल गए हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। यहाँ अपनेपन की तलाश की बड़ी अनूठी व्यंजना है और लेखन की प्रकृति भी अलग है। तभी तो रेखा जी भी कहती हैं-
चढ़ता है चाव
फिर से ओढूँ अपनी देह
देखूँ
क्या वह मुझे आज भी पहन पाएगी।

प्रकृति के और भी रंग हैं जो समालोचना के दौरान आए हैं पर एक रंग जिसे इंसान ने अपने लाभ और स्वार्थ के लिए खड़ा किया है वह बहुत ही पीड़ादायक है। प्रकृति के ऐसे रूप की चिंता सिर्फ रचनाकारों को ही नहीं बल्कि आलोचक गणेश को भी है।
सुदर्शन की कविताओं में सिर्फ नारेबाजी नहीं बल्कि प्रयास है, प्रेरणा और विचार बदलने की ताकत भी है। गणेश इन कवयित्रियों की रचनाओं में बिंब, प्रतीक, भाषा और शैली पर विचार करते हैं। गनी रचनाकार की सृजन प्रक्रिया को प्रकृति के माध्यम से बताते  हैं-
तुम चाहो तो इसे 
कमरे के कोने में 
गमले में उगा सकते हो 
दोस्तों को दिखा सकते हो 
अपनी उपलब्धियों की तरह 
आदेश दे सकते हो जड़ों को 
कहाँ तक फैलना है इन्हें 
कह सकते हो टहनियों से कि
कहाँ खत्म होना जरूरी है 
उनकी उत्कंठा 
पेड़ की छाया तले बैठा मानव 
हो सकता है बोधिसत्व 
मानव की छाया तले उगा वह बौना सा पेड़ 
एक दुर्घटना है बस।

कवयित्री सुदर्शन शर्मा की कविता में व्यंग्य की धार दिखाई देती है पर यह आक्रामक नहीं बल्कि सहज है।-
तुमने कहा भूख 
उन्होंने कहा 
क्षुध धातु से बना है 
जिसका अर्थ है भूख 
तुम थाम कर रखो भूख को 
हम क्षुधा की निगरानी करेंगे।

सुदर्शन शर्मा की कविताओं में राजनीति, आस्था, ईश्वर, मनुष्य सभी रचनाकार की अलग दृष्टि का परिचायक है- 
अपने दुखों को वहीं ढेर कर
क्यों नहीं ईश्वर के घर का द्वार बंद कर दिया जाए 
हो सकता है भूखा प्यासा ईश्वर 
एक दिन तार भेजे मनुष्य को
 कि आओ दुखों का हिसाब किताब करते हैं।
गणेश इन कवयित्रियों की रचनाओं में उपमान, बिंब, प्रतीक, भाषा, शैली सब पर विचार करते हैं। रचनाकार की प्रक्रिया को प्रकृति के माध्यम से बताते और महसूस करते हैं। सीधी उपस्थित तभी तो बताते हैं। पुस्तक में लोक कथाओं का रसास्वादन अपने आप बड़ा मधुर बन पड़ा है। गणेश लोक कथाओं का वर्णन करते हुए कथा प्रवाह को आगे बढ़ाने के लिए कविताओं को बीच-बीच में टांक देते हैं। पढ़ने पर बाद में ध्यान आता है कि यह कविता तो कवि की है पर लोककथा में फिट बैठ जाती है, जो अपना अलग संदर्भ खोलती है। कहीं-कहीं संवाद के साथ अचानक कविता के उदाहरण आ गए हैं जो संवाद से मुखातिब नहीं है परन्तु ऐसा कुछ ही स्थल पर हुआ है। उदाहरणार्थ चित्रकार की कहानी और संध्या जी की कविता को हम देख सकते हैं। इसी तरह से चंद्र और भागा की कहानी में अचानक सुमन शर्मा की कविताएँ आ जाती हैं। परन्तु साहित्य संवाद एक अलग विधा के रूप में हम देख सकते हैं इसलिए इन कमियों को नजरअंदाज करना ही पड़ेगा। उसमें लोक की कहावतें और कथाएँ बड़े अनोखे ढंग से गूंथी हैं। हर संवाद के  अर्थ हैं पर मेरे मन में यह प्रश्न आता है कि अगर पाठक संवाद की पगडंडियों पर न चलना चाहे तब? वह कविता और उसके अंदर से संवाद को न जुड़ना चाहे तब? इसका जवाब गणेश एक जगह देते हुए कहते हैं ’लोक कथाओं में सच्चाई होती है बाकी आपकी मर्जी’। कहीं-कहीं संवाद बेहद प्रिय हैं। प्रियंका की कविताओं से गुजरते हुए गणेश गनी कहानी में रिश्तों की बुनावट बताते हैं फिर रिश्ते की उसी डोर से प्रियंका जी की कविता बांध देते हैं। एक छोर से दूसरे छोर तक जाने के लिए रिश्ता माध्यम बन जाता है और कविता की संवेदना को काव्य कसौटी के मानदंडों की आवश्यकता नहीं रह जाती है। प्रियंका की कविताओं पर लिखते हुए गणेश स्त्री विमर्श की कुछ छिपी परतों को सहज शब्दों के सहयोग से व्यंग्य में खोलते हैं। वह कहते हैं ’शब्दों की जादूगरी के खेल में छली गई स्त्री हमेशा। वे लोग विमर्श में उलझे रहे और मूल प्रश्न उन पर हँसता रहा।’ यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि स्त्री विमर्श का यही आईना है। 
भावना मिश्रा बड़े ठोस शब्दों में स्त्री विमर्श की सच्चाई को सामने लाती हैं जिसे गणेश अपनी आलोचना में रेखांकित करते हुए कहते हैं-
आज तुम हर मंच पर चढ़कर
 चीख रहे हो मेरी स्वतंत्रता के हक में 
और तुम्हारी इस चीख के पृष्ठ में
 मैं सुन रही हूँ एक और अनुबंध की अनुगूंज
 कि मुझे आजीवन रहना होगा
 शतरंज का एक  मोहरा।

कहीं-कहीं कविता का चयन गणेश गनी आश्चर्यजनक रूप में करते हैं। संवेदना की दृष्टि से बड़ी सूक्ष्म पकड़ उनकी योग्यता का परिचायक है। सोनाली जी की एक कविता का उदाहरण देखिए-
स्त्री के नैनों में ताकता हुआ पुरुष 
प्रकृति की निश्छलता देख रहा था
 प्रेम में स्त्री प्रकृति हो जाती है 
निश्चल प्राकृतिक और स्वयं में पूर्ण।

इस कविता को रेखांकित करते हुए गणेश कहते हैं कि पुरुष महिलाओं को न केवल पर्सनल प्रॉपर्टी ही समझते हैं बल्कि उनके बोलने पर भी अपना अधिकार चाहते हैं। वह क्या बोले, कब बोले, कहाँ बोले, यह सब पुरुष चाहता है। यह दीवार, यह अतिवाद जीवन में ही नहीं साहित्य के क्षेत्र में भी फैला हुआ है। गणेश का आलोचनात्मक दृष्टिकोण और विचारों की पारदर्शिता इन स्थलों पर दिखाई देती है। किताब काव्यात्मक रसास्वादन के साथ आलोचनात्मक आनंद भी देती है। यह पुस्तक पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी है।
                                               - डॉ शुभा श्रीवास्तव

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