लोकोदय नवलेखन से सम्मानित कविता संग्रह 'राजधानी' के सम्बंध में युवा कविता और युवा द्वादश के लिए कवियों का चयन करने वाले आलोचक निरंजन श्रोत्रिय कहते हैं -
युवा कवि अनिल पुष्कर की ये बावन कविताएँ निरंकुश सत्ता के आततायी चेहरे और दुरभिसंधियों को बहुत बेबाकी से बेनकाब करती हैं। क्रूर, शोषक सत्ता द्वारा उत्पन्न भय, खौफ़, उत्पीड़न और अनाचार के खिलाफ इस कवि के भीतर एक जरूरी और जेनुइन गुस्सा एवं नफरत है। वह इन सबके खिलाफ़ अपनी कविता में उबल पड़ता है और अपनी कविता को संघर्ष का हथियार बनाता है।
कवि को अपने समकाल, समाज और राजनीति की गहरी समझ है। यही कारण है कि वे शब्दों और परिभाषाओं के पीछे छुपे उस सत्य को उजागर करते हैं जिसका मोहक व्याकरण सत्ताधीश रचते हैं। धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर फैलाए जाने वाले झूठ और पाखण्ड दरअसल सत्तापक्ष की चालाक युक्तियाँ हैं जिन्हें अनिल अपनी कविताओं में न सिर्फ बेनकाब करते हैं बल्कि जनता को इन खतरों के प्रति आगाह भी करते हैं।
अनिल अपनी कविताओं में झूठे आशावाद से परहेज ही नहीं करते बल्कि इस अफीमी नींद में एक दुःस्वप्न की तरह दाखिल होते हैं ताकि यह लम्बी नींद जल्द टूटे। यह एक उत्तरदायी कवि-कर्म है। एक तय प्रतिबद्धता और राजनीतिक सजगता से कवि अपनी अंतर्दृष्टि को चेतना सम्पन्न बनाता है।
अनिल की ये कविताएँ एक सजग इतिहासबोध का पता भी देती हैं। वे उस फ़र्क को बयाँ करते हैं जब सत्ता के खेल को इतिहास और जनता के इतिहास को खेल करार दिया जाता है। सत्ता की निरंकुश क्रूरता और जनता की विवश तालियों का यह द्वन्द्व इस युवा कवि को एक नया तेवर प्रदान करता है जहाँ गुस्सा है, कटाक्ष है, वक्रोक्ति और व्यंग्य है। चाहे वो ‘राजधानी’ शृंखला की कविताएँ हों या ‘ओ लोकप्रिय देश’ जैसी लम्बी कविता, यह युवा कवि मानो सत्तातंत्र के ग्रीनरूम में बैठकर उनके वास्तविक एजेण्डे को उजागर करता दिखाई देता है।
युवा कवि अनिल पुष्कर की ये कविताएँ गहरे अवसाद लेकिन अंततः प्रतिरोध की कविताएँ जो हमें गहरी-नशीली-मीठी नींद से उठाकर झकझोरना चाहती हैं। एक कवि के रूप में उनकी चाह केवल यह नहीं है कि जनता को उसका वास्तविक हक मिले बल्कि यह भी कि सत्तामद अपने किए का दण्ड भी भोगे।
- निरंजन श्रोत्रिय
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