Sunday 1 March 2020

शिक्षा के सवाल

कुछ समय पहले आदरणीय महेश पुनेठा सर जो कि स्वयं सरकारी विद्यालय में अध्यापक हैं, की पुस्तक 'शिक्षा के सवाल' पढ़ी। मैं समीक्षक नहीं बल्कि छात्र हूँ। कम शब्दों में इस किताब पर अपने विचार देना चाहूंगा।
इस किताब के माध्यम से वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की छोटी से छोटी कमियों  को उजागर किया गया है। सुधार हेतु मजबूत सुझावों के साथ ही अपने द्वारा व विभिन्न जगहों में  परिचित अध्यापको के द्वारा प्रत्यक्ष प्रयोग में लायी गयी बातों व  उनके प्रभावों का भी विवरण दिया गया है।
यह किताब केवल सवाल ही नही करती वरन  शिक्षा से सम्बंधित सभी पहलुओं पर सुस्त अध्यापको को,नीति निर्माताओं को जिन्होंने विश्वबैंक,मुद्रा कोषो आदि को शिक्षा में हस्तक्षेप की छूट दी हुई है जिन्होंने शिक्षा को बिकाऊ बनाया है,चयन कर्ताओं को जो पांच -पास,आठ- पास लोगो को अध्यापक बनाते है, पढ़ने के लिए माहौल को लेकर अभिभावकों को,आम नागरिकों की मानसिकता को, यहां तक कि समाज को भी छात्रों के जीवन के लिए  कटघरे में खड़ा किया है। परिवार से आरम्भ होने वाली शिक्षा प्रक्रिया को आड़े हाथों लिया है।गरीबो के लिए शासन से सवाल है,अंग्रेजी के प्रभाव पर सवाल है। शिक्षा के नाम पर खुली दरिद्र दुकानों का भंडाफोड़ किया है।अच्छी बात ये है कि साथ मे  उत्तम व्यवस्था के निर्माण का मार्ग भी बताया है। अर्थमानव बनाने वाली सोच पर प्रहार किया गया है। शिक्षा पर बाजार के प्रभाव को अंकित किया है वैज्ञानिक सोच के बल पर स्वमूल्यांकन करने की बात की है।
संछेप में कहू तो शिक्षा के हर पहलू को उजागर किया है.अंतिम सत्य को नकारने की,स्वेच्छिक परीक्षा कराने, अध्यापको को बाल-मन को समझने की,अधिक से अधिक संवाद कराने की,शिक्षा निर्धारकों द्वारा बच्चों की हर समस्या के निदान के लिए प्रयास करने,अध्यापको को बच्चों के साथ प्रेमपूर्वक रहने,कल्पनाशील-संवेदनशील होने,सीखने सिखाने के तरीके ढूढ़ने, अनुभव या फिर डायरी लिखने,अपडेट रहने,निरन्तर अध्ययन करते रहने,यात्राएं करने की बात की है। अध्यापको द्वारा ये सब करने से बच्चें पर प्रत्यक्ष व सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
 बच्चों में भागीदारी बढ़ाने व राजनीतिक प्रक्रिया को आसानी से समझाने के लिए 'बाल-सरकार' बनाने या फिर 'विद्यालय प्रतिनिधि सभा' बनाने की पूरी प्रक्रिया विधिवत दी हुई है। वो भी प्रयोग करने के बाद।
बीच मे चंद्रकांत देवताले की कविता का उल्लेख किया है-
वे पृथिवी के बाशिन्दे है करोड़ो/
और उनके पास आवाजो का महासागर है/
जो गुब्बारे की तरह/
फोड़ सकता है किसी भी वक्त/
अंधेरे के सबसे बड़े बोगदे को।
गरीब बच्चों की पीड़ा को ले आये है।
अँग्रेजी की चल रही होड़ का पर्दाफाश किया है। यूo पीoएसoसीo के लिए बनाई गयी नीतियों के लिए सरकार से प्रश्न किया है।
बच्चों की जिज्ञासा सांत करने के लिए  कार्यशाला को उपयोगी बताया है।साथ ही अपने व सहयोगी अध्यापको द्वारा चलाये गए 'दीवार पत्रिका' अभियान जो बच्चों के सीखने का,समझ बढ़ाने का,सोचने का,अपने को प्रदर्शित करने का,खुलने का, सबसे अच्छा माध्यम है इसके विषयो,प्ररूपो,बनाने की विधियों आदि का उल्लेख सरलता से किया गया है।इस के प्रभाव भी अंकित किये गए है।
वर्तमान में लागू की जा रही 'वाउचर' प्रणाली पर गहराई से प्रकाश डाला है।उसके प्रभावों को भापा है। प्रतिस्पर्धाओ को खत्म करने,अंधविश्वास पर खुल कर बात करने की बात की है। भय का पंचांग खोल दिया है भय की तुलना 'लू' से की है।अध्यापको से भय को समाप्त करने की बात की है। 'यात्रा'को सीखने का उपयुक्त माध्यम बताया है 'किताबे हमे ज्ञान की उस गहराई तक नही पहुँचाती जहां तक यात्राएं पहुँचाती है।' अस्कोट-आराकोट यात्रा का उल्लेख प्रेरणादायी है आस-पास भृमण से चीजो को  समझने का समर्थन किया है। मीना डायरी से अनेक अनुभवों को पाठको के सामने लाने का प्रयास किया गयाहै प्रारम्भ में 'सर्जनसीलता' पर विस्तार से प्रकाश डाला है।नया सोचने और नया करने की बात की है। अध्यापको की परेशानियों की जड़ पकड़कर इसके निदान हेतु अध्यापन के अतिरिक्त अन्य कार्यो से उन्हें मुक्त रखने की पैरवी की है। विद्यालय में पुस्तकालय न होने पर कम से कम किताबों का एक कोना जरूर बनाने की सिफारिश की है। सम्पूर्ण दुनिया को स्कूल बताया है। सरकारी विद्यालयों को वास्तविक अर्थो में विद्या का घर माना है । सरकारी विद्यालयों को सुविधाएं देने,अध्यापको की बात सुनने के लिए सरकार को जगाने का प्रबल प्रयास किया है। जो कुछ भी अनजान छात्रों को स्कूली जीवन में चहाईये होता है उन सब को इस किताब में रेखांकित किया गया है यह किताब शिक्षा  व्यवस्था में सुधार व सकारात्मक परिवर्तन की परिचायक है।
                     - दिनेश जोशी।

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