Sunday 1 March 2020

इतिहास की धारा में तिनकों की बिसात क्या!

सुशोभित का नया कविता संग्रह 'मैं बनूँगा गुलमोहर' प्रकाशित हुआ है।सुशोभित 'सोशल मीडिया पर एक लोकप्रिय कवि' हैं।उनकी लोकप्रियता के मापदण्ड क्या हैं, ये अलग की बात है।मैं इस पर बात करने के बजाय इस कविता संग्रह पर बात करना ज्यादा पसन्द करूँगा।यह संग्रह दो खण्डों में विभाजित है।पहला खण्ड है : चित्रलिपि और दूसरा खण्ड है : रेखाचित्र।यह संग्रह पूरा का पूरा प्रेम कविताओं का संग्रह है।क़िताब पढ़ने के बाद मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि सुशोभित में कवित्व क्षमता है और कुछ बड़ा रच सकने की सम्भावनाएं भी उनमें मौजूद हैं लेकिन जाने क्यों यह कविता संग्रह अन्ततः निराश ही करता है।सुशोभित की काव्यभाषा उम्दा होने के बावजूद एकहरी है।लगभग सारी कविताओं में उन्होंने इसी एकहरी भाषा और शिल्प का प्रयोग किया है जो अन्ततः उबाऊ लगती है।संग्रह की लगभग सभी कविताओं में बिम्ब भी एक जैसे ही हैं।कई बार तो इतने एक जैसे कि लगता ही नहीं कि हम एक कविता के बाद दूसरी कविता पढ़ रहे हैं।यह स्वीकार करते हुए भी कि सुशोभित में कल्पना,वाक्य-विन्यास,बिम्ब,रूपक और प्रेम कविता के अनुरूप व्यापक संवेदनाओं का खजाना है, यह बहुत अफ़सोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि उनमें वैसा ही विस्तार और कथ्य की गहराई और ऊँचाई नहीं है।यदि और साफ कहा जाए तो यह कहना चाहिए कि सुशोभित में कविता हल्की फुल्की और क्षणिक रूप में ही उपलब्ध है।उनमें दृष्टि की व्यापकता,यथार्थ की मजबूत पकड़ और लम्बे समय तक टिकने वाली कविता का गहरा अभाव है।हालाँकि संग्रह की शुरुआती कविताएँ बेहद आकर्षक,जरूरी,सुन्दर बिम्बों व गहन संवेदना के ताप में तपी हुई-सी हैं लेकिन बाद की कविताओं में सुशोभित का कवित्व इस तरह से विखण्डित हुआ है कि कई बार तो कविता पढ़कर ऐसा लगता है कि हमने अपना कीमती समय एक बेहद ही कमजोर कवि पर खर्च कर दिया है जो शायद पढ़े जाने के लायक भी नहीं।आइए पहले शुरुआती व कुछ अच्छी कविताओं पर बात कर लें ताकि बाद में जब हल्की कविताओं पर बात हो,आप समझ सकें कि यह बात बेबुनियाद नहीं है।तब शायद आप साफ-साफ अच्छी कविताओं और हल्की कविताओं का अन्तर भी समझ सकें और यह स्वीकार भी कर पाएँ कि सुशोभित किस तरह अपनी ही काव्यभाषा व बिम्बों के जाल में फँसकर बुरी तरह विखण्डित हुए हैं।कई बार तो कविता के बजाय अनर्गल प्रलाप करने लगे हैं और कई बार इतनी निजी बातों और बिम्बों में उलझे हैं कि कविता सिर्फ अपने लिए लिख बैठे हैं जिसको आप चाहे 'कविता' कह भी लें, मैं तो उन्हें 'कविता' मानने से ही साफ इनकार करता हूँ।
इस संग्रह की पहली ही कविता है : प्रेमपत्र।यह कविता बहुत ही सुंदर बन पड़ी है।आइए कुछ प्रमाण देखें।इस कविता में कवि अपनी प्रेमिका से कहते हैं कि तुमको प्यार करने का मेरे पास कोई कारण नहीं है क्योंकि वस्तुतः प्रेम का कोई कारण ही नहीं होता।इसमें पंक्ति आती है: 'कोई 'इसलिए' नहीं था/केवल एक स्वपन था/किन्तु स्वपन का कोई कारण तो नहीं होता/केवल एक विकलता थी/जिसकी कोई वर्णमाला तक नहीं।'
बहुत ही उम्दा भाषा और बिम्बों के प्रयोग ने इस कविता का स्वरूप बेहद ही आकर्षक बना दिया है और संग्रह की यह पहली ही कविता हमारा मन मोह लेती है।दूसरी कविता 'रंगरसिया' भी एक हद तक अच्छी कविता है।इसमें रंगों,फूलों और प्रकृति के अन्य बिम्बों के सहारे बहुत ही शानदार समानताएं प्रदर्शित की गई हैं और कविता अपने कथन के हिसाब से और बुनावट के हिसाब से भी ठीक बन पड़ी है।प्रमाण देखिए: 'मैंने कहा, सुनो तुम्हारे लिए/एक बैंजनी चुनर ली है/अंगुल भर चौड़ी रेख वाली लहरिया।/जरा देखो तो ओढ़कर।/उसने कहा, बैंजनी झाई से/देह ताम्बई पड़ जाए मेरी/तो फिर मत कहना।'
कवि ने यहाँ बैंजनी रंग का जो प्रभाव देह के ताम्बई पड़ जाने में दिखाई है,वह एक खूबसूरत और नया बिम्ब है।इससे कवि की कवित्व क्षमता और बिम्बों के रचाव में नएपन का भी पता चलता है।लेकिन बहुत अफ़सोस के साथ कहूँ तो आगे की कविताओं में सुशोभित या तो ढलते हुए दिखाई देते हैं या फिर स्वयं को बार-बार दुहराते हुए। कुल मिलाकर संग्रह की दूसरी-तीसरी कविता के बाद ही वे ढलने लगते हैं।उनमें एक कमी यह भी है कि वे बहुत सारी कविताएँ तो सन्दर्भवश या किसी ऐतिहासिक या साहित्यिक पात्रों पर लिखते हैं लेकिन कहीं भी उस सन्दर्भ या उस पात्र को स्पष्ट नहीं करते।इस तरह उनकी ऐसी कविताएँ सिर्फ उनके लिए ही रह जाती हैं जो उन साहित्यिक पात्रों को जानते हैं या उन साहित्यिक सन्दर्भों या कृतियों से परिचित हैं।इस तरह सुशोभित अपनी ही कविता का गला घोंट देते हैं और कविता सामान्य पाठकों तक सम्प्रेषित ही नहीं हो पाती।'तुम्हारी प्रतीक्षा के समुद्र तट पर', 'तुम्हारी मुस्कुराहट एक खिड़की थी', 'एग्नेस : तीन स्केच', 'तेरेजा की 'स्टॉकिंग्स' कुछ इसी तरह की कविताएँ हैं जहाँ कवि ने अपना ज्ञान तो बघार लिया है लेकिन पाठकों के ज्ञान और संवेदना का कोई खयाल नहीं रखा है।एक सामान्य पाठक के लिए ऐसी कविताएँ सिर्फ एक अबूझ पहेली होती हैं अथवा न समझ आने वाली चमकीली कविता,जिसमें रूपगत इतनी चमक होती है कि कथ्य का अता पता ही नहीं होता और न इसकी खोज की जरूरत ही महसूस की जाती है तथापि ऐसी कविता अन्ततः एक पहेली बनकर ही रह जाती है जो कि एक अच्छी बात तो हरगिज नहीं है।क्योंकि कविता और कुछ चाहे भले हो,काम की तभी होती है जबकि वह दुरूह या पहेली न बने और अपने कथ्य के हिसाब से साफ-साफ समझ में आए।ऐसी कविताओं के लिए मैं यही कहना चाहूँगा कि इनका दायरा बहुत सीमित है और ऐसी कविताएँ सुशोभित ने 'सुशोभित' के लिए ही लिखीं हैं जो कायदे से एकहरी काव्यभाषा और बिम्बों के दुहराव की शिकार भी हो गई हैं।सुशोभित कई बार भावावेश में अनावश्यक शब्दों व वाक्यों का प्रयोग भी करते हैं जिनकी या तो कोई जरूरत नहीं होती या जो कविता के समाप्त हो जाने के बाद भी सिर्फ कविता की लंबाई बढ़ाने के काम आती हैं और अंततः एक अच्छी कविता के जन्म को भी ख़ारिज कर देतीं हैं।अब जरा इसी बात के लिए प्रमाण देखिए : 'एक सुरंग के भीतर भूमिगत नदी और/जुगनुओं की भिनभिनाती छतरी के ऐन नीचे/अलविदा कहता हूँ तुम्हारी गन्ध तक को/एक पत्थर पर लिखता हूँ विदा।' इन काव्य पँक्तियों में भावावेश साफ दीखता है और यह भी कि कैसे कवि ने भावों में बहकर 'अलविदा' के बाद 'विदा' शब्द का प्रयोग किया है!
इसी कविता के अंत में वे फिर कहते हैं : 'नींद में देखता हूँ बिना तारों वाला एक तानपूरा/और तुम्हारी आँखों की सुरंग में/बन्द होता एक पूरे का पूरा समुद्र/' यो तो कविता यही समाप्त हो जाती है लेकिन कवि का भावावेश नहीं रुकता और वे इसे एक कदम और अनावश्यक लिखते हुए कहते हैं : 'बारिश पर लिखता हूँ विदा।' ध्यान रहे कि यह पूरी की पूरी कविता शब्दों और बिम्बों के मोहक जाल के सिवा और कुछ भी नहीं है।कविता का शीर्षक है : तुम्हारी आँखों की सुरंग में बंद होता हुआ समुद्र।इसी प्रकार की गलती वे और भी कई कविताओं में करते हैं।एक उदाहरण और देखिए: 'तुम्हारी मुस्कुराहट एक खिड़की थी/जिससे मैं देखता था आकाश/और आकाश का अनन्त नील।' यहाँ भी आप साफ देख सकते हैं कि कवि का अपनी भावना पर या तो कोई नियंत्रण नहीं है अथवा कविता पर दुबारा कोई काम नहीं किया गया है।क्योंकि वे लिखते हैं : 'जिससे मैं देखता था आकाश/और आकाश का अनन्त नील।' कवि से पूछा जाना चाहिए कि क्या आकाश और आकाश का अनन्त नील कोई दो अलग-अलग चीजें हैं? कि 'आकाश' अलग दिखाई देता है और आकाश का नीलापन अलग? इससे साफ है कि कवि भाववादी तो है लेकिन इतना भी ज्यादा कि यथार्थ पर उसकी जरा भी निगाह नहीं। सच कहा जाए तो सुशोभित की अच्छी लगती कविताएँ भी अन्ततः शब्दों का मायाजाल है जिससे हासिल कुछ नहीं होता,अर्थात सिर्फ बिम्बों और शब्दों के घटाटोप को कवि ने कविता समझ लिया है और पूरा संग्रह इसी तरह की कविताओं से भरा पड़ा है।प्रेम की ऐंद्रियता,उसका दुःख,उसकी विभिन्न भंगिमाएँ और यथार्थ का ताप कहीं दिखाई नहीं देता।यदि मखमली भाषा में असम्बंद्ध बिम्ब-श्रृंखला के रचाव को सुशोभित कविता समझते हैं तो मैं साफ़ कहना चाहता हूँ कि वे हिंदी कविता के 'स्थायी कवि' कभी नहीं हो सकते,बल्कि अपनी ही भाषा और बिम्बों के इंद्रजाल में फँसकर कविता समय की परिधि पर अचानक उठ आए बुलबुले की भाँति हैं जो सहसा ऊपर उठ आया है लेकिन तनिक देर में ही विलुप्त हो जाएगा,जिसका फिर कोई अता पता नहीं होगा।
अभी तो ये उन कविताओं के बारे में बातें हो रही थीं जो कुछ हद तक स्वस्थ और सुंदर हैं और जिन्हें 'कविता' कहा भी जा सकता है लेकिन अब जरा उन कविताओं पर भी ध्यान दिया जाए,जिनको पता नहीं किस मोह में कवि ने 'कविता' समझ लेने की बड़ी भूल कर दी है।
'लालबत्ती से एक 'ब्लश वाली स्माइल', 'तुम्हारे 'ऑनलाइन' होने का सितारा', 'दिन,महीने,साल!', 'लड़की':एक सुबह', 'एक लड़की चल रही है', 'यह जिंदगी के उन चंद अंदेशों में से एक है', 'सराफा लड़की स्कूल' की छात्राएँ' इत्यादि तो किसी भी दर्जे से कविता ही नहीं हैं।लेकिन ऐसा लगता है कि जैसे सुशोभित ने इन कविताओं को अपने उनदिनों में लिखा है जब वे बेहद बच्चे रहे होंगे अथवा दसवीं में पढ़ते रहे होंगे,क्योंकि अड़तीस की वय का कवि यदि इस तरह की कविताएँ लिखेगा तो साफ कहना होगा कि या तो इन्होंने नया-नया कविता का 'क' सीखा है अथवा ये हिंदी काव्य परम्परा में 'हाशिए की कविताएँ' लिख रहे हैं जिनका कोई मतलब नहीं।हिंदी कविता के इतिहास की धारा में तिनकों की बिसात क्या! जिस हिंदी में कबीर,तुलसी,मीरा,निराला,अज्ञेय,मुक्तिबोध,कुँवर नारायण और केदारनाथ सिंह जैसे एक से एक दिग्गज कवि पैदा हुए हों,उनमें सुशोभित जैसे कवि की क्या बिसात,जो एक पूरे संग्रह में शब्दों के घटाटोप में उलझा रहे और सोशल मीडिया और लड़की की परिधि से बाहर ही न निकल पाए और पूरे 136 पृष्ठों की किताब में कविता इस तरह लिखे जैसे कि किसी सड़क छाप छोकरे ने लड़की पटाने के लिए प्रेमपत्र और शायरी लिखी हो।ऐसी कविताएँ पढ़कर या तो फूट-फूट कर रोना आता है कि हमारा आज का युवा कवि कितना कमजोर और सीमित दायरे का अन्वेषी होकर रह गया है जो फेसबुक,व्हाट्सअप,मैसेंजर और लड़की की देह से बाहर निकल ही नहीं पाता।जबकि यह एक ऐसा समय है जब देश में हाहाकार मचा हुआ है, बेरोजगारी चरम पर है, महँगाई और अपराध दिन पर दिन बढ़ रहे हैं और जीवन में भी कई प्रकार के दुखों ने जगह बना ली है।यह कितने शर्म की बात है कि हमारा युवा कवि लड़कियों की छातियों की गोलाइयों का माप लेने और लड़की के सोशल साइट्स के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है और रोटी और ज़ुल्म जिसकी कविता से एकदम गायब है।मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ 'हिंदी कविता का कचरा' हैं जिनको उठाकर फेंक देना चाहिए।मैं यह नहीं कहता कि आप प्रेम कविता न लिखें और केवल क्रांति की बात लिखकर ही कवि कहलाए।लेकिन जब आप प्रेम कविता भी लिखते हैं तब भी उसमें आपका समय गूंजना चाहिए,प्रेम की ऐंद्रियता और उसका सुख-दुख साफ दिखना चाहिए और ऐसा तभी हो सकता है जब आपकी कविता जमीनी बात करे,केवल हवा महल न बनाए।सुशोभित की प्रेम कविताओं से उसकी जमीन ही गायब है और कुछ है तो सिर्फ फेसबुक,व्हाट्सअप,लड़की और शब्दों का भ्रामक इंद्रजाल।आइए कुछ प्रमाण भी देख लें इसी क़िताब से।
'लंच टाइम से पहले वह अपना
फेसबुक स्टेटस अपडेट कर देती है:

'एक पल देख लूँ तो उठता हूँ/
जल गया सब/जरा-सा रहता है/
जाने क्यूँ दिल भरा-सा रहता है!'

अब इस पंक्ति को आप मंत्र मान लें और अर्थ समझते रहें और जब समझ में आ जाए तो मुझे भी इत्तिला कर दें ताकि मैं भी इस कविता को समझकर धन्य हो पाऊँ।फ़िलहाल मैं आपको और कुछ आगे ले चलता हूँ।आगे देखिए : 'यह भी नहीं कि मैं जानता हूँ तुम्हारी व्हाट्सअप डीपी क्या है।यह भी नहीं कि मैं जानता हूँ तुम रोज  रात 11 बजकर 34 मिनट से 12 बजकर 06 मिनट के दरमियान एक बार जरूर ऑनलाइन आती हो, कोई 40 सेकंड तक वहाँ रहती हो, 'ऑनलाइन' का वह शुक्रतारा मेरे आकाश पर दीपदीपाता है और फिर बुझ जाता है।'
इसी प्रकार,
इसी कविता के अंत में वे कहते हैं: 'तुमने मुझे 'हाय' मैसेज भेजा,मैंने मुस्कुराहट की तितली तुम्हें भेज दी।तुमने कहा, 'अच्छा लग रहा है यहाँ व्हाट्सअप पर तुमसे बात करके,ये हमेशा मैसेंजर से ज्यादा पर्सनल मालूम पड़ता है', और मैंने सिर हिलाकर कह दिया, 'सच है।'
इस कविता का शीर्षक है:तुम्हारे 'ऑनलाइन' होने का सितारा।
आप देखें कि कवि का 'भौतिक यथार्थवाद' कितना गहरा है!
वह बात व्हाट्सअप पर करता है और बताता है सिर हिलाकर कि 'सच है।'
मुझे लगता है कि कवि सुशोभित ने ही जैसे फेसबुक,व्हाट्सअप,मैसेंजर की नई खोज की है जिससे कि सिर्फ इन्हें ही इनके बारे में ज्यादा पता है और वे पाठकों से अपना ज्ञान बाँट रहे हैं।शायद ऐसा भरम उनको अपने ब्लर्ब लेखक प्रो.आनन्द कुमार सिंह की उन पँक्तियों से भी हो गया हो कि जिसमें वे लिखते हैं : 'उन्होंने (सुशोभित ने) फेसबुक जैसे सोशल माध्यम का विस्तार किया है और उसे उसकी त्वचा से बाहर खींचकर ले गए हैं।' इसी प्रकार ब्लर्ब में ही एक जगह वे लिखते हैं कि 'सुशोभित बहुपठित और सुविचारित तरीके से अपनी बात रखते हैं।' जबकि संग्रह को पढ़कर जो पहला सवाल मन में आता है वो यही कि सुशोभित में 'सुविचार' कहाँ है?मैं तो फ़िलहाल पूरी किताब पढ़ गया और कहीं खोजे से भी 'सुविचार' नहीं मिला।
कवि से आखिर में यह भी पूछा जाना चाहिए कि किसी लड़की या प्रेमिका का 'रात11 बजकर 34 मिनट से 12 बजकर 06 मिनट के दरमियान 40 सेकंड के लिए 'ऑनलाइन' आने का हिंदी साहित्य में ऐसा भी क्या महत्व है जो कवि ने इतनी ईमानदारी और 'डिटेल्स' दिखाने की जरूरत समझी है! ऐसा लगता है जैसे सुशोभित कविता के विद्यालय में अभी 'पहली कक्षा के विद्यार्थी' हैं।इस संग्रह के सबसे खराब बातों में से एक बात यह भी है कि सुशोभित लगभग सम्पूर्ण संग्रह में 'शुद्ध हिंदी' की बजाय 'शुद्ध हिंग्लिश' का प्रयोग करते हैं।ऐसा लगता है जैसे अभी के समय के भटके हुए युवाओं को बरगलाकर वे 'लोकप्रियता के चरम' पर पहुँच जाने और जल्द से जल्द 'हिंदी का महाकवि' हो जाने के फ़िराक में हैं।उनकी कविताओं से कुछ शब्द-प्रयोग देखिए : 'अनपोस्टेड', 'एम्बैरेसमेंट', 'डार्क ब्राउन क्लचर!', 'कॉन्शियस', 'मिसप्लेस्ड', 'स्माइली', 'ओ हाऊ स्वीट!', 'हॉट मैसेज', इत्यादि। यहाँ ऐसे शब्दों की भरमार सी है पूरी किताब में और यह लाज़िमी सवाल भी कि कवि को किस भाषा का कवि माना जाए हिंदी या हिंग्लिश? क्या हिंदी भाषा इतनी दयनीय हो गई है कि कवि को अपने भावों के लायक शब्द हिंदी में नहीं मिले? निश्चय ही यह भाषा की नहीं,वरन् कवि की पराजय के चिन्ह हैं।
अंत में भी यह बहुत अफ़सोस के साथ लिख रहा हूँ कि कवि सुशोभित की कविताओं ने अपने शिल्प,काव्यभाषा व बेहतरीन बिम्बों की रचना क्षमता के बावजूद इतना निराश किया है कि कवि को अपनी कविताओं को एक बार फिर पलटकर देखना चाहिए और हिंदी कविता की परंपरा में देखना चाहिए कि उनकी उचित जगह कहाँ है! 'मैं बनूँगा गुलमोहर' की असफलता से सीख लेकर यदि सुधार किया जा सके तो आगे चाहे और कुछ बने,न बने, सुशोभित की कवि बनने की प्रबल सम्भावनाएं जीवित हैं बशर्ते कि वे मरी हुई कविताएँ न लिखें।
- अनाम विश्वजीत 

No comments:

Post a Comment