Saturday 7 March 2020

देखने वाली नज़र हो तो हर शै प्रेम है ।

डॉ. गरिमा संजय दुबे 
(लेखिका, कवियित्री, स्तंभकार, वक्ता, मंच संचालक, सहायक प्राध्यापक अंग्रेजी) 
इंदौर म.प्र.

सुशोभित शक्तावत की मैं बनूँगा गुलमोहर हिंदी साहित्य में एक नए युग की शुरुवात करने में सक्षम है। बरसों से फेसबुक और अन्य माध्यम से अपने लिए व्यापक स्वीकार्यता तो वे बना ही चुके थे। अपनी अदभुद रचनात्मक प्रतिभा, गहरे दृश्यबोध, स्मृतियों  के कोलाज में रंग भरते हुए, अपनी पत्रकारिता की जिज्ञासा व पाठ्य वृत्ति का भरपूर दोहन करते हुए इतनी कम उम्र में चमत्कृत कर देने वाले लेखन के लिए भी वे जाने जाते है। यूँ तो हर विषय पर उनका ज्ञान व उनका लेखन आपको आश्चर्य में डाल देता है किंतु अपनी पहली ही कृति जो कि एक काव्य संग्रह है "मैं बनूँगा गुलमोहर" से वे सितारा हैसियत प्राप्त कर चुके हैं पहले ही दिन से यह पुस्तक बेस्ट सेलर में शामिल हो चुकी है। 
प्रेम के जितने रंग हो सकते हैं वे सब आप इन कविताओं में महसूस कर सकते हैं। साथ ही विस्मय से भर जायेंगें जब पाएंगें की एक प्लास्टिक का क्लचर, लाल बत्ती का सिग्नल और ब्लश वाली स्माइल, एक फ़ोन नंबर, एक मेट्रो ट्रेन में सफ़र करती लड़की, किसी उपन्यास का कोई किरदार भी प्रेम का विषय हो सकता है। 
अनूठे बिम्ब, प्रतीक, उपमा, अलंकारों से सजी ये कविताएं अदभुद हैं।
भाषा का लालित्य, भावों की तीव्रता, प्रेम का ताप, हर किस शै में प्रेम को परख लेने वाली अदभुद नज़र का कमाल है कि आप बहते चले जाते हैं इस लेखनी के साथ। शब्द साथ छोड़ देते है, हठात, चमत्कृत। 
समीक्षा .? ......किसी एक कविता की समीक्षा ही अत्यंत कठिन है फिर यह तो पूरा का पूरा सरोवर है साहित्य का जिसमें इतने अनगिनत सुवासित पुष्प हैं कि इस नफरतों भरी दुनिया में एक फूल भी बिखरा दिया जाए तो सारा संसार महक उठे। सुशोभित को पढ़ना आत्मा के,  मन के उन सूखे कोनों को नमी का पोषण देना हैं जो केवल बौद्धिकता की जुगाली से मृतप्राय हो रहें हैं। इन कविताओं को पढ़ना आत्मा का उत्सव है। सोचती हूँ लेखक तो उत्सव मूर्ति हो गया होगा लिखते लिखते। 
केवल केवल एक कविता पर ही कई पन्ने लिखे जा सकते हैं फिर इतने सीमित शब्दों में पूरी किताब की समीक्षा करना कविताओं के साथ, कवि के साथ, प्रेम के साथ अन्याय होगा और आज वही अन्याय मैं कर रहीं हूँ।
देखना चाहेंगे कुछ रंग 
कान्स की सुबह और सरपत की सांझे, 
तुम्हारी कल्पनाओं का पश्मीना,

मानवीकरण अलंकार का ऐसा प्रयोग हिंदी साहित्य में एक ताज़ी हवा का झोंका है। प्रकृति तठस्थ नहीं है, चैतन्य है और उसका हर तत्व जाग्रत हो शामिल है इन कविताओं में। इन कविताओं को पढ़ने के बाद मुझे तो लगा जैसे हर जड़ चेतन जिंदा शै है और मेरे इर्द गिर्द हजार हजार आंखों का घेरा है, जो मुझ पर नज़र रखे हैं। 
वर्ड्सवर्थ के पैंथेइसम और प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा के छायावादी युग को याद कीजिए उससे आगे ले जाती हैं इन कविताओं में प्रयुक्त ध्वनियां।
मानवीकरण का ऐसा प्रयोग है, 
सफेद गुलाब स्वप्न देखता है, 
घोंघों की तरह दम तोड़ देती है सांझ की धूप,
दलदल निगल जाता था,
सितंबर के कंधे पर कांपती रही लालटेन,
समय की उतरती सीढ़ियों पर सुखी नदी के निशान हैं, 
जब जब मुस्कुराती हो तुम रौशनी का रुमाल फैलता है
जहाँ मोमबत्तियां सुबकती हैं 
बस ऊंघता हुआ समंदर 
दरख्तों पर लदा लस्ट पस्त आकाश
सुई की आंख से झांकती चाह, और भी अनेक कई। 
 
प्रेम की नई परिभाषा, प्रेम के नए रंगों का एक पूरा धनक पाएंगें आप इन कविताओं में और धक्क से रह जायेंगें कि क्या इन पर भी, इस तरह भी प्रेम लिखा जा सकता है, प्रेम इस तरह भी किया जा सकता है। रोमांटिसिज्म की मुकम्मल परिभाषा। प्रेम होता नहीं, प्रेम में जीना और प्रेम से प्रेम को देखना, हर शै में प्रेम का दर्शन हर भौतिक भाव में प्रेम का अवलंबन romaticism है जो इन कविताओं में तीव्रता से उभर आया है। देखें : 
"प्रेम और आत्मनाश की एक समांतर ग्रेविटी होती है"
एक कविता देखिए "हाथ गुलाब भी हो सकते थे", "मन के मानचित्र पर यूँ भी कहाँ कोई विषुवत रेखा नहीं होती है" या कि "प्रणय पुरुष का एकालाप है", "दुनिया तुम्हारी अनुपस्थितियों से भरी हुई है", में आप स्तब्ध रह जाते हैं किसी जादूगर की तरह मन के कोमल अहसास का ऐसा वर्णन। सच में अनुपस्थिति में उपस्थित सांद्र हो जाती है। गोया कि तेरे होने से तेरे न होने में तू अधिक मौजूद है, हर तरफ है हर कहीं है। 
होने में खोने का अहसास प्रबल होने लगता है। महादेवी वर्मा ने एक बार कहा था प्रतीक्षा में गहरा सुख है, प्राप्त में गहरी निराशा वैसा ही कुछ। 
 "गायत्री नाम के साथ जुड़ी स्मृतियां, ज्यों किशोर वय का पहला प्यार, 
अकेली लड़की की दिनचर्या, खुद लड़की हैरान रह जाये कि कौन सी परकाया प्रवेश कर इस अनुभव को जाना कवि ने या कि कोई केमेरा है कवि के पास जिससे घरों में झांकता फिरता है और चुरा लेता है निजी पलों की मासूम हरकतें।
सड़क पर लड़की जैसे शरतचंद्र की तरह स्त्रीत्व से भरे वे स्त्री मन के गहरे तक पड़ताल कर आते हैं। वैसा ही कुछ स्त्री पुरुष के प्रणय कविताओं में भी स्त्री मन को जैसे टटोला है वह डरा भी देता है कि सामना होने पर इस लेखक से मन का कोई भाव छुपा भी रह पायेगा। आंखों की चितवन, शरीर की भंगिमाओं के कौन से अर्थ हैं जो इस कवि की भेदक दृष्टि से छुपे रह सकेंगें। इस कवि की आंखों में मन का स्केनर लगा है क्या जो गहरे बहुत गहरे अवचेतन के भाव भी पकड़ लेता है। कवि के पास बहुत आधुनिक राडार है जिससे मन की कोई तरंग बच  नही पाएगी।

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