Wednesday, 29 October 2025

कारावास

इन कविताओं के कवि के पैरों-हाथों की बेड़ियाँ उसके विचारों को अनंत तक उड़ने के पंख दे देती हैं जिनकी मदद से वह एक अलग ही कविता संसार में निरंतर उड़ान भरता है। कभी कान में किसी रेशमी डोर से गुदगुदी पर उसके भीतर कहकहा बन जाता है। कभी उसे लगता है मन पागल हो जाएगा। वह आईसीयू में भर्ती, थके हुए अपने नाविक को इस हाल में भी परिवार की चिंता करते हुए पतवार के लिये पूछते देखता है, चिरविदा ले चुकी माँ से मोबाइल पर बात करना चाहता है। कभी वह पूछता है- घर जाने को निकले कितने, कितने सचमुच में घर गये, कितने बचे कितने मर गये? उसे देश और देह दोनों समान अराजक और उच्छृंखल लगते हैं। पृथ्वी उसे क्रोध और प्रेम का पर्याय लगती है। बीमारियों के बीच आसन्न मृत्यु की आहटों के बीच उसे दाम्पत्य की चुहुल सूझती है जिसे वह चाय बनाने से लेकर किचकिच से दूर किचन और शयनकक्ष के बीच आवाजाही करने देता रहता है। प्रेयसी के कांधे की सिहरन और पैरों की थिरकन को भांप लेने का उसका पुरूष कौशल आवृत्त चेहरे के पीछे भी देख लेता है।

         कोरोना काल की ये कविताएँ जैसे समूचे जीवन को आईना दिखाती हुई एक आम आदमी के जीवन को एक खुले कारागार की तरह बिंबित करती चलती हैं जो रोटी के लिये घर त्यागता है और जीवन बचाने की आपाधापी में पुनः घर को दौड़ता है। घर की चहारदीवारी में सुरक्षित और सुविधासम्पन्न जीवन में भी जकड़ चुकी ऊब इन कविताओं में उभर उभर आती है। एक महामारी द्वारा थोपे गये ये पल अपने साथ एकाकी जीते हुए हताशा, आशा, विराग, उल्लास, भय, आश्वस्ति, नैकट्य और विछोह का जीवन वृत्तांत लिपिबद्ध करती चलती हैं। मृत्यु की बात करते इनमें जीवन दिखता है और जीवन से होते हुए वे मृत्यु तक हो आती हैं।

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