Monday 16 March 2020

कहानी संग्रह "संगतराश" पर एक टिप्पणी

कहानियां मूलतः कोरी कल्पनाएं नहीं होतीं...  पात्र लेखक के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं जिनमें कल्पना तड़का लगाकर वह अमली जामा पहनाता है।  लेखक समाज में घट रही घटनाओं के साथ समानुभूति रखकर ही अपने रचना संसार का सृजन करता है। कई बार लेखक अपने शिल्प को गढ़ने के चक्कर में शब्दों का ऐसा मकड़जाल बुन लेता है कि उसका 'कहन' उसी जाल में फंसकर रह जाता है। "बात वही होती है जो ठक से लगे.." कोई तीन पांच नहीं... कोई बारगेनिंग नहीं... जो कहना है सीधे कह दो... जैसे किसी पहाड़ से नदी उतर रही हो... जैसे हेंवत में कोई अलाव भभक कर जल रहा हो... जैसे फागुन में कोई बयार मंद मंद बह रही हो... सब नैसर्गिक कोई बनावटी पन नहीं...

नज्म सुभाष का ये कहानी संग्रह वर्तमान परिस्थितियों का एक लिखित दस्तावेज है। रिश्तों का स्वार्थ, सरकारी योजनाओं की खाना पूर्ति, दफ्तरों का नाकारापन, नेताओं की करतूत लेखक ने अपनी कहानियों में समाज के हर पक्ष पर पैनी नजर रखते हुए पात्रों के किरदार को चुना है। उनका ये पहला कहानी संग्रह होने के बावजूद इनकी कहानियां हर स्तर पर सराहनीय हैं।

सबसे पहले तो उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा 'अंतर्विरोधों का बुनियादी रचाव' भी पठनीय है और प्रस्तुत कहानी संग्रह में चार चांद लगाने वाला है। 

पहली कहानी 'मुर्दाखोर' गरीबी में जी रहे 'मड़ई' के संघर्षों की कहानी है। जो अंततः उसके पिपरमिंट पीकर मर जाने पर समाप्त होती है। पात्रों के हिसाब से अवधी मिश्रित भाषा कहानी को और आकर्षक बनाती है। 

दूसरी कहानी 'खिड़कियों में फंसी धूप' में 'सुरजी' जो कि विधवा है, के माध्यम से सामाजिक ताने-बाने पर करारा प्रहार करने का सफल प्रयास है। ये कहानी भी पठनीय है।

तीसरी कहानी... 'मेरा कुसूर क्या था' में कॉलेज मित्र शिल्पा की डायरी के पांच पन्नों को मिलाकर एक भावपूर्ण  कहानी बुनी है। जिसके अंत में लेखक खुद कहता है- "यथार्थ ऐसा भी हो सकता है मैंने पहली बार जाना । इन पांच पन्नों ने शिल्पा की जिंदगी की प्रत्येक गांठ को खोलकर रख दिया। लेकिन वह खुद एक गांठ बन गई....

चौथी कहानी 'मुक्ति' ...... "आज इस घटना के पांच साल गुजर चुके हैं। सपना ने अपनी मुक्ति के बारे में सोचा, उसने मुक्ति पायी या नहीं ये तो मुझे नहीं मालूम , लेकिन मेरे दिल ने उसकी यादों से मुक्ति नहीं पायी। आखिर कब मिलेगी मुझे मुक्ति ....

ये कहानियां सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखी गई हैं। नए तेवर नए कलेवर के साथ भावों को सही दिशा देने का सफल प्रयास हैं। ये कहानियां एसी कमरों में बैठकर फुटपाथों का प्रलाप नही है। ऐसा लगता है कि जैसे लेखक ने पात्रों को खुद जिया हो...। व्यंजनाओं में कोई बनावटी पन नहीं, संवाद भी ऐसे लिखे गये हैं जैसे पात्रों के मुंह से सहज ही निकले हों ... ये तारीफ मेरे पसंदीदा होने भर से ही नहीं है कहानियां हैं ही ऐसी कि आप पढ़ेंगे तो तारीफ किये बिना नहीं रह पाएंगे .....

पांचवी कहानी 'कहर'.... दस वर्षीय भीखू की सांप काटने से मौत.... बाढ़ राहत के नाम पर साहब लोगों बेहूदगी अंत में 'शंकर' का एंग्री यंग मैन वाला अवतार.... गंवई भाषा की छौंक के साथ आगे बढ़ती कहानी बहुत बढ़िया बनी है। 
"अरे साहब ईका नाम गोबर सींग है।" प्रधान चिल्लाये
"गोबर सींग" यहौ कोई नाम होत।"
.... "नाव तौ हमार गोबर्धन सिंह है मुला सब बिगारि-बिगारि कैहां यहै कहै लागि'

छठवीं कहानी.... "सौ रुपये का नोट"....जब भी गांव की बात चलती है कामिनी चिढ़ जाती है। और मुझे चिढ़ाते हुए कहेगी-"तुम्हारे गांव की औरतें भी अजीब हैं, अपने से बड़ों के आगे एक हाथ का घूंघट काढेंगी, मगर जब शौंच के लिए जाएंगी तो सड़क पर ही झुंड की झुंड बैठ जाएंगी। उनका पिछवाड़ा तो हर कोई देख सकता है और अनुमान लगा सकता है कि यह किस घर का है। मगर कोई उनका मुंह नहीं देख सकता।" ..... शुरुआत तो चुटीले ढंग से की गई है पर अंत तक करुणा अपना पाँव फैलाती है और पाठक को रुला कर छोड़ देती है। कहानी में गांव से लेकर शहरों के भी वो इलाके जो दूर-दराज बसे हैं उनका बृहद वर्णन है। 

सातवीं कहानी 'शतरंज'....गांव की परधानी का चुनाव... अगड़े-पिछड़ों का संघर्ष, कुटिल राजनीति, दारू से लेकर पैसे तक का जोर, दलित उम्मीदवार की जहरीली शराब पिलाकर हत्या और अंत में दसकों के प्रधान का चुनाव हार जाना... फुल प्रूफ ड्रामे से भरपूर कहानी जिसपर पूरी पिक्चर भी बन सकती है।

आठवीं कहानी 'भेड़िए'... जाति विशेष में प्रचलित रिवाज जिसमें एक भाई की शादी होने पर अन्य भाई भी उस ब्याहता के साथ पति की तरह ब्यवहार कर सकते थे के खिलाफ 'बुधिया' के संघर्षों की कहानी जिसमें उम्मीद जगाती हुई उसकी जीत नई उम्मीद जगाती है। ये कहानी भी पठनीय है। पुरुषों के वर्चस्व पर पात्रों के माध्यम से चोट करके महिलाओं की स्थिति को दिशा देने का सफल प्रयास किया गया है। 

नौंवी कहानी..'मजमेबाज' बेरोजगारी का दंश झेल रहे युवा के माध्यम से देश की वर्तमान का वृहद वर्णन... बीच में जमूरे और मदारी का तड़का भी... टीवी वाले भैया लोगों का तो कहना ही क्या है। लगे रहो इंडिया... इधर मारो उधर गिराओ बाल की खाल निकालो और कुत्ते को पहनाओ कुल मिलाकर मजे लेना है तो कहानी पढ़ो..."दुनिया एक मजमा ही है। जिसकी जम गई उसकी बल्ले-बल्ले वरना थल्ले-थल्ले .....

दसवीं कहानी... 'मैं पाकिस्तानी नहीं हूँ' देश की वर्तमान स्थिति पर करारा तमाचा...जाति व्यवस्था और धार्मिकता पर करारा प्रहार... कहानी में एक मजदूरी करने वाले आबिद को पाकिस्तानी आतंकवादी कहकर मार दिया जाता है और बाद में उसको मारने वाला पुलिसवाला खुद भी पागल हो जाता है। अच्छी बुनी हुई कहानी..

ग्यारहवीं कहानी- 'दाग' ... सड़क दुर्घटना से चेहरे पर आए दाग से जूझती एक युवती की कहानी.. परिस्थितियों का मनोवैज्ञानिक चित्रण अकेले पन का दर्द अपनो का स्वार्थ हंसी मज़ाक और यौनिकता का तड़का... सब है कहानी में और अंत सुखद है।
बारहवीं कहानी- 'सौदा' ... बेरोजगारी से जूझते सामान्यवर्ग के युवक की कहानी... आरक्षण पर भी लेखक के विचार संसद तक पहुचाने योग्य हैं। नौकरी के एवज में पागल लड़की से शादी का प्रस्ताव ... मरता क्या न करता वाली स्थिति फिर अंत में नौकरी वाली ख़ुशख़बरी सुनने से पहले ही उसकी मां का देहांत ... बढ़िया कहानी।

तेरहवीं कहानी- 'रग्घुआ सिर्री होइ गा' अब्यवस्थाओं की पावन भूमि है भारतवर्ष... यहाँ रग्घू सिर्फ मर ही सकता है और कर भी क्या सकता है? वैसे तो पूरा गांव रग्घू और सुरसती से कटा रहता है पर उसके दारू की भट्टी खोलने पर वही गांव वाले उसकी रौनक बढ़ाने भी आ जाते हैं। बिना लाइसेंस के दारू की भट्टी चलाना वैसे तो जुर्म है पर अगर पुलिस को घूस दे दिया जाय तो ठीक हो सकता है। कहानी स्कूली मास्टरों की हरामखोरी से शुरू होकर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन तक जाती है और अंत आते आते बहुत कुछ सोचने के लिए छोड़ जाती है।

चौदहवी कहानी - 'संगतराश'... कारीगर बाप बेटे के जद्दोजहद की कहानी... मेहनत की बारगेनिंग मूर्तियों की चोरी पुलिस का रिपोर्ट न लिखना। डॉक्टरी पेशे की हरामखोरी। एक आम आदमी की जिंदगी को संगतराश कारीगरों के माध्यम से बखूबी दर्शाया गया है इस कहानी में...'एक परिपक्व कहानी' जिसे पढ़ते हुए पाठक को लेखक के उम्रदराज होने का वहम भी हो सकता है और नए लेखकों को जलन भी कि कोई इतना अच्छा कैसे लिख सकता है। कुल मिलाकर एक मानक स्तर की कहानी जिसे पढ़ते हुए आप रोमांचित भी होंगे, गुस्सा भी आएगा, दया भी आएगी और आप करुणा से भी भर जाएंगे। 
पंद्रहवीं कहानी -  'अपने-पराये' ... जिसमें दादी के माध्यम से पारिवारिक रिश्तों का गहन विमर्श है। दादी को टीबी है जिसे वो मानने को ही तैयार नहीं होतीं... मानती भी हैं तो इलाज पूरा होने से पहले ही गांव के लिए निकल जाती हैं। 
भाषा वही है नज्म सुभाष टाइप.. "डाक्टरवा पगलेट है... हमरे टी बी नाइ हय।"
अंतिम कहानी- 'बरसात की रात' बेहद मार्मिक दृश्यांकन 
"कुत्ते ने कान झाड़े, एक नज़र गौर से रवि के चेहरे पर डाली। जहाँ लताड़ का कोई भाव न था। वह भागते हुए आया और रवि का हाथ चाटने लगा। रवि को महसूस हुआ सारी ठंड अब गायब हो चुकी थी.... 
सराहनीय कहानी संग्रह जिसे पढ़ा ही जाना चाहिए।

पुस्तक- संगतराश
विधा- कहानी संग्रह
लेखक- नज्म सुभाष
प्रकाशक- लोकोदय प्रकाशन , लखनऊ

चित्र गुप्त

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