Tuesday, 8 April 2025

आत्म कथ्य - असहमति के स्वर

             प्रतिष्ठित प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिकाओं के माध्यम से जो वर्तमान साहित्य का परिदृश्य प्रस्तुत हो रहा है वह काफी हद तक वामपंथी विचारधारा, विमर्शप्रियता एवं स्त्री यौन स्वातंत्र्य के रंग में रंगा हुआ है। अग्रणी प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका हंसके भू.पू. संपादक स्व. राजेन्द्र यादव द्वारा छेड़ा गया स्त्री यौन स्वातंत्र्यका आंदोलन एक ओर नैतिकता की बखिया उधेड़ता है तो दूसरी ओर हिन्दू धर्म की मान्यताओं, वेद, पुराण, मिथकों को विश्लेषित करने के नाम पर अपमानित करता है। यादव जी के मृत्योपरांत भी उनके विचारों के समर्थकों द्वारा स्त्री यौन स्वातंत्र्यका परचम लहराते हुए स्वच्छंद यौन सम्बन्धोंकी वकालत की जा रही है। परिवारएवं विवाहजैसी महत्वपूर्ण सामाजिक इकाइयों को नकारा जा रहा है। लिव इन रिलेशनएवं विवाहेतर यौन सम्बन्धही नहीं यौन विकृतियोंएवं समलैंगिकताको भी स्वीकारा तथा स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। अश्लील साहित्य एवं अश्लील फिल्म’ (पोर्न लिट्रेचर एवं ब्ल्यू फिल्म) को आधुनिक मनोरंजन के रूप में स्वीकारे जाने की दलीलें दी जा रही हैं।


विमर्शप्रियता के जूनून में, विशेष तौर पर दलित विमर्शवादियों द्वारा प्रेमचंद, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों को सिर्फ कमतर करके ही नहीं आंका जा रहा है, बल्कि यथासंभव अपमानित करने का भी प्रयास किया जा रहा है। अब यह दलित विमर्शप्रियता साहित्य ही नहीं स्वाधीनता संग्राम सेनानी, मीडिया हर क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान निरूपित करने के प्रयास में पूर्व मान्यताओं, प्रतिष्ठाओं को खण्डित करने का प्रयास कर रही है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को झूठी वीरांगनाबतलाया जा रहा है। 1857 की सैनिक क्रांति का नायक मंगल पाण्डे की जगह मातादीन भंगी को बतलाया जा रहा है। इन सभी विषयों पर आये दिन प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित ही नहीं हो रहे हैं बल्कि प्रगतिशील साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग उनके समर्थन में दलीलें भी दे रहा है। लेकिन इस तरह की विमर्शप्रियता, यौन स्वच्छंदता एवं हिन्दू धर्म का अपमानजनक विश्लेषण साहित्य के किसी भी जागरूक पाठक को स्वीकार्य न होगा।

वर्तमान साहित्य को प्रदूषित करने वाली इन सभी विसंगतियों से अपने असहमति के स्वरको बुलन्द करते हुए, बतौर साहित्य के एक जागरूक पाठक की हैसियत से ऐसे प्रकाशित आलेखों के प्रतिउत्तर में मैंने पूर्ण शालीनता एवं तार्किकता के साथ आलेख लिखे जो कि प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं वैचारिकी’ (कोलकाता), ‘अनिश’ (बनारस), ‘कथाक्रम’ (लखनऊ), ‘नवनिकष’ (कानपुर), ‘अक्षरपर्व’ (रायपुर), ‘अक्षरा’ (भोपाल), ‘दैनिक भास्कर उत्सव विशेषांक’ (जयपुर),मंगल विमर्श’ (नई दिल्ली) आदि में प्रकाशित हुए। इनके अतिरिक्त साहित्य एवं इतिहास की पूर्व स्थापित कुछ मान्यताओं से असहमत होते हुए उन्हें अतिक्रमित करते हुए तथा अतीत के दिवंगत साहित्यकारों के प्रति उपेक्षित रवैये से असहमत होते हुए भी कुछ आलेख मैंने लिखे जो कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं चर्चित हुए। उनमें से भी कुछ आलेख इस संग्रह में संकलित हैं। साथ ही हिन्दी के प्रथम नाटक के बतौर किसे स्वीकारा जाए कि विवाद को प्रस्तुत करते हुए लिखे गये आलेख को भी इस पुस्तक में संकलित कर रहा हूँ। मैं आभारी हूँ नवनिकषके प्रधान संपादक डॉ लक्ष्मीकांत पाण्डेय जी का जिनने अपनी पत्रिका में असहमतिस्तम्भ के माध्यम से मुझे इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करने के लिये एक मंच उपलब्ध कराया। सन 2011 से लगातार उस स्तम्भ में मेंरे आलेख प्रकाशित हो रहे हैं जो कि विद्वजन द्वारा सराहे जा रहे हैं। उन प्रकाशित आलेखों में से 23 आलेख पुस्तकाकार में असहमति के स्वरशीर्षक से प्रस्तुत हैं। आशा है कि ये आलेख वर्तमान साहित्य को प्रदूषित करने वाली प्रवृत्तियों के प्रति पाठकों को चिंतन के लिये प्रेरित करेंगे।दिनांक: 11: 06: 2021                             राजेन्द्र सिंह गहलौत

दिन : शुक्रवार