Thursday 10 March 2016

साथियों को पत्र

प्रिय साथी,

आज हिन्दी साहित्य मठाधीशों और प्रकाशकों के गठजोड़ में फंसकर अपने दुर्दिन की ओर अग्रसर है। प्रकाशन उद्योग पूँजी के हाथों का खिलौना बन चुका है। एक ओर प्रकाशन के नाम पर लेखकों से मोटी रकम वसूली जाती है तो दूसरी ओर सरकारी खरीद में पुस्तकों को खपाकर मोटा मुनाफ़ा कमाने के फेर में पुस्तकों के इतने ऊँचे दाम रखे जाते हैं कि पुस्तक आम पाठक की खरीदी पहुँच के बाहर हो जाती है। ऊपर से रोना यह कि पाठक कम हो रहे हैं, साहित्य की किताबें खरीदने में लोगों की रूचि नहीं है। जबकि हकीकत यह है कि छोटे शहरों को छोड़ दीजिए बड़े शहरों तक में हिन्दी साहित्य की पुस्तकों की बिक्री के लिए कोई ठीक-ठाक दुकान नहीं है। जो दुकानें हैं भी वहाँ प्रकाशकों द्वारा पुस्तक पहुँचाने में कोई रूचि नहीं दिखाई जाती है। शार्ट-कट से पैसा कमाने की लालसा ने वह बाज़ार ही गायब कर दिया जहाँ ग्राहक पहुँचकर किताब खरीद सकें. प्रकाशकों द्वारा दरअसल मुनाफे के खेल में साहित्यिक पुस्तकों को पाठकों से दूर करने की यह साजिश है जिसमें सबसे अधिक शोषण लेखक का होता है। लेखक से न केवल मोटी रकम वसूली जाती है बल्कि पुस्तक बिक्री से होने वाली आय में उसकी हिस्सेदारी, जिसे रॉयल्टी कहते हैं, से भी वंचित किया जाता है।

इस खेल में तथाकथित वरिष्ठ लेखक भी शामिल हैं। आज सत्ता-प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द चक्कर काटने वाले ऐसे नामधारी ही प्रकाशन ठिकानों को अपने कब्जे में लिए हुए हैं जिससे इनकी दाल गलती रहे। छद्म प्रतिबद्धता और वैचारिकता का मुखौटा पहने ऐसे नामचीन लेखक आजकल सत्ता-प्रतिष्ठानों से अपनी नजदीकियों को बरकरार रखने के फेर में पूँजीपतियों और ऊँचे पदों पर आसीन अधिकारियों व उनकी पत्नियों को साहित्यकार बनाने की मुहिम चलाए हुए हैं। इस पूरे परिदृश्य में सबसे अधिक नुकसान होता है नए रचनाकारों का। यह पूरा माहौल उन्हें मजबूर करता है इस या उस मठ पर माथा टेकने को। जो ऐसा नहीं करते वे हाशिए पर पड़े रह जाते हैं। दूसरा नुकसान उठाने वाला वर्ग है दूर-दराज़ के इलाकों, छोटे शहरों, गाँव-देहात में रहने वाले रचनाकारों का जिनके पास न तो पहुँच है, न संसाधन और न ही पैसा कि वे छप सकें। कुल मिलाकर परिणाम यह है कि प्रतिबद्ध, आम जनता के सुख-दुःख की बात करने वाली, लोक से जुड़ी रचनाएँ पाठकों तक पहुँच ही नहीं पातीं। पाठकों के सामने परोसा जाता है ढेर सारा कचरा।

ऐसे माहौल को देखते हुए लोक विमर्श के साथियों द्वारा अपने आन्दोलन को मजबूत करने के लिए लगातार यह जरूरत महसूस की जा रही थी कि अपना एक प्रकाशन होना चाहिए जिसके माध्यम से आन्दोलन से जुड़ी पत्र-पत्रिकाओं तथा साथियों की रचनाओं को पुस्तक रूप में प्रकाशित किया जा सके। साथ ही, प्रकाशकों द्वारा लेखकों-पाठकों के शोषण के खिलाफ खड़ा हुआ जा सके और साहित्य व आम पाठक के बीच विद्यमान दूरी को ख़त्म करके लोकधर्मी आन्दोलन का व्यापक प्रसार-प्रचार किया जा सके। यदि आन्दोलन का अपना प्रकाशन होगा तो आगे तारसप्तक की तर्ज़ पर लोक-सप्तक तथा हिंदी साहित्य के इतिहास के संपादन जैसी प्रस्तावित योजनाओं पर प्रभावी ढंग से काम किया जा सकेगा  इसलिए आन्दोलन से जुड़े सभी साथियों के अभिमत के अनुसार लोकोदय प्रकाशन प्रारम्भ किया गया है।

लोकोदय प्रकाशन एक सामूहिक प्रयास है। इस प्रकाशन की पहली प्राथमिकता कम मूल्य की पुस्तकें उपलब्ध कराना है। पुस्तक की बिक्री के लिए हम सीधे पाठकों तक अपनी पहुँच बनाने का प्रयास करेंगे। प्रकाशन के विभिन्न राज्यों में पुस्तक विक्रय केन्द्र हैं तथा अन्य जनधर्मी प्रकाशनों के साथ मिलकर देश भर में पठन-पाठन का वातावरण सृजित करने के लिए पुस्तक मेला आदि का आयोजन कराया जाएगा। हमारे प्रकाशन की पुस्तकें विभिन्न वेबसाईटों व ई-मार्केटिंग साईटों पर भी उपलब्ध रहेंगी।

प्रकाशन के सुचारू संचालन हेतु दो समूह बनाए गए हैं- सम्पादक मंडल तथा संचालन मंडलसम्पादक मंडल के सदस्यों का उत्तरदायित्व प्रकाशित होने वाली सामग्री की स्तरीयता बनाए रखना है जबकि संचालन मंडल के सदस्य प्रकाशन के सुचारू संचालन में सहयोग करेंगे। प्रकाशन से स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन तथा उन पुस्तकों को पाठकों तक पहुँचाने का कार्य आप सभी साथियों के सहयोग के बिना संभव नहीं है। इस कार्य में आपका सतत सहयोग और परामर्श प्रार्थनीय है। 

सादर आभार!

   आपका 
लोकोदय प्रकाशन