भ्रम, सम्भव है, वास्तविकता का आभास मात्र हो, किन्तु भ्रम, वास्तविकता नहीं हो सकता। दोनों में अचानक,
समानता कायम रहने तक, सन्देह, ज्ञान प्रक्रिया में बाधक बन जाता है,
तो सत्यापन प्रक्रिया उसका निर्णय कर देती है। इनमें
वास्तविक कौन है, रस्सी
या साँप- और सन्देह इस प्रक्रिया के चलते अपदस्त होने लगता है। सत्यापन व्यावहारिक
क्रिया होती है, जो
वास्तविकता और भ्रम दोनों का परीक्षण करती है। क्या कलात्मक वस्तु भी परीक्षण की
इस परिधि में प्रस्तुत की जानी चाहिए? परीक्षण की परिधि और गिरफ्त से बच निकलने के लिए,
यदि कला को ही फैन्टेसी करार कर दिया जाए तो,
फिर समीक्षकों को उलझनों की मकड़ जाल से,
मुक्ति का रास्ता खोज पाना, मुश्किल से मुश्किलतर होता जाता है।
‘कामायनी' की प्रशंसा करते हुए, मुक्तिबोध ने इसे एक विशाल फलक पर चित्रित,
फैंटेसी के रूप में पहचान की है, साथ ही अपनी पुस्तक ‘एक साहित्यिक की डायरी' में ‘तीसरा क्षण' शीर्षक से एक निबन्ध भी सम्मिलित कर रखा है। यह निबन्ध,
फैंटेसी की विस्तृत व्याख्या करते हुए,
किसी रचना की रचनात्मक प्रक्रिया का स्पष्ट रूप से विश्लेषण
प्रस्तुत करता है।
इससे पहले कि हम, मुक्तिबोध की कविताओं में से, कुछ एक का पाठ प्रस्तुत करें, उनके निबंध ‘तीसरा क्षण' की संरचना और रचना प्रक्रिया की पद्धति का मुयाना करते
चलें। ‘तीसरा क्षण'
सुकराती संवाद शैली में लिखा हुआ, निबन्ध है, यह है कि सुकरात के संवाद में, श्रोता और प्रश्नकर्ता, चौपाल में गली के नुक्कड़ पर और कोई एक राही भी होता है,
साथ ही परिदृश्य मूर्त और वस्तुपरक होता है,
लेकिन मुक्तिबोध के त्रिकात्मक क्षण में ‘मैं' और एक ‘अन्य' में जो वार्ता घटित होती है, ‘मैं' कभी ‘अन्य' बन जाता है, कभी ‘अन्य', ‘मैं' बन जाता है, इस आँख मिचौली से स्पष्ट हो जाता है कि निबन्ध में वाचक और
उसका ‘अन्य'
एक-दूसरे के ही ‘अन्य' बनकर, वार्ता में संलग्न है। सुकराती वस्तुपरकता लुप्त हो जाती है
और निबन्ध लेखक आत्मपरकता के भँवर में उलझ जाता है। तर्कशास्त्र की दो पद्धतियाँ
आगमनात्मक और निगमानात्मक में से पहली को वैज्ञानिक और दूसरी को साहित्यिक कहते
हुए, अपने दूसरे अर्धांग,
यानी ‘अन्य' से कहता है कि विज्ञान, जैसे ‘आगमन' को विशेष रूप से महत्त्व देता है, वैसे ही साहित्य में ‘निगमन' को ही महत्त्व देना सर्वथा उचित होगा। वाचक की समझ के तहत ‘आगमन' और ‘निगमन' में अचल विभाजक रेखा है, और उसके निष्कर्ष, सार्वजनिक और वैश्विक होंगे। साहित्य की विधाओं को ऐसी ही
पद्धति पर निर्धारित किया जाना चाहिए। निर्णायक वाचक, इस तथ्य की अनदेखी कर देता है, कि आगमन और निगमन के बीच कोई अचल विभाजन बिन्दु नहीं होता,
उनके आपसी सम्बन्ध अनास्थिर और परस्पर परिवर्तनीय होते हैं।
दोनों अनिवार्यत एक-दूसरे से निरन्तर सम्बन्ध सहयोग कायम रखते हैं। जबकि ‘तीसरा क्षण' में ‘मैं और ‘अन्य' के बीच की रेखा लुप्त और प्रकट होते रहने की क्रिया में
निरन्तर दृश्य और अदृश्य होती रहती है। सुकराती पद्धति को सुधार कर,
आत्मकपरकता को चलन में लाने की यह एक कोशिश है,
जो मूल में ही लचर रह जाती है। क्यों?
तीन क्षणों में अपनी पूर्णता तक पहुंचने वाली फैंटेसी क्या
है, इससे इतर क्षणों में यह
पूरी हो सकती थी। या इससे अधिक कुछ क्षणों की उसे जरूरत पड़ सकती थी। पे. एंगेल्स
ने हेगल के त्रिकात्मक क्षणों में, किसी प्रक्रिया के पूर्णता को, संदेहास्पद बताया है, और कहा कि कोई प्रक्रिया तीन क्षणों से अधिक क्षणों की
दरकार से निर्धारित होने की सम्भावना से वंचित नहीं हो सकती मिसाल के लिए गेहूं या
जौ का अंकुर, बाली तक विकसित
होकर, और उसके
डंठलों के सूखने तक, तीन
क्षणों से अधिक हो सकती है। कला-कृतियों के विषय में, ऐसी सम्भावना को अस्वीकार करना, द्वन्द्वात्मक पद्धति की पहचान में भूल हो सकती है।
किसी भी ज्ञान-प्रक्रिया में संवेदनों और संवेद्य की
प्राथमिकता अनिवार्य होती है। वस्तु के साथ इन्द्रियों की अंतरक्रिया जितनी ही
आवृत्तिमूलक होगी, उतना
ही हमारा अनुभव परिपक्वता प्राप्त करता जाता है, वस्तु, मूर्त्त और अनुभव निर्दोष होता जाएगा। संवेदन को मुक्तिबोध,
अनुभव के समानार्थी भी कह देते हैं।
कला के तीन क्षणों का उल्लेख करते हुए,
मुक्तिबोध, अपने दूसरे अर्धांग के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं,
“कला का पहला क्षण है,
जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण। दूसरा क्षण है इस अनुभव को
अपने कसकते-दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर
लेना मानो वह फैंटेसी अपनी आँखों के सामने ही खड़ी हो। तीसरा और अन्तिम क्षण है,
इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरम्भ और उस
प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गति मानता।''
मुक्तिबोध ने रचना प्रक्रिया के तीनों क्षणों में,
हेगेल के विराट और जगत-व्यापि द्वन्द्ववाद के लघुचित्र को
सीधे-सीधे अपना लिया है। कला के विकास में भी, हेगेले ने इस क्षणों का त्रिकात्मक उपयोग किया है। कला के
प्रथम रूप को प्रतीकात्मक कला कहते हैं- कला का यह रूप, वस्तु की स्फीत, गुरुता और अनागढ़ता से बोझिल और भदेस रूप में प्रस्तुत होता
है, इसमें सुन्दरता का कतई
अभाव होता है। जबकि वह परम चेतना का ही प्रतीक होता है, फिर भी स्थिर, गतिहीन और चेतना से रिक्त होता है। पिरामिड,
मकबरों और तमाम स्थापत्यों में संगीत एवं गति नहीं रहती। वे
रूप और वस्तु के साक्षात नमूने, अस्पष्ट, विकृत, उदात्त और विद्रूप होते हैं। विश्वात्मा से,
ऐसी कलाओं की संगति नहीं बैठती, और दूसरे क्षण वह ऐसे रूप का खोज करती है,
जिसमें रूप और वस्तु का द्वन्द्व मिट जाता है और मानव-शरीर
कला का विषय बन जाता है, चेतनशील होने के कारण, वह परम-चेतना के निकटतम पहुँच जाता है। मनुष्य,
हेगेल के अनुसार प्रकृति का सिरमौर है,
और सर्व सुन्दर प्राणी है, परम-चेतना इस कला में अपनी पूर्ण अभिव्यक्ति पा लेती,
जिसे हेगेल ने क्लासिकल कला कहा है।
मुक्तिबोध के त्रिकात्मक क्षणों के औजार,
अब उन्हीं की कुछेक कविताओं के बीच में लिए चलते हैं। ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है' अपनी कविताओं के संग्रह छपते समय, मुक्तिबोध ने श्रीकांत से कहा था कि इस संग्रह में,
उनकी दो कविताएँ, ‘अँधेरे में' और ‘चंबल की घाटी में' जरूर शामिल होनी चाहिए। इन दोनों कविताओं को मुक्तिबोध,
सफल फैंटेसी मानते थे, तीसरा क्षण, पहला और दूसरा क्षण की एकान्वित है, अथवा यूँ कहें कि वाद और विवाद, तीसरे क्षण में संवाद के पूर्ण रूप में प्रस्तुत हो जाता
है। लेकिन कठिनाई तब शुरू होती है, जब संवाद की स्थिति आते ही वाचक को यह प्रतीत होने लगता है,
कि अभी तो परम अभिव्यक्ति से उसका साक्षात्कार हुआ ही नहीं,
तब वह फिर उसकी खोज में निकल पड़ता है। कहना पड़ता है कि
परम अभिव्यक्ति उसकी कल्पना का एक गढ़न्त है, अथवा मृग-जल है।
योरोपीय देशों में अनेक ऐसे कल्पनावादी है,
जो रचनात्मक सिद्धान्त के सन्दर्भ में फैंटेसी,
अनन्त कल्पना और कल्पना को सर्वोपरि सृजन शक्ति के रूप में
स्वीकार करते रहे हैं। कालरिज जैसे रोमांटिक सौन्दर्यशास्त्राr,
कल्पना और अनन्त कल्पना में अंतर करते रहे हैं,
बल्कि अनन्त कल्पना को, रचनात्मकता का ईश्वरीय शक्ति-सम्पन्न शक्ति कहने में,
उन्हें कोई संकोच नहीं था। मुक्तिबोध की फैंटेसी उपरोक्त का,
उपरोक्तों से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
अब, मुक्तिबोध-काव्य में, फैंटेसी की समान्य विषय वस्तु पर, ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है। ‘चम्बल की घाटी में' कविता में वस्तुओं और परिवेश को देखिए- चारों ओर शिलाखण्ड,
पठार, दर्रे, झाड़-झंखाड़ घाटियों के जाल से बिछा हुआ है,
प्राकृतिक विकास की, तीसरे क्षण की यह पहली अवस्था है, जिसमें मनुष्यता का जन्म डाकू के रूप में होता है,
और बेचैन एक आत्मा यह सब देखकर अपना होश-हवास खो देता है।
ध्यान देने की बात यह है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति के उत्पन्न होने से पहले ही डाकू
मंच पर प्रकट हो जाता है, यह एक ऐतिहासिक सत्याभास है। प्रकृति का रूपांतर श्रम-शक्ति
से अभी तक हुआ ही नहीं, औद्योगिककरण तो बहुत दूर की बात है, सम्पत्ति संचय के लिए, कोई स्वामी वर्ग पैदा हुआ ही नहीं और डकैती के सिलसिले चल
पड़ते हैं इस ऐतिहासिक काल-दोष के चलते,
‘चम्बल की घाटी' में कविता का पहला क्षण असत्य और मिथ्याभास है। पत्थर
तोड़ते श्रमिक सिर पर लकड़ी के गट्ठर लिए, श्रमिक स्त्रियों का बेड़ा और चरवाहों के मूर्त संवेदन और
बिम्ब इस पहले क्षण में नदारद और अंतर्धान हैं। फिर उन वस्तुओं की उत्पत्ति कैसे
हुई, जिसे कवि ने चम्बल घाटी
में चित्रित किया है। वे कवि की अतिकल्पना की अमूर्त संतानें हैं,
जिनका संवेदन और अनुभव भी आकाशी और स्वात्मवादी है। वे
स्वस्थ्य पाठक मन का स्पर्श नहीं कर पाती।
‘अन्धेरे में' कविता, जो पहले की तरह सुदीर्घ और एक वृत्त में चक्कर काटती है,
वह कवि की अतिकल्पना का चरम है। इसमें नायक दीवार के पलस्तर
टूटने जो एक दीवारी दरी बन जाता है, उसके भीतर से जन्म लेता है। सारे अवतार चमत्कार और
विचित्रता के भी अवतार रहे हैं। तभी तो वे जनसाधारण के पूज्य और आदर-पात्र बन सकते
हैं। वेद में, चार वर्णों
की उत्पत्ति, ब्रह्मा के
अंगों से बतायी गई है। ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख ही से पैदा हुआ है,
इसलिए, चतुर्वर्णों में सर्वोपरि और पूज्य है। चार्वाक और बाद में
कबीर ने इसका खंडन किया कबीर ने कहा जैसे और जिस रूप में आज लोग पैदा होते हैं,
इससे भिन्न तरह से कोई पैदा होता है तो मैं उसे मिथ्या और
गप्प मानता हूँ। मुक्तिबोध, कबीर के संदेह और निर्णय को नकारने और पार पाने के लिए,
नायक को दीवारी दर्रे के गर्भ से उत्पन्न कर दिया है। क्या,
इस प्रतिज्ञा और प्रस्तावना से नृ विज्ञान और डार्विन की
स्थापनाओं का निरसन हो गया? क्या फैंटेसी के लक्षणों में यह बात भी शामिल है कि विज्ञान
असत्य होता है? इतना ही
नहीं।
‘परम अभिव्यक्ति' की खोज में विज्ञान नहीं ‘परम विज्ञान (तत्वमीमांसा) की पद्धति ही एक सिद्ध औजार है,
यहाँ पर बुद्धि-विरोधी पद्धति का स्पष्ट संकेत है। वियना
सर्किल के भाषा विज्ञानी, तत्वमीमांसा के हर एक शब्द और वाक्य को अर्थहीन और बकवास कहते
हैं ‘त्रिकोण
हत्या करता है' व्याकरण और
भाषा के नियमों से तो सत्य है लेकिन अर्थ की दृष्टि से गलत है- तत्वमीमांसा पर,
प्रत्यक्षवादियों की यह अन्तिम टीप है।
मुक्तिबोध के काव्य-शास्त्र में, तीसरा क्षण, की खोज इसलिए आवश्यक है कि वह पूर्ण अभिव्यक्ति का अन्तिम
क्षण है और तदनन्तर वह ‘कसकते दुखते' मूल से अलग होकर, स्वयं व्यक्त हो जाता है। ‘फैन्टेसी' की इस पाक कल्पना का रूप स्वत ‘स्फूर्त अभिव्यक्ति ' से एकदम भिन्न और अपनी बनक में, नई कविता के विमर्श में अनकहा और अपरिचित रहा है। मैं,
इसकी खोज और पैमाइश के पयास में स्वयं मुक्तिबोध के उन्हीं
औजारों और उपकरणों का इस्तेमाल करने की छूट लेना चाहता हूँ,
जिसे मुक्तिबोध ने स्वयं निदेशित किया है। और यह भी देखना
आवश्यक है कि, क्या
रचनाकाल में प्रथम संवेदनात्मक ज्ञान, तीसरे क्षण में ज्ञानात्मक संवेदन का पूर्णतम आकार ग्रहण कर
लेता है? या
नहीं।
संवेदनात्मक ज्ञान का पूर्ण संवेदनात्मक ज्ञान में संक्रमण
साहित्य और कला के अस्तित्व के लिए इसके खात्मे का सिग्नल ही होता है। ज्ञानात्मक
संवेदन की मीमांसा बताती है कि यह तब तर्प और दर्शनशास्त्र के सीमान्त पर पहुँचकर,
संवेदन और अनुभव की सीमा का उल्लंघन कर जाता है,
और साहित्य में दार्शनिकता का संक्रमण उसे नष्ट कर देता है।
तब होता यह है कि वस्तुओं के नाम रुप और प्रत्ययों को संवेदन की वस्तु बनाकर
संवेदक फिर उससे संवेदित होता है। प्रत्याक्षानुभूति न होकर,
वे वस्तुएँ (नाम रूप और प्रत्यय, परिभाषा आदि) कल्पित संवेदनाओं से निर्मित होती है और
वस्तुओं के कंकाल पर पोत दी जाती है, फिर भी मांसलता और रूप-रंग से सम्पन्न होने से वंचित होती
जाती है, ऐसी कोई
कृति, कृतिकार के
लिए कठिन श्रम-साध्य और थकाऊ तो होती ही है, पाठक के लिए तो वह सिरदर्द ही हो जाती है। स्वप्न के सृजन,
उक्त प्रक्रिया से, कहीं अधिक रोचक, आकर्षक और वस्तुपरक होकर स्वप्नदर्शी को,
एक वास्तविक वस्तु-संसार का दर्शक बनाए रखने की क्षमता से
भरपूर होते हैं, क्योंकि
उनकी स्वयं स्फूलता और संवेदन के प्रवाह, जीवन्त और मांसल बिम्ब-विधान में अबाध गतिशील रहते हैं। यही
वह बात है, जो
ज्ञानात्मक संवदेन के पल्ले नहीं रह जाती
और जिन निर्जीव, स्पन्दन
रहित, बिम्बों से
कविता मढ़ दी जाती है, वह ‘विकृत बिम्बा' बनकर कला की मृत्यु की दुखांतिकी भर रह जाती है। एक अन्तकथा
से अन्तिम कुछ पंक्तियाँ : “चिलबिला रहा बेशर्म दलिद्दर भीतर का/ पर,
सेमल का ऊँचा-ऊँचा वह पेड़ रुचिर/ सम्पन्न लाल फूलों को
लेकर खड़ा हुआ/ रक्तिमा प्रकाशित करता-सा/ वह गहन प्रेम/ उसका कपास रेशम-कोमल/ मैं
उसे देख मुग्ध हो रहा।'' किंवदन्ती यह है, कि कोई तोता जब सेमल के फूलों पर चोंच मारता है तो पछताता
हुआ उड़ जाता है, वही
फूल फैन्टेसी में रुचिर, ‘गहन प्रेम' जैसा प्रतीत होता है; तोते से भिन्न कवि की इस पर प्रतिक्रिया है,
“मैं उसे देख जीवन पर मुग्ध हो रहा।''
ऐसी निष्प्राण अभिव्यक्ति को भी, फैन्टेसी में ज्ञानात्मक संवेदन कहा जाता है। यहाँ कवि का
ज्ञानत्मक संवेदन, तोते
के मात्र संवेदन से भी बहुत पीछे रह जाता है। मुक्तिबोध का काव्य-संसार संवेदन से
रिक्त, ऐसे ही
ज्ञानत्मक संवेदनों से भरपूर है। यहाँ यह कहना आवश्यक हो जाता है कि ऐसे
ज्ञानात्मक संवेदनों से यदि समाज कि संरचना का गठन हो तो सबसे पहले इन्द्रियाँ ही
अन्धी और बहरी हो जाती है, तोते का संवेदन तो ज्ञान परक हो जाता है,
दूसरी ओर ज्ञानात्मक संवेदन आत्मपरक और भ्रामक हो जाता
है।
आइए, अब उन दोनों कविताओं का पाठ करने की जहमत उठाएं,
जो स्वयं मुक्तिबोध की चयनित हैं, चम्बल की घाटी में और ‘अंधेरे में' जिन्हें कवि ने, फैंटेसी का मॉडल बता रखा है।
डॉ. नामवर सिंह विशेष रूप से इन दोनों कविताओं का पाठ करते
हुए, और सामान्य रुप से समग्र
मुक्तिबोध का काव्य पाठ करते हुए, अति से आगे जाकर मुग्ध और अभिभूत होकर,
मुक्तिबोध पूजन में अनुरक्त अतिभावुक होकर,
ज्ञानात्मक संवेदनाओं से पुष्ट अपनी सकल आलोचना मानो और
प्रतिमानों की माला, कवि
के श्री चरणों में अर्पित कर, रामायण के महाकवि, वाल्मिकी राम विरदावली “कोड आस्मिन संप्र तान लोके... गाते हुए,
आँखें मूंद लेते हैं और आलोचना कर्म से फारिग हो लेते
हैं।
‘चम्बल की घाटी में' कविता का पहला क्षण : कविता में यहाँ भी एक वाचक है। सारे
देश की दुरावस्था से गहन रूप से चिंतित, विक्षिप्त और भयातुर। प्राकृतिक उथल-पुथल के संवेदनों से
भरपूर अनास्थिर और दिशांध। इस अपरिचित और अनियंत्रित परिवेश में वाचक स्वयं को
अपराधी समझता है। (उसे यह भी नामालूम है, क्यों?) कविता की एक पंक्ति है “मैं एक शून्य में छटपटाता हुआ उद्देश्य,
इसी मनस्थिति में वह, टीलों के मुल्क में'' स्वयं को पाता है, जहाँ शिलाखण्डों के बेतरतीब दृश्य हैं,
वे सारे शिलाखण्डों कों, मानव आकृतियों के समरूप समझ कर, कल्पना करता है, कि किसी ‘यातुधान' ने अपने इन्द्रजाल में फँसाकर मानवों को ही शिलाखण्डों में
तब्दील कर दिया है। पाषाण पूजा का यह सरल सा अभिज्ञान है।
कवि को यह भी नहीं मालूम है कि ये शिलाखण्ड,
शिलाखण्ड हैं, उनका रुपान्तर मानव श्रम से होता है,
इन्द्रजाल से कतई नहीं, अपने श्रम और आवश्यकता के अनुसार ही,
आदिमानव ने, पत्थरों को औजार बनाया और उनका विकास किया,
वह यातुधान नहीं था, हम सबका पूर्वज मानव ही था। पाठक यह जानना चाहेंगे,
और उनका यह अधिकार भी है, कि यातुधान ने, उस प्राकृतिक दशा में, अपने जादू के जोर से बन्दर क्यों नहीं बनाया,
क्यों नहीं जंगली फल और कन्द संग्रहकर्ता के आकार में
सक्रिय दिखाया, शिकार करते,
पशुपालन में लगा हुआ चित्रित किया? तदन्तर, पत्थरों के औजारों को और अधिक कारबार,
तेज धार देते हुए, अपने कौशल-कला को विकसित करते हुए, एक ऐसे समाज की रचना करते हुए, प्रगति करता गया, जो प्राकृतिक दासता से मुक्ति और स्वतंत्रता की दिशा,
बनती गई? क्या फैंटेसी के प्रथम क्षण में, इन तथ्यों के चित्र प्रस्तुत करना, निषेधाज्ञा थी?
स्वयं मानव समाज ने परिकथाओं का संग्रह नहीं तैयार किया और
दैनिक जीवन में इन्हें परस्पर कहना- सुनना जारी नहीं रखा है?
‘चम्बल की घाटी' में ऐसा कुछ नहीं
है, अनुत्तेजक,
जिज्ञासा-शून्य और गतिरूद्ध चित्रवलियां हैं। जिन दिनों,
यह कविता लिखी गई थी, उन दिनों, विज्ञान की खोजों ने चेतना की जमीन को व्यापक रूप से बदल
दिया था, और प्रकृति
के दुर्ग पर अपना झण्डा गाड़ दिया था। समाज के निर्माण और विनाश के सैकड़ों यत्र
सक्रिय हो चुके थे, साथ
ही, भूतप्रेत समेत,
यातुधानों को भस्मीभूत कर डाला गया था।
विज्ञान बोध, एक जगत बोध बन रहा था, जबकि मुक्तिबोध का जीवन-बोध स्वयं इस ज्ञान पसारण की धारा
का साक्षी और सहयात्री बन चुका था। परिकथाओं और ‘चन्द्रकांता' की ऐन्द्रजालिय-जादुई, सनसनीखेज, सनसनी का मसाला डालकर चम्बल घाटी में,
कविता को संदीर्घ पठन-पाठन की, मरणासन्न बुनियाद पर स्थापित करना, ज्ञानात्मक संवेदन की भ्रामक कोशिश नहीं है?
इस कविता की फैंटेसी के प्रथम क्षण में और भी अनावश्यक,
कुरुप विचित्रताएँ है, जिससे पाठकीय रुचि, बोध की संगति, बेमेल और काव्यनाभूति से रिक्त ही बनी रहती है।
इस कविता में वाचक, जो कुछ देख रहा है, उसके संवेदन, ज्ञानात्मक संवेदन में, अंतरित नहीं हो पाते, वे गुरुता से बोझिल, गतिशून्य, स्थिर और अनगढ़ रूप के साथ ज्यों के त्यों,
स्थिरता में जड़े हुए रहते हैं, उन्हें किसी
प्रकार के आवेग-वेग का स्पर्श न मिलने से अपने ही स्थान पर पड़े रहने के लिए
अभिशप्त हैं। वहाँ-जहाँ दर्रे, घाटियाँ, पठार, चट्टाने, शिलाखण्ड, सूखी नदियाँ पड़ी हुई हैं, मानव किया-कलापों और सामान्य-श्रम से अछूती है। काव्य में
पत्थर तोड़ते मजदूर, जानवरों
के रेवड़ के साथ चरवाहें, सिर पर लड़कियों का गट्ठर लिए आदिवासी औरतों के बेड़े और
तीर कमान लिए आदिवासी पुरुषों का कहीं कोई जीवन्त दृश्य नहीं है। इनके चित्रों के
अभाव में पूरी कविता रेत का एक विस्तृत मैदान-सी लगती है, निराला याद आते हैं, “वह तोड़ती पत्थर' जिसमें मजदूरन औरत, श्रम की उसकी भंगिमाएं, मन मोह लेती है।“ मैंने देखा, उसे इलाहाबाद के पथ पर।“ इसके बाद सामाजिक विषमताओं के संकेत,
इस छोटी-सी कविता में समाज के अंतर्विरोधी वेग जीवन्ताओं के
अपूर्व मूर्त चित्र चमक उठते हैं। “चम्बल की घाटी में' ऐसे उन चित्रों की परछाईयाँ भी खोज पाना,
व्यर्थ का प्रयास है।
कविता के संवेदन, दूसरे क्षण, ज्ञानात्मक संवेदन तक नहीं पहुँच कर लंगड़ा कर फिर अपने
स्थान पर लौट आते हैं, उन्हें
फिर एक न्यूटानियन धक्के से धकियाया जाता है और एक पठार पर,
रायफलबन्द, कारतूस लगे कमरबन्द कसे एक डाकू को स्थापित किया जाता है।
डाकू लोक चेतना में भय का प्रतीक है, और भी ऐसे प्रतीक हैं, लकड़सूंघवा, विगवा, भंकाऊ आदि। ये सारे प्रतीक अपने प्रभावों से शून्य और
निष्प्राण हो चुके हैं; इन प्रतीकों का पोस्टर दिखाकर पाठक की अनुभूति को गतिशील
करने की कोशिश, कविता को
कूड़ेदान में बदल देना है। डाकू पठार पर बैठा-बैठा, एकाएक कारतूसों की बौछार से एक गाँव में आग लगा देता है,
यह एक किसी स्थानीय अखबार की खबर भी हो सकती है,
और ‘चम्बल की घाटी में' इसकी एक कटिंग कर के साट दी जाती है,
फिर वह एक कोलाज बन जाती है। यह भी रचना-प्रक्रिया का अंश
नहीं है, और दूसरे
क्षण, ज्ञानात्मक
संवेदन से अलग-अलग, पहले
क्षण में ही ठहरी हुई लुंज-पुंज पड़ी रहती है, जैसे कि कोई शिलाखण्ड।
यह एक बात, बहुत स्पष्ट सी लगती है, कि ‘अन्धेरे में'; कविताओं में उकेरे गये रूप, वे सजीव हों या निर्जीव हों, जड़, वनस्पतियों, पशु या मानव हों, उनके स्वयं के अस्तित्व, स्वतंत्र और आत्मनिर्भर नहीं हैं, वे स्वयंप्रेरित, गतिशील और सकिय नहीं हैं-वे केसी सूत्रधार या नट की कठपुतली
हैं, वे सब सूत्रधार की
इच्छानुसार अभिनय करती हैं। वे सीमान्त तक रचनाकार की अपनी,
निजी और निजत्व में डूबी-डूबी सराबोर हैं;
रंग में सफेद, स्याह-श्याम और काली, धुमैली अवतरित है। उदात्त वस्तुओं के अंकन में अस्पष्ट घुटन
और ऊब और थकान तो अनिवार्यत बलात लादा हुआ, भारी बोझ ही प्रतीत होता है। ऐसे अनेक अरूपों- रूपों को,
उदाहरण देकर, सबूत पेश करने का औचित्य अनावश्यक है। यत्र-तत्र,
पाठ करते, पाठकों का उनसे अनायास ही सामना होता ही रहता है। कला के
प्रथम क्षण में, जैसा कि
हेगेल ने कहा है कि इस क्षण में कला की अभिव्यक्ति, रूप रहित, भदेस, भारी-भरकम, अमूर्त और अस्पष्ट होती है, इसलिए चेतना उसका उल्लंघन कर, दूसरे क्षण में छलांग लेती है और क्लासिकल कलारूप में स्वयं
को व्यक्त कर सुन्दर रूप को प्राप्त कर लेती है। मनुष्य, कला के केन्द्र में प्रतिष्ठित हो जाता है।
यहाँ तक कला के तीन क्षणों का, सदुपयोग-दुरुपयोग करने की बाबत चर्चा के बाद,
एक और बात रह जाती है, उसके साथ, चर्चा खत्म करते हैं। हेगेल के तीन क्षणों में कला के तीन
क्षणों के बीच, संक्रमण के
काल-बोध हजारों-सैकड़ों साल की होती है। मुक्तिबोध के तीनों क्षण,
हरेक कविता में अनगिनत रूप से बारी-बारी से संक्रमित होते हैं। इनकी अवधि
दीर्घ और लघु हुआ करती है, यह बात कविता के दीर्घ-लघु होने पर, निर्धारित होती है। और, कविताएं, दूसरे क्षण में संक्रमित न होकर पहले क्षण में ही सिमट कर
रह जाती है।
एक प्रश्न, आखिर मुक्तिबोध, अपनी मृत्यु के बाद और आजतक एकमात्र चर्चित कवि बने रह गये,
यह भी कि दूसरा कवि अब तक चर्चा के केन्द्र में नहीं आ सका?
शमशेर बहादुर सिंह ने, ‘अँधेरे में संग्रहीत, पुस्तक में, अपने एक लेख एक विलक्षन प्रतिभा' में आरम्भ में ही ठीक यही प्रश्न पूछा है “क्यों सन 64 के मध्य में गजानन माधव मुक्तिबोध विशेष रूप से
महत्त्वपूर्ण हो उठे?'' आगे
वह बताते हैं कि हिंदी की सारी पत्रिकाएँ, क्या दैनिक, क्या साप्ताहिक, क्या मासिक, सारे के सारे हिन्दी पाठकों से उनका परिचय कराने लगे?
पूरे हिन्दी साहित्य की दुनिया में एक हलचल-सी आ गई। वह आगे
बताते है कि, ऐसा इसलिए
हुआ कि ‘उनकी
एकनिष्ठ तपस्या और संघर्ष, उनकी अटूट सच्चाई... इसके कारण थे। संभवत शमशेर के कथन का
निचोड़ अर्थ इतना ही निकलता है, कि मुक्तिबोध, मूल्यों के व्यक्तिगत पालन की दृढ़ता से निर्वाह करते थे,
संघर्ष, अटूट सच्चाई पर अडिग डटे रहने के ब्रती थे। उनकी ख्याति और
यश-प्रकाश के इतने ही कारण थे; उनकी काव्य-उपलब्धियों का, इससे कोई सम्बन्ध नहीं था।
मुक्तिबोध कोमा में चले गये थे, बीमारी के समय, शमशेर अस्पताल में, उनकी शैय्या के पास सिरहाने मौजूद, लिखते हैं; “बेहोशी बेहोशी। बीच-बीच में कष्ट से कराहते हैं। जोर से एक
चीख उठती है। कभी बुदबुदाहट राम-राम राम-राम, राधे-कृष्ण।
अरे यह लो! देखो!! अचेतन से उठती, राम-कृष्ण की शरणार्थी पुकार, वह कहीं खो नहीं गई थी, अचेतन के गड्ढे में दबा दी गई थी, दुबेलता के सीमान्त क्षणों में फिर, पुन सतह पर, अपने वैतालिक आकृति में स्वयंस्फूर्ति से प्रकट हो गई।
अचेतन की अभिव्यक्ति, सहज
स्वाभाविक और स्वयंस्फूर्ति ही हुआ करती है, जिसे अतियथार्थवादी, प्रमाणिक और वास्तविक अनुभूति का नमूना मानते हैं। पाठक
(शमशेर बहादुर सिंह) तो राम-कृष्ण का ध्वनि-विस्फोट ही सुनकर सकते में,
भौचक रह गये, कितनी वैदिक ऋचाएँ, गायत्री मंच-तंत्र, पुंडलनी, इंगला-पिंगला, तिमिर बिवर में सोई पड़ी नागिनी, कोमा की दशा में, उनके नाड़ी तंत्रों में प्रवाहित रही होंगी,
कि जिसका किसी साक्षी ने पता ही नहीं पाया। लेकिन उनकी
कविताओं में वे सतह पर तैरती हुई बारम्बार दिख जाती है।
लेकिन शमशेर को पता था; मुक्तिबोध, ऋग्वेदी कुलकर्णी, ब्राह्मणों के वंशज थे, उनके परदादा, स्वप्न में प्राप्त आदेश के चलते अपने साथ एक शिवलिंग भी
रखते थे, जिसकी आज तक
परिवार में, श्रद्धा से
पूजा होती है। इन बातों का उल्लेख, सिर्प इतने ही मतलब से है कि बचपन की अचेत अवस्था से,
किशोरावस्था तक, उससे भी आगे बढ़कर किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की गढ़न और
रुप-निर्धारण का एक अमित
सम्बन्ध बना रहता है।
‘खोयी हुई परम अभिव्यक्ति' की खोज : इसी परम अभिव्यक्ति खोज की कहानी “अन्धेरे मे'' कविता का मूल पाठ है। इस खोज का महानायक भी,
वाचक के साथ (कोलम्बस, वास्कोडिगामा) इस महाअभियान में तहेदिल से शामिल है। इस
कविता की गूढ़ लिपि, पद-विन्यासों,
बिम्बों के अर्थ-वाचन करने के लिए, प्रगतिवादी और रुपवादी आलोचकों ने गम्भीर प्रयास किए हैं।
शमशेर ने एकाए, सन 64 के मध्य में मुक्तिबोध के महत्त्वपूर्ण होने का प्रश्न
पूछा है और खुद जो उत्तर प्रस्तुत किया है, वह नाकाफी है, उस उत्तर में इतिहास (सांस्कृतिक) की अनदेखी ही नहीं,
उस सामायिकी को भी नजरन्दाज किया है,
जिसमें साहित्यिक अंतर्विरोधों की तीखी धारा मन्द गति होती
हुई, अवसन्न पड़ चुकी थीः
पगतिवाद अपने आंतरिक विरोधों टूट-बिखर कर, बेजान-सा हो रहा था। रूपवादी पांतों में भी,
शून्यकाल की स्थितियाँ पैदा हो चुकी थी। इसके कारण,
सामाजिक, राजनीतिक और विश्व की उन परिस्थितियों से,
सोच विचार की प्रक्रिया और दैनिक जीवन को गहराई से प्रभावित
कर रही थी। हिन्दी के कुछ रुपवादी आलोचक, जो पश्चिम के आलोचना साहित्य से आयातित अपने शस्त्रालय
भरपूर कर चुके थे, एक
ऐसे कवि और उन्हीं के समानांतर व्यक्तित्व धारक हो, और साहित्यिक विवाद-संघर्ष के लिए समस्याओं का अच्छा खासा
भण्डार हो, उन्हें ऐसा
व्यक्तित्व, मुक्तिबोध
में अचानक दिख पड़ा। फिर क्या, मुक्तिबोध का महत्त्व
जो अचानक सन 64 के
मध्य में बढ़ गया, लेकिन
महत्त्वपूर्ण होने के कारणों में एक
निष्ठता, सच्चाई और
ईमानदारी के साथ, प्रामाणिकता
को स्वीकृति दी जाती रही, इतिहास, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान से परहेज करते हुए इन्हें नये
प्रतिमानों में स्थापित कर दिया गया, साही की सलाह पर, ‘नई कविता के प्रतिमानों के स्थान पर,
‘कविता के नये प्रतिमान'
प्रतिमानों में सम्मिलित कर लिए गये। ‘स्कुटिनी' स्कूल से समर्थित शमशेर सिंह का कथन,
‘महत्त्वपूर्ण' होने के कारणों में अंतिम रूप से स्वीकृति हो गया। कवि के
महत्त्वपूर्ण होने के वास्तविक कारणों की बलि दे दी गयी।
फिर एक ‘परम अभिव्यक्ति' जो कभी विद्यमान थी, जिसका खो जाना, और पतन हो जाना, एक ऐसी व्यक्तिगत थी, जिसके न रहते जीवन व्यर्थ है, -उसका पुन प्रत्यावर्तन आवश्यक है। यदि इतिहास की पुनरावृति
नहीं होती, तो भी उसकी
पुनरावृत्ति जरुरी है। क्या, अतीत प्रेम की यह स्पष्ट मांग नहीं है,
क्या सामाजिक क्रांति का लक्ष्य और मंजिल,
अतीत को वापस लौट आने का एक वृहद प्रयास नहीं है?
देखना चाहिए कि परम अभिव्यक्ति', स्वयं के साकार, मूर्त और सामाजिक वास्तविकता के रुप में क्या हो सकती है?
उसकी पहचान किस ऐतिहासिक रुप और किस काल में निर्धारित हो
सकती है? इस अमूर्त
तत्व का, मूर्त रुप
और उसकी साकारता की हदे क्या हो सकती है? पंडित
रामचन्द्र शुक्ल भी कहते हैं, हृदय में बसने के लिए तो अतीत काल ही आदर्श-काल है। क्या वह
रुसों का परिकल्पित का, मानव समाज का आदिम युग तो नहीं है, जहाँ सामाजिक अन्तर्विरोधों के काँटेदार सम्बन्ध नहीं होते
थे, रोमांटिकों की प्रवृत्ति
में भी, यह स्पष्ट
संकेत है कि अतीतकाल ही आनंद का काल है। समता-समरसता का दिव्यलोक है,
चलो उसी लोक में प्रस्थान करें। उनके चिंतित की दिशा यह थी,
जो वस्तु जहाँ से जिस स्थान से लुप्त हो चुकी है,
उसे फिर उसी देश-काल में पुन पुन कल्पित करते रहो। कालदोष
और अनवस्था की यह रोगी प्रवृत्ति, विचारक को डॉन क्विकजोट की इन कोशिशों के समतुल्य है,
जो सामन्ती समाज को पुन वापस लाना चाहता है। इसके अतिरिक्त,
दूसरे भी कारण हो सकते हैं, जोश में सर्वसत्ता, वर्णव्यवस्था में, उस वर्ण के अधीन रह चुकी हो, जो सर्वाधिकार सम्पन्न शासक रह चुका हो,
जिसके चलते, उसके विधि-विधान परम, निरपेक्ष अभिव्यक्ति के रूप में स्थापित रहे हों। ऐसे कुछ
भौतिक और सामाजिक आधारों पर टिकी व्यवस्था का ह्रास ग्रस्त होना और विलीन होते हुए
नेपथ्य में चले जाना -क्यों नहीं परम अभिव्यक्ति के खो जाने के समान नहीं कहा जा
सकता? कोई व्यक्ति,
अंधेरे में खो गई वस्तु को उजाले में खोजने का प्रयास जारी
रखता जा रहा है और यदि उससे पूछा जाता है कि, वह जिस वस्तु की खोज रहा है, उसकी रूप रेखा क्या है, तो वह उत्तर देता है, कि मुझे मालूम नहीं है। तो उसके खोजने के प्रयासों को क्या
व्यर्थ की सनक कहना अनुचित होगा?
डॉ. नामवर सिंह ने ‘अंधेरे में' कविता को, वृहतर फलक पर
चित्रित कांति का एक स्वप्न लोक समझा है, इसके कलेवर को देखकर ही, इसे एक महाकाव्य घोषित कर दिया है, जो कि बेमानी और निरर्थक निर्णय है। जिस कविता में कोई
कांतिकारी वर्ग ही नदारद है (मजदूर और किसान), ऐसी कांति की फैंटेसी किसी मध्यम वर्गों सिरफिरे की अति
कल्पना ही कही जा सकती है। मुक्तिबोध, मैक्सिम गोर्की के अत्यंत पशंसक थे, किन्तु क्या बात है कि ‘माँ' की, कांति की पसंग में कोई भूमिका उन्हें नजर नहीं आई?
माँ, कांतिकारी आंदोलन में मजूदरों के पर्चे बांटती है,
‘अंधेरे में' तो पर्चे बहुत बांटे, चिपकाए, और उड़ाए गये हैं, किन्तु कोई औरत इसमें भाग नहीं लेती। हाँ,
एक कविता में एक स्त्री पात्र का दर्शन अचानक हो जाता है। ‘एक अंतर्पथा' कविता में, मजदूरन जैसी एक औरत अपने बालक के साथ,
जंगल में, सूखी टहनियां बिनती-बटोरती नजर आती है,
और संग में साथ चलते हुए बालक से बताती है कि टहनियां
अग्नि-गर्भा हैं, तब
ऐसा पतीत होता है कि वह साधारण स्त्री नहीं है, बल्कि इस जमाने की सती मदालसा, मैत्रेयी और वेदांग में पारंगत गार्गी के समान विदुषी है!
और किसी यज्ञ के लिए समिधाएँ चुन रही है। इतना ही नहीं, टहनी में बंद अग्नि सूर्य-केन्द्र से संबंध रखती है! ऐसी
अनुभूति करने का लोभ व्यक्ति का व्यक्तित्व अनहद असीम हो जाता है! ऐसी गूढ़ और
उदात्त कल्पनाओं से, मुक्तिबोध
ने ही हिंदी साहित्य को अत्यंत समृद्ध किया है, एवं पाठकों को कांतिकारी बनाने की कोशिश की है। इस तरह की
वामपंथी लफ्फाजी को लेनिन ने बचकाना रोग कहा था।
डॉ. रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध काव्य का अध्ययन सविस्तार
और सहानुभूतिपूर्वक किया है, किन्तु उनसे अनेक बातों में असहमत भी हैं। यह उनकी विशिष्ट
स्पष्टता है। ‘नई कविता और
अस्तित्ववाद' में उनका
संकलित लेख ‘नई कविता और
मुक्तिबोध का पुनर्मूल्यांकन' मुक्तिबोध को समझने की एक सुसंगत पुंजी है। शमशेर कहते हैं
: मुक्तिबोध के साथ मेरी समस्या होती है (अक्सर ही पाठकों को लगता है,
मैं मात्र एक साधारण पाठक हूं।) अव्वल तो पढ़ने की!
(ईमानदारी की जात) रचना की दीर्घ कारा विराटता हताश करती है। आगे कहते हैं- आप
मुक्तिबोध के पैटर्न समझ लेने के बाद उन्हें उम्र भर नहीं भूल सकते हैं। इस पर डॉ.
शर्मा की टिप्पणी फैसलाकुन हैः लिखते हैं- ‘किन्तु ऐसा लगता है कि शमशेर बहादुर सिंह मुक्तिबोध की
सुबोधता के बारे में जरूरत से ज्यादा आशावादी हैं।' संपेषण की समस्या काव्य की अतिरिक्त कठिनाई हो जाती है। जब
कवि कहकर मुक्तिबोध को साधारण कवियों की कोटि में रखना एक बड़ी भूल होगी,
मगर यह कहना कि जन तो उन्हें पिय हैं,
लेकिन जन उनकी भाषा समझने में असमर्थ है और भी उचित होगा।
क्या उनकी कविताओं को री-साइकिलिंग, पुनर्पाठ के लिए, तैयार किया जा सकता है! ऐसा, इस तरह का संवदेनशील यंत्र चिर-पतिक्षित ही हो।
रूपवादी और प्रगतिवादी,
दोनों पक्षों के आलोचकों ने मध्य में मुक्तिबोध को एक काक
डराने की जनक बनाकर, आने
वाली पीढ़ियों को भयभीत बनाए रखा, उनकी रचनाओं को चर्चा में आने से रोकना मुख्य उद्देश्य था।
दोनों पक्षों के आलोचकों से, मुक्तिबोध का अर्जित ज्ञान अधिक था। दोनों पक्षों ने उनके
रचनात्मक और आलोचनात्मक संग्रहों में, स्वयं के बराबर, विशेष -सामग्री पाकर, वर्षों तक विवाद और विमर्श के लिए पर्याप्त समय पाप्त कर
लियाः इस तरह आगे की पीढ़ियों के लिए चर्चा का मंच उठा लिया गया। साम्राज्यवादी अप
संस्कृति के पचार-पचार और विज्ञापन के लिए बड़े पत्र-पत्रिकाओं ने अलग से मंच दिया
और वे कुछ दूर चलकर दम तोड़ दिए-भूखी पीढ़ी, श्मशानी पीढ़ी, युद्ध-युवा पीढ़ी की हवा अल्पकाल में ही निकल गयी। दोनों
पक्षों के आलोचकों की आलमारियां विदेशी आयातों से भरी पूरी और संपन्न थी-उन्होंने
मुक्तिबोध पसूत विषय सामग्री पर, विमर्श, लेख और पुस्तक लेखन और अपने ही कृतियों पर,
अधिक से अधिक चर्चा आरंभ कर दी। एकाएक सन 1964 में मुक्तिबोध का महत्व बढ़ गया, जैसा कि शमशेर ने इस क्षण की पहचान कर ली थी।
इस दौर में, मुक्तिबोध संदर्भ से बिम्बबाद, पतीकवाद, सपाटबयानी, नव-रोमांसवाद, नव-रहस्यवाद, पुराने-नये साहित्य के फर्प आदि की अच्छी-खासी व्याख्या,
विश्लेषण और भाष्य के अंबार लग गये। कुछ महीनों के लिए
उत्तर आधुनिकनता का ढोल बजता आया और जल्द ही बोल गया और अब साहित्यिक संगठनों की
सकियता भी जाती रही। पुरस्कार वापसी का एक जोरदार धमाका आया,
जिसमें साहित्य और कला के सभी लोग शामिल हो गये।
साहित्यकारों और कलाकारों की हत्याओं का, और फाजिस्म की युद्ध विरोधी कार्यवाहियों का खुला पतिरोध
हुआ और उनके साहस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जन समर्थित पशंसा हुई- और फिर एक
बार सन्नाटा और शून्यकाल व्याप्त हो गया।
अब यह जरूरत महसूस की जा रही है, आधुनिक साहित्य का फिर से मूल्यांकन और पुनर्पाठ,
और सभी विधाओं का विकास-संभावनाओं को बल पहुँचाया जाय- और
जो कुछ अर्जित हो उसे ‘मेरी' से बदल कर ‘हम' के सानिध्य में लाया जाए। जनमानस लोक भाषा में विशेष रूप से
साहित्य के उत्पाद को जनता के लिए संपेषणीय बनाया जाय।
तिलस्मी खोह और दर्रे से पैदा हुए, नए अवैज्ञानिक अवसरवाद को जो विवेक-बुद्धि विरोधी हैं,
उसे अपदस्त करते हुए आम आदमी, उसके श्रम की निर्माण-क्षमता, संघर्ष और जीवन की अदम्यता के जीवंत चित्र पस्तुत कर एक बार
फिर हम शोषित-पीड़ित आवाम की महिमा को स्थापित कर सकते हैं, ना कि कल की कूड़ेदान में फेंकी हुई परम अभिव्यक्ति और परम
ब्रह्म का विरद बखानते हुए निष्किय होकर समय गंवा देने का अपराध कर बैठे।
लाजिम नहीं कि खिज्र की हम
पैरवी करें
माना कि एक बुजुर्ग हमें,
हम-सफर मिले
(गालिब)
- नीलकान्त
इलाहाबाद
मो.: 09695237995
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