Wednesday 12 September 2018

कवि, कविता और मेरी बात


अगर जन्म लिया है तो चुनौतियाँ आनी ही हैं और उनसे निबटना भी लाजमी है। पर किसी ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध में कुछ लिखना और वह भी शब्द-विस्तार की सीमा-रेखा में, जिसे आप लगभग अद्योपाँत जानते हों, भी एक बड़ी चुनौती है; क्योंकि ज़्यादा जानकारी होने पर विचार गड्ड-मड्ड होने लगते हैं और लेखन सौष्ठव बिगड़ता है, पर वह चुनौती मुझे दी गई है जो स्वयम् न कवि है न लेखक अर्थात् सौंपे गए कार्य को अंजाम देने हेतु आवश्यक और पर्याप्त उपकरणों के अभाव में लगभग अक्षम। पर कोशिश तो की ही जानी चाहिए सो कोशिश कर रहा हूँ।
इस काव्य खण्ड के रचयिता श्री ब्रह्मानन्द दुबे जैविक रूप से मेरे पूज्य चाचा थे अर्थात् मेरे पूज्य पिताजी के छोटे भाई। जब वह हाई स्कूल की परीक्षा दे रहे थे उसी दौरान उनके पूज्य पिताजी अर्थात् मेरे पूज्य बाबा की अचानक मृत्यु हो गई। किसी तरह उनको परीक्षा देने हेतु भेजा गया। ज़ाहिर है ऐसे माहौल में परीक्षा किस मनो-स्थिति में दी होगी, पर फिर भी शेष पर्चे भी लिखे और उत्तीर्ण भी हुए, द्वितीय श्रेणी में- जो उस ज़माने के हिसाब से सम्मानपूर्ण था क्योंकि उस ज़माने में (चालीस के दशक में) प्रथम श्रेणी बँटती नहीं थी और कला क्षेत्र में तो बहुत ही प्रतिभाशाली की आती थी। यह उनकी अदम्य संकल्प शक्ति का पहिला प्रमाण था जो जीवन के आख़िरी पल तक उनके साथ रही, उन्हें ज़िद्दीका विशेषण दिलाने की सीमा तक और उसके बाद उन्होंने आगे पढ़ने से मना कर दिया और बावजूद मेरे पूज्य पिताजी, जो अब उनके लिए पिता तुल्य थे तथा अपनी परम पूज्या माँ के पूरा ज़ोर देकर समझाने पर भी नहीं माने। कालान्तर में उन्होंने पहिले उत्तर प्रदेश खाद्य विभाग और फिर रेलवे में सेवा की जहाँ से वे सेवानिवृत हुए।

सेवा प्रारम्भ करने के बाद अवसर आया विवाह का, जिसके लिए उन्होंने जो की तो उसे हाँ में कोई तब्दील न करा सका; वह पूज्य माँ भी, जिनके लिए उनके भाव थे: भोली भाली सरलता की त्यागमयी सौम्या मूर्ति जिनमें मुझे देवी माँ के साक्षात दर्शन होते थे...।“
देश भक्ति, सामाजिक चेतना, कलाओं के प्रति स्वभाविक रुझान के साथ स्वयम्-प्रगल्ब्ध्ता से बचने के पारम्परिक संस्कार पूरे परिवार में थे जिसकी एक बानगी उन्हीं के शब्दों में: मेरे ताऊजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे- 15 अगस्त को देश स्वाधीन हुआ- इस अवसर पर ताऊजी ने मुझसे भारत माँ का भित्ति चित्र बनवाया, उसकी पूजा-आरती करके प्रसाद वितरण करते हुए ख़ुशी के साथ बोले- आज मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ, भारत माता की जय।
स्पष्ट है देश के लिए त्याग किया गया था, पर कोई आडम्बर नहीं और बालक ब्रह्मानन्द में भित्ति चित्र बनाने की क्षमता थी। दिखावे से दूर रहने की प्रवृति ने नुक़सान बहुत किया और उनका चित्रित किया हुआ केवल एक चित्र धूल-धूसरित अवस्था में मुझे हस्तगत हो पाया। अपने बाल साथियों के साथ पहिले बाल विनोद पुस्तकालयकी स्थापना की और एक क्लब भी बनाया गया जिसका एक अभूतपूर्व नाम रखा गया: गोबर क्लब। गोबर क्लब के उद्देश्य, संस्थापकों के ही शब्दों में:-
गौरव ओज बालकों में
भरने को राष्ट्र प्रेम का भाव,
गोबर क्लब साकार हुआ है,
लेकर अपना एक स्वभाव।“
और फिर थोड़ा वय प्राप्त करने पर द वीणापाणि म्यूज़िक अकादमीकी स्थापना, जिसके माध्यम से कन्नौज नगरी में स्तरीय संगीत सम्मेलन आयोजित हुए, के बाद जब वे दिल्ली आए तो उनकी सांस्कृतिक, कलात्मक अभिरुचियों को विस्तार मिला जिसका सबसे बड़ा कारण और सहयोग रहा उनके अग्रज श्री कृष्णानन्द दुबे और उनकी संस्था, इण्डियन सेण्टर फ़ार कल्चरल इंटिग्रेशनका। पर अभी तक उनके कवि स्वरूप का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। लिखते थे: पर कविता नहीं, संस्मरण या हितोपदेश प्रकार के लेख जो स्वयम् में अनन्य प्रकार की अनुभूतियाँ समेटे हैं और शैली तथा दृष्टिकोण में अनूठी हैं (उनका प्रकाशन भी करने की योजना है)। पर मुझे याद पड़ता है कि धीरे-धीरे उनकी अन्य गतिविधियाँ धीमी पड़ती गयीं और कागज़ क़लम के प्रति उनका रुझान बढ़ता गया और इसी मध्य कविता ने जन्म लिया जो बढ़ते-बढ़ते आज चौदह जिल्दों में है जिसके कलेवर का अन्दाज़ इस तथ्य से लगा सकते हैं कि प्रस्तुत कविताएँ मात्र एक जिल्द की आधी हैं। उन्होंने लिखा और ख़ूब लिखा, सभी विषयों पर लिखा। न विषय पारम्परिक, न भाषा, न शैली साँचाबद्ध, पर समझने के लिए बहुत कुछ है और इसका जो विश्लेषण उनके परम प्रिय मित्र श्री हरिहर नाथ भट्टाचार्य ने किया उससे सही और बेहतर आँकलन उनके कृतित्व का नहीं हो सकता। श्री भट्टाचार्य जी ने लिखा था: श्रद्धेय ब्रह्मानन्द!
बर्षों के अध्ययन एवम् तर्क अनुभव से मैं जहाँ जिस बिन्दु पर पहुँचता हूँ- आपके निर्मल हृदय में वह ग्राह्य सत्य वर्षों पूर्व अनायास ही प्रतिबिम्बित हो चुका होता है।
उन्होंने स्वयं भी लिखा है:-
मात्राओं का नहीं हूँ ज्ञाता प्रबोधा,
पर भावनाओं को हूँ संजोता।
पर उनकी सर्जनात्मकता आगे चलकर कविता पर ही क्यों केन्द्रित हो गई? इसका उत्तर सीधे तो नहीं मिला पर मैं लगभग सही अनुमान लगा सकता हूँ।
प्रारम्भ में तो कारण रहा होगा, जैसा उन्होंने लिखा- साहित्यिकी लेखन क्रिया एक ऐसी ज्ञान-यज्ञ विधा है जिसमें विविध सामग्रियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। मात्र विनायकी- लेखनी, पत्र पृष्ठ व मातु सरस्वती उद्भूत उद्गारों की कृपा वांछित।
ध्यान दीजिए: सिर्फ़ लेखनी नहीं विनायकीलेखनी और जितना वह लिख गए उससे यही लगता है कि ऊनकी लेखनी पर गणेश कृपा ही थी जो इस गति से लिख पाए। ऐसे सैकड़ों प्रयोग उनकी शब्दावली में हैं। उस दिन प्रूफ़ रीडिंग करते समय आटे रोटी के लिए एक शब्द आया मधुकर’, अजीत और मैं दोनों चक्कर में पड़ गए: यहाँ मधुकर कैसे? याद आया साधु जब भिक्षा माँगते हैं तो उसे मधुकरीभी कहते हैं। तब समझ में आया कि आटा रोटी के लिए मधुकर कहाँ से आया। ऐसे कई प्रयोग उनके लेखन में हैं।  
परन्तु उनके कविता लेखन में समय के साथ एक कारण और जुड़ गया। ज़िद्दी तो वे थे ही यानी लिए गए निर्णय पर पुनर्विचार करने का कोई कारण उनकी समझ में आना लगभग असम्भव, उस पर तुर्रा यह कि स्पष्ट भाषी; यानी करेला और  नीम चढ़ा। फलस्वरूप उनके साथ उसी की निभ पाती थी जो या तो उन्हें समझे या स्नेह करे। तीसरा कारण, जो सामान्यतया होता है अर्थात् स्वार्थ सिद्धि, सो  स्वार्थी लोग उनको फूँटी आँख न भाते थे इसलिए मतलबी लोगों की दाल गल नहीं सकती थी। उन्होंने लिखा, जो स्वाभिमानी होगा, वह ईमानदार होगा, स्पष्टवादी होगा और संतोषी होगा। वो चाटुकारिता में विश्वास नहीं रखता।
ऐसे में परिचितों का दायरा संकीर्ण होते जाना स्वाभाविक था। दूसरे अपनी जन्म नगरी से अत्यधिक प्रेम होने के कारण उन्होंने दिल्ली में कोई ठिकाना नहीं बनाया और यही विचार रखा कि सेवानिवृत्ति पश्चात अपनी जन्म नगरी में ही रहेंगे। फलतः 65 वर्ष की आयु में वे दिल्ली छोड़कर कन्नौज आ गए- ऐसा निर्णय जिसको उन्होंने, आदत मुताबिक़, निभाया तो पर जो उन्हें आमरण टीस पहुँचाता रहा। ज़ाहिर है: जो कन्नौज वह छोड़कर गए थे वह अब नहीं रहा था, रहता भी नहीं और वह स्वयम् भी 45 साल से अधिक का समय महानगरीय संस्कृति में गुजारने के बाद कस्बायी संस्कृति के अभ्यस्त नहीं रहे थे। ऐसा नहीं कि वह इस नज़ाकत को समझते नहीं थे पर वह इसके साथ समझौता नहीं कर पाए क्योंकि समझौता करना उनके स्वभाव का अंग नहीं था। उनके संगी-साथी अब थे नहीं और अपने विचारों और सबसे बड़ी बात, अपनी उम्र के कारण जिस शिष्टाचार और सम्मान की अपेक्षा वह करते थे उसके लिए कन्नौज वासियों के पास समय नहीं था और समय इसलिए नहीं था क्योंकि स्वार्थ सिद्धि नहीं होनी थी। जहाँ भाव यह हों:
जिनमें नैतिकता होती
उनमें मानवता होती
आध्यात्मिकता उनमें प्रकटती
राष्ट्रीयता भी पनपती
वहाँ स्वार्थ का स्थान कहाँ ?
आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट करना समीचीन होगाऔर यदि यह स्पष्टीकरण न दिया जाए तो उनके कृतित्व के साथ अन्याय होगा कि उनका लेखन अकेलेपन की उपज नहीं है और न ही वह किसी के प्रति आक्रोश या अपनी पीड़ा का उदबोधक है। आक्रोश है तो नैतिक मूल्यों के ह्रास पर और पीड़ा है तो सामाजिक कृतघ्नताओं के प्रति, इसमें व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है। सही तो यह है कि अकेलेपन को उन्होंने सकारात्मक उपादान के रूप में इस्तेमाल कर लिया क्योंकि इसी से उनकी लेखनी विनायकी लेखनीबन पाई।
नैतिकता उनके लिए व अधिकतर परिवारीजनों के लिए, केवल आडंबर नहीं था। उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत लिया तो उसको पूरी निष्ठा के साथ निभाया और यह मैं पूरी सत्यता के साथ कह सकता हूँ इसलिए नहीं कि मैं उनका भातृज हूँ। भगवद भजन, संगीत और लेखन के अतिरिक्त उनके केवल एक ही व्यसन था: भोजन। परिणामस्वरूप पेट की छोटी-मोटी समस्याओं के अतिरिक्त वह स्वस्थ ही रहे। हाँ वह आजीवन एक किडनी पर ही गुज़ारा करते रहे क्योंकि उनकी एक किडनी जन्म से ही सूखी हुई थी और यदि उनको कभी अस्पताल ले जाना पड़ता था तो इसी कारण। पर वहाँ से भी डायलिसिस का अवलंबन लिए बिना वह लौट आते थे।
धीरे-धीरे कविता ही उनकी संगिनी बन गई। वे एक वाक्य अक्सर कहने लगे थे: चमत्कार को नमस्कार है। मैं प्रारम्भ से उनसे यह कहता रहा कि अपनी कविताओं को प्रकाशित करवाइए या मुझे अनुमति दीजिए और वह यही उत्तर देते मैं ज़रा और सुधार लूँ और सुधारने के साथ एक और कविता आ जाती। जब वह अन्तिम बार अस्पताल गए और उनको भान हो गया कि अब वह इस शरीर में अस्पताल से बाहर न आ पाएँगे तो वह बोले, जो मेरे लिए आदेश नहीं था, पर मैंने सुना, मैं जीना चाहता हूँ क्योंकि मैं अपनी कविताओं के माध्यम से समाज को कुछ देना चाहता हूँ। उन्होंने लिखा भी था:
नैतिकीय सामाजिक क्रान्ति भाव है
मन में,
क्षमतानुसार प्रकट होती वह लेखन में।
-    देवेन्द्र नाथ दुबे

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