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डॉ अजीत प्रियदर्शी
‘ईमानदारी के पस्त इकरारनामों का इकलौता वारिस
इस होटेल के नीचे सोया है वह खेत
जिसकी बंजर जेबों में ठुनकते
रोटी के टुकड़े को
जेबें चबाने वाले
कुछ अनजानी गंध वाले लोग
अपनी दाढ़ में दबा गए
हाल के बरसों में
खेतों ने जितनी आत्महत्याएँ की हैं
उससे पहले कभी नहीं हुईं
इसलिए
भिखारियों के कटोरों में जितनी वृद्धि हुई है
स्वागती दरवाजों में उतनी ही कमी।‘ (गड़सा-मनाली)
साठ वर्षीय हुकुम ठाकुर
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू शहर से बीस किलोमीटर दूर भोसा (दियार) गाँव में रहते हैं।
खेती-बाड़ी के काम में लगकर किसी तरह जीवन-यापन करते हुए वे ‘माटी’
की कविता रचते हैं; रचते
नहीं बल्कि कहते हैं। अपने किसान जीवन में और आसपास के जीवन में फैली भुखमरी, तपिश और कठोर श्रम से भरे जीवन-संघर्ष को उन्होंने पिछले लगभग चालीस वर्षों के
दौरान यदा-कदा कविताओं में उतारा। छपने-छपवाने और अपनी चर्चा की तीव्र लालसा भरे
शहरी लेखकों की दुनिया से हुकुम ठाकुर अपना वास्ता या सरोकार नहीं बना सके। जीवन
के थपेड़ों को झेलते हुए उनकी रचना यात्रा कई बार वर्षों तक थमी रही। अंततः जीवन
में पुनः राह निकल आई और कविताएँ पुर्नसंभवा हुईं। परन्तु कविताओं को छपवाने की
बजाय वे वर्षों तक उन्हें छिपाते रहे। लेकिन माटी और पसीने से तर-ब-तर किसान कवि
की कविताएँ बहुत दिनों तक हिन्दी के वृहत्तर पाठक सामज से ओझल नहीं रह सकीं। पिछले
आठ-दस वर्षों में उनकी कविताएँ हिन्दी की अनेक प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित
हुईं। तब उनकी कविताओं ने सजग पाठकों का तेजी से ध्यान आकृष्ट किया। कवि-मित्रों, साहित्यकारों के आग्रह को न टाल पाने के कारण, अन्ततः
चालीस वर्षों के दौरान लिखी गई चयनित पचहत्तर कविताओं का पहला संग्रह ‘ध्वनियों के मलबे से’ इसी साल (जनवरी, 2016) आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा) से प्रकाशित हुआ है।
हुकुम ठाकुर की कविताओं में
उनकी जनपक्षधरता स्पष्ट दिखाई देती है। इस संग्रह की पहली ही कविता ‘अस्पताल के फर्श पर....’ उन्हें सफाईकर्मी का चमकता
पसीना दिखाई देता है और वे उसे अस्पताल का ‘प्रथम
नागरिक’
घोषित करते हैं। ‘डफ-डंबर पुल के थुओं
के बीच’
कविता में जनकवि का ‘जनपद’ मौजूद है अपने दुख-दर्द, अभाव-सुभाव के साथ। ‘डफ-डंबर पुल’ के नीचे से गुजरती है एक नदी। यह नदी
वास्तविक नदी भी है और समय का प्रतीक भी है। नदी पर बना पुल यथार्थ भी है और इसका
खास प्रतीकार्थ भी है। ‘डफ’ लोक
का,
लोक उत्साह व उमंग की अभिव्यक्ति करने वाला लोक वाद्य है और
‘डंबर’
से सत्ता के घमंड व आडम्बर का प्रतीकार्थ ध्वनित होता है।
लोक शक्ति का क्रमशः अभिजन ‘सत्ता’ की तरफ बहाव निरन्तर जारी है। हुकुम ठाकुर को जनशक्ति (जंगल) पर अटूट विश्वास
है। वे देख पाते हैं कि पुल के नीचे बहती नदी में ”बह
गए हैं आगे कई जंगल/ बचा हुआ जंगल परन्तु खड़ा है अपनी जगह निःशब्द/ उसने मौत को
नकार दिया है/ वह कायम है/ मेलों में, जलसों में, गणतंत्र दिवस में“। यहाँ जंगल वास्तविक भी है और ‘जन समुदाय’
का प्रतीक भी है।
हुकुम ठाकुर की कविता
घर-गाँव-परिवेश के दुःख-सुख के अनेक ‘जीवन-प्रसंगों’ से भरी है। बाजारवाद की चपेट में बदलते गाँव, उपेक्षा-अभाव
व बेरोजगारी की चपेट में ढनकते गाँव, बाजार व शहर में
तब्दील होते गाँव की अनेक चोटिल बातें यहाँ मौजूद हैं। ‘गड़सा-मनाली’ गाँव पर कविता लिखते हुए कवि निहायत गैर-रोमैंटिक ढंग से तकलीफ़ भरी गाँव की
ज़िन्दगी से परिचय कराता है। उसके अनुसार ‘खाली
पेट पैदल चलती यात्रा को गाँव कहते हैं’। ‘गड़सा-मनाली’
कविता में वह अस्तित्व बचाने को संघर्षरत ‘पहाड़’
की तकलीफ़देह हकीकत से हमारा साक्षात्कार कराता है। ‘मेरे गाँव में....’ कविता में वे देखी-भोगी हकीकत
से हमारा साक्षात्कार कराते हैं कि ”कैसे बासी रोटी से/ भूख
का तिलिस्म/ तोड़ने की योजनाएँ बनाई जा रही हैं“।
‘हाथ जिनके नाम नहीं होते’ कविता में खुद अपने हाथों से काम करके पेट भरने वाला कर्मठ किसान कवि अपने लिए
मुकम्मल नाम की तलाश करते हुए खटने-कमाने वाले अलग-अलग लोगों के पास जाता है।
लेकिन उसे मुकम्मल नाम नहीं मिलता। लोककथा शैली में रचे गये इस कविता के अन्त में
यह दुःखदाई पहलू सामने आता है कि हाथों से काम करने वालों का कोई नाम नहीं होता।
वे अनाम रहकर जीते हैं, मगर सभ्यता-संस्कृति के
निर्माण में नींव बनते हैं। ‘पिट्ठू’ कविता में पिट्ठू बना पेड़ और बोझ ढ़ोते आदमी की पीठ है। यहाँ एक तरफ खत्म होते
जंगलों की तरफ मार्मिक इशारा है तो दूसरी ओर खटने वालों को अपने परिवार का पेट
भरने की चिंताएँ हैं: ‘आदमी ने पेड़ को काटकर पिट्ठू
बनाया/ जिसकी पीठ में चिपके/ देख सकते हैं आप कई-कई घरों के चेहरे’। गाँव के अभावग्रस्त माहौल में जीने के लिए रोज हाड़तोड़ मेहनत करते लोगों की
अभावग्रस्त ज़िन्दगी को कर्मठ कवि ने खुद निकट से देखा-भोगा है और बखूबी जान गया है
कि ‘यहाँ जीने के लिए रोज लड़ना पड़ता है’ (‘हरिघाट में दोशाले’ कविता में)।
‘सपना उर्फ फत्तू हज्जाम की
चटाई’
कविता में वे कहते हैं: ”मैं
पृथ्वी के ऐंठे तन को जतन से खोदता हूँ“। ‘गड़सा-मनाली’
कविता में हुकुम ठाकुर ने शहरों के चमक-दमक के लिए बलिदान
होते पहाड़ तथा होटलों के लिए बिकते खेत-खेती-किसानी के दर्दनाक मंज़र से हमारा
सामना कराया है और हमें प्रश्नाकुल व चिंतातुर कर दिया है। बागवानी व खेती-किसानी
से जूझ़ते कवि ने खुद अनुभव किया कि ‘बहुत-सी चूसनियों
द्वारा चूसे हुए/ किसान के पुतले की/ व्यापारियों में बहुत माँग थी’ (‘भोर का तारा’)। इस संग्रह की एक महत्त्वपूर्ण कविता ‘प्रकाश-सीमाओं से चलकर आया आदमी’ में कवि रेखांकित करता
है कि समय के साथ जीवन-संघर्ष में शामिल चीजें गायब होती चली जाती हैं। वक्त उन
चीजों का हिसाब नहीं रखता। अपने लम्बे जीवन-संघर्ष के बीच वह पाता है कि तथाकथित
विकास की अंधी दौड़ में हल-बैल पिछड़ गये और रोटी देने वाले अनेक खेत विकास के
पत्थरों द्वारा निगल लिए गये। मार्मिक दृश्यों-बिम्बों के मार्फ़त कवि ने गहरे
कचोट के साथ यह सवाल पूछा है कि- ‘डामर की घुटी हुई मजबूत सड़क/ और
फैक्टरी के पथरीले फर्श के नीचे/ आठ बूढ़े खुरों द्वारा चीन्ही गई इबारतें/ साथ ही
रोटी के खेत पर लिखे हुए दस्तावेज/ आगे जब शोध का विषय होगें विश्वविद्यालयों में/
तो पत्थर होते पिता के चेहरे/ अनसुने दुधमुंहे बालक के रुदन को/ ठंडे होते
सम्बन्धों के/ किस कुनबे का सदस्य माना जाएगा।’
‘तड़के भोर से रात तक’ कविता में वे पहाड़ के विकास के नाम पर उसके विनाश के भयानक अभियान की पोल-पट्टी
खोलते हैं: ‘वे तोड़ रहे हैं पहाड़/ थोप रहे हैं उन पर युद्ध/ काट रहे हैं उनकी मांसपेशियां/
और मोड़ रहे हैं पानी की बड़ी-सी धार का मुंह’। यह
सब भयानक इसलिए है कि ‘उनका दावा है/ वे यह सब पहाड़
के विकास के लिए कर रहे हैं’। वे भयावह व दर्दनाक मंज़र को
देखते हैं और पहाड़ों की चीखों को सुनते हैं और साफ कहते हैं: ‘मुझे पहाड़ों की चीख से लगता है/ जैसे उनकी आत्मा/ डेरा समेटने की जल्दी में है’। (पृ. 35-36),
लेकिन अफसोस के साथ कवि कहता है कि ”जैसे फटे जूते में कोई हिस्सेदारी नहीं करता वैसे ही बहुत-सी बातों को टाल
दिया जाता है’। ‘वह औंधे मुँह सोनेवाला’ कविता में वे बदहाल, फटेहाल किसान, मजदूर की ज़िन्दगी की भयावह हालत का
दर्दनाक मंज़र पेश करते हैं। उसकी ऐसी हालत के जिम्मेदार लोगों की तरफ उँगली उठाते
हुए तस्वीर साफ करते हैं कि- ”उसे हर भाँति पता है/ अगर काग
बांग देने लगेगा तो जूठन कौन चुगेगा/ परन्तु उसका मलाल है/ जूठन और उससे जुड़े
सरोकारों को/ हमेशा हाशिये पर धकेला गया“।
ज़िन्दगी में देखी-भोगी
तकलीफों से हुकुम ठाकुर की कविताएँ उपजती हैं। खेती-किसानी पर निर्भर आमजन की
तकलीफ़ों व भूखमरी की ज़िन्दगी की गवाह हैं उनकी कविताएँ। कबीर, निराला,
केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन,
शील की जनपक्षधर काव्य परम्परा में आते हैं हुकुम ठाकुर।
उन्हीं की तरह जीवन-संघर्ष में जूझते हुए वे ‘आँखों-देखी’ कविता रचते हैं, रचते नहीं बल्कि कहते हैं। उनका ‘देखना’
सक्रिय जीवन में खटते हुए देखना-सुनना-गुनना है। यह ‘देखना’
किसी ऊँचे घर की खिड़की से या पर्दे की आड़ से देखना नहीं है।
वे ‘डफ-डंबर पुल’ के थुओं के बीच खड़े होकर बहते जंगल देखते
हैं,
अस्पताल के फर्श पर गिरे सफाईकर्मी के पसीने को देखते हैं, चप्पल फटकारती आती ‘जरूरत’ को देखते-भोगते हैं, गाँव में थके-हारे व कठिन ‘बसन्त’
को देखते हैं, कामगार के खटते अनाम
हाथों को देखते महसूस करते हैं। उनकी अनेक कविताओं में ‘देखना’ क्रिया सकर्मक व सक्रिय रूप में मौजूद है। एक कविता का शीर्षक ही है- ‘मैं देख रहा हू’। मुक्त छन्द की इस कविता में बोलचाल की
सहज लय-तुक-टेक के साथ छह बंद हैं। प्रत्येक बंद की पहली पंक्ति में एक सचेत
क्रिया है। ‘मैं देख रहा हूँ’, ‘मैं सोच रहा हूँ’, ‘मैं
सुन रहा हूँ’,
‘मैं कह रहा हूँ’, ‘मैं पढ़ रहा हूँ’ और ‘मुझे समझाया जा रहा है’- इन सचेत क्रियाओं के मार्फ़त
कवि प्रतिरोध रचता है और लोगों को जागरूक करता है।
किसान कवि हुकुम ठाकुर का
जमीन से,
मिट्टी और उससे जुड़े रंगों-गंधों-छवियों से गहरा नाता है।
वह जमीन,
मिट्टी, खेत और खेतिहर की बेचैनियों
से गहरा वास्ता रखते हैं। अपने खेतों की ‘मिट्टी
की गंध’
को शहरों की मंडी व रसोइयों में भर देने वाले किसानों ने
ख्वाब देखा था कि बाजार व सरकार उनकी दयनीय हालत बदल देगें। मगर उन्हें कोरा
आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिलता: ”जब वे लौट रहे थे अपने गाँव/ उनकी
जेबों में खेतों के लिए/ कुछ उम्रदराज आश्वासनों के नमूने भर थे/ फटेहाली से
मुक्ति के लिए/ अभी तक न आजमाए हुए नुस्खे थे/ खादों की कीमतों की संशोधित सूचियाँ
थीं“। उनकी ‘चिट्ठी’
कविता पुरानी चाल की लिखी जाने वाली चिट्ठी की शैली में
लिखी गई है। बदहाल किसान का छोटा-सा बच्चा शहर जाकर एक होटल पर जूठे बर्तन साफ
करता है। वहाँ से अपने पिता को मार्मिक चिट्ठी लिखते हुए वह विस्थापन व अलगाव के
दुःखों को बयान करने के साथ-साथ अच्छी खेती के सपने देखता है जिससे वह घर वापस आ
सकेगा: ”बापू! जब मैं बड़ा होऊँगा/ तो मैं मरे हुए बादल को जिंदा करूँगा/ जिंदा बादल
हमारे खेत पर खूब बरसेगा/ बादल बरसेगा तो फसलें अच्छी होंगी/ फसलें अच्छी होंगी/ तो
मैं बर्तन मलना छोड़कर घर लौट आऊँगा।“ कविता की इन आखिरी
पंक्तियों को पढ़कर एक हूँक सी उठती है और बदहाल होती खेती के ‘अच्छे दिन कब लौटेंगे’ यह सवाल परेशान कर देता है।
हुकुम ठाकुर की कविता में ‘भूख’
स्थायी भाव की तरह मौजूद है। उनकी ईमानदार संवेदना ने ‘भूख’
और ‘भूखे व्यक्ति’ को बार-बार उकेरा है। ‘भूख’ की
तकलीफ और रोटी की कीमत कवि को बखूबी पता है। अपने जीवन में और गाँव के लोगों के
जीवन में वे बार-बार अनुभव करते हैं कि जैसे-तैसे इकट्ठी ”बासी
रोटी से/ भूख का तिलिस्म/ तोड़ने की योजनाएँ बनायी जा रही हैं“। ‘आधा पेट का भागमल’ कविता में भूख, भूखे
कारीगर व किसान के स्वानुभूत चित्र हैं। ‘वह
औंधे मुँह सोने वाला’ कविता बदहाल भूखे मजदूर-किसान के बारे में
है। ‘बीच बहस में’ कविता भूख से दम तोड़ते पशु और इन्सान के
बारे में है। बर्फ ने पहाड़ को धोकर सफेद कर दिया है तब वन बकरियाँ भूख से बेहाल
होकर ‘नीचे उतर आईं बस्ती के निकट/ बस्ती के निकट चारा है, कुत्ते
हैं,
शिकारी हैं/ भूख को क्या पता’।
इसी कविता में,
जबकि रास्ते बर्फ की मोटी परत के नीचे दबे हैं, घराटी दम्पति के घर में दाना नहीं है। वे पिसान पहुँचाने वाले के इन्तजार में
कई दिनों से भूखे हैं। ‘ब्लैकहोल कभी नेग नहीं लेता’ कविता भूखे व्यक्तियों की बातचीत के टुकड़ों से रची गई है। कवि सुनता-गुनता और
रचता है कि ”लोकल बस में बातों का सबसे रोचक विषय/ भूख का गणित होता है/ जो रोटी से शरू
होकर रोटी पर रुकता है/ सब्जी मंडी के पल्लेदारों का भूगोल कुछ निराला है/ उनका
कहना है-/ रोटी की कीमत किसान का पसीना/ असमर्थ की लार-ग्रंथियाँ ज्यादा जानते हैं“। ‘स्वांगी’
कविता में मेहनतकश किन्तु अभावग्रस्त व्यक्ति का भयावह
बिम्ब यों खींचा गया है:”यह वही है/ जो जब हँसता है तो
उसके मुँह से भूख झड़ती है/ जब वह रोता है तो उसके हाथ से रोटी फिसलती है“। ‘आज’
कविता में गरीब किसान के पेट में रोटी देने वाले खेत के
छिनने का मार्मिक चित्र है। ‘मूस की कचहरी में’ कविता में कवि राँची स्टेशन पर लाठी से मूस का शिकार करते बालक को देखता है और
उसके जीवन में पैठे ‘भूख’ को
गहराई से महसूस कर पाता है। ‘किताबों का सोना’ कविता में हुकुम ठाकुर भोलू फुहाल के गाँव आगमन का सुखद समाचार पाते हैं लेकिन
उसके बारे में बात करते हुए उसके भूख के बारे में बात करने लगते हैं: ‘उसमें बस एक ही कमी है/ कथा कहते-कहते वह भूख का स्वाद बताने लगता है/ वह कहता
है-/ कैसे भूख छज्जे पर बैठी मुस्तैद पहरा देती है/ जब आदमी सो रहा होता है/ कैसे
रोटी के चंदोबे के नीचे भूख जश्न मनाती है’।
किसान कवि हुकुम ठाकुर अपनी
एक कविता का शीर्षक ही रखता है: ‘आओ मिट्टी-मिट्टी खेलें’। इस कविता की पहली ही पंक्ति में वह साफ कहता है: ‘हमें
आँतों से सोचना होता है’। यह भूखे किसान का मर्सिया
है कि वह भूखे पेट से ही सोच पाता है और भूख उसके लिए सबसे बड़ा प्रश्न बनकर आज भी
खड़ा है। एक चिंतनीय सवाल यह है कि दूसरों की भूख मिटाने वाला किसान क्यों खुद भूखा
है। इस सवाल का जवाब देना सरकारों को कभी जरूरी नहीं लगा। ‘भूमिहीन’
मजदूरों के ‘भूख’ के
शिकार पर निकलने वाले लोग भी बहुतेरे हैं। गाँव में गीतों के बोल चुप हो गये
क्योंकि भयावह अकाल ने बरसों तक गाँवों में डेरा डाल रखा है। ‘चिरानी’
कविता में कवि ने कचोट व तकलीफ के साथ लिखा है: ‘भूख के साथ खूंखार हो चुके युद्ध में/ कुछ जरूरी काम ऐसे जुड़ गए/ कि बस ऐसे ही
एक दिन/ गीतों के बोल चुप हो गये/....चूल्हे की राख में दबी आग की बातें’। हुकुम ठाकुर के देखे-भोगे जीवन में ‘भूख’ स्थायी भाव की तरह मौजूद है। आम जनता के जीवन से गहरे जुड़े हुकुम की कविता में
भूख रंग-रेशे की तरह मौजूद है।
आम आदमी के जीवन में भूख, विस्थापन,
बेकारी को गहरी चिंता के साथ उठाने वाला कवि तथाकथित सरकारी
विकास को प्रश्नांकित कर देता है और इस क्रम में प्रतिपक्ष, प्रतिरोध की जमीन तैयार कर देता है। उनकी कविताओं में चतुर्दिक छाये अँधेरों
से हमारा सामना होता है लेकिन रौशनी की उम्मीद भरी डोर टूटी नहीं है। जीवन के
अँधेरों के खिलाफ़ ‘भोर का तारा’ आस-दिलास
देता ही रहता है। शहर से पिता को चिट्ठी लिखते हुए छोटा बच्चा (बाल श्रमिक) अच्छी
बारिस व अच्छी फसल की उम्मीद के साथ गाँव लौटने की उम्मीद करता है। ‘गडरिया और कनाउर’ कविता में खस्ताहाल- ज़िन्दगी के कठिन
संघर्षों के बीच कवि निराश नहीं होता; क्योंकि: ”इस मारामारी के बीच/सांस लेने के लिए हवा अभी बाकी है“।
इसलिए वह नाउम्मीदी से भरे माहौल में भी एक उम्मीद भरी कविता लिखना चाहता है।
क्योंकि उसके शब्दों में- ”यह सच है/ उम्मीद की जरूरत
अभी बाकी है“।
हुकुम ठाकुर की कविता पिछले
बीस वर्षों की हिन्दी कविता के परिदृश्य को बिल्कुल बदल देती है। यहाँ फैशनेबल, शहराती कविता के विपरीत हाहाकार रचती, किन्तु
सपने देखती,
उम्मीद का दामन थामें कविता से हमारा परिचय होता है। यहाँ
जन और जनपद अपने भूख-दुःख, सपने और उम्मीद के साथ
ईमानदार और सच्ची संवदेना के साथ मौजूद है। यहाँ अनुभव, चित्र, चरित्र और बिम्ब झकझोकते हैं क्योंकि इनके मूल में सच्ची बेचैनी और तड़प है।
लोककथा शैली,
लोक के मुहावरों व कहावतों, स्थानीय
हिमांचली बोली-बानी के शब्दों, स्थानीय जगहों के नामों से इस
संग्रह की कविताएँ अत्यन्त समृद्ध हैं। चालीस साल के लम्बे समय में लिखी गई
कविताओं में से चुनी हुई इन पचहत्तर कविताओं में बदलते दौर की जख्म, स्मृतिचिह्न और उदास कर देने वाले अनेक प्रसंग हैं। कुछ कविताओं में खेती, बैलों का उल्लेख उस बीते समय की याद दिला जाता है जब बिना बैल की खेती सम्भव
नहीं थी। ‘काहिका’
शीर्षक एकमात्र लम्बी कविता में राजसत्ता के ‘नरमेघ यज्ञ’
का दारूण वर्णन है और लोकरुचि में आज भी उसकी भयावह स्मृति
का उत्सवी अंकन है। इस संग्रह की सभी कविताएँ जीवन अनुभवों से समृद्ध हैं और
बेहतरीन कविताई का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। हुकुम ठाकुर जैसे परिपक्व कवि का यह
पहला संग्रह नयी सदी की हिन्दी कविता का महत्त्वपूर्ण संग्रह कहा जा सकता है।
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