Monday 24 February 2020

सोचता हूँ कि दुनिया ये बदल जाएगी : बृजेश नीरज

जन-जीवन जिन अपेक्षाओं की बाट जोहते हुए अपनी दिनचर्या को अंतिम स्थिति तक ले जाता है, कवि उन्हीं अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए शाब्दिक-संघर्ष करता है। यह संघर्ष ही गीत-नवगीत विधा के प्राणतत्व हैं। जिस तरह कवि सम्वेदनाओं के खुरदरे यथार्थ पर चलते हुए नवगीत के व्याकरण को साधने में संघर्षरत रहता है उसी तरह उसका लोक जीवन-जरूरतों के व्याकरण को सुलझाने में संघर्ष करता रहता है। यहाँ रचनाकार अपने कर्तव्य पथ पर समर्पित होता है, वह सृजन करता है तो करता जाता है। समय की जरूरतों और समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति का भार उस पर होता है, यह अपनी तरह का एक सच है। बृजेश नीरज इस सच के साथ हैं यह उनके गीतों/ नवगीतों में शिद्दत से स्पष्ट होता है|  
सृजन और सौन्दर्य का आनंद या तो पाठक उठाता है या फिर गाँव-गंवई परिवेश को देखने वाला। गाँवों में रहने वाला गंवई सौन्दर्य से अनभिज्ञ होता है इसलिए उसकी दृष्टि में शहर और महानगर स्वर्ग के समान होते हैं। गाँव की रीति-नीति से लेकर ढाँचे तक का निर्माण एक ग्रामीण करता है लेकिन सुख का वह आनन्द वह नहीं उठा पाता है जो गाँव से निकलकर बाहर रहने वाला व्यक्तित्व उठाता है। निर्माण में वह आनन्द नहीं है जो आनन्द निर्मित किये गए वस्तु या परिवेश को देखते रहने में है। गीत और गाँव, ये दोनों इसीलिए लोगों के आकर्षण के केन्द्र-बिन्दु होते हैं क्योंकि यहाँ अभाव का एक पूरा कोलाज होता है, जिसे पूर्ण करने का साहस अपनी सम्पूर्ण उत्सवधर्मिता के साथ सक्रिय दिखाई देता है।
बृजेश नीरज छान्दसिक विधा के कुशल हस्ताक्षर हैं बावजूद इसके वह युवा नवगीतकारों में स्वयं को उतना सक्रिय नहीं रख पाए जितना कि रखना चाहिए था। यह उनकी व्यक्तिगत व्यस्तता हो सकती है, रचनात्मक हो इसमें शक है। बावजूद इसके गीत की जिस स्थिति को आज के अधिकांश कवि पारम्परिक जमीन पर खड़े होकर देख रहे हैं उसी स्थिति को बृजेश नीरज समकालीनता की जमीन पर खड़े होकर अभिव्यक्त कर रहे हैं। क्रूर से क्रूरतम होते जा रहे समय में उन्हें पता है कि “मुँह बाए से उत्तर हैं सब/ प्रश्नों के चौराहे पर/ सम्वेगों की भूमि हो रही/ क्षण-क्षण पल-पल अब ऊसर।” ऊसर हो रही संवेगों की भूमि को उर्वर रखने की प्रतिबद्धता लिए कवि अवतरित तो होता है अपने पूरे दमखम के साथ लेकिन यह भी देखता है कि “संकुचन यूँ मानसिक/ औ भाव ऐसे/ नीम गमलों में सिमटकर रह गयी है/ भित्तियों की इन दरारों के अलावा/ ठौर पीपल को/ कहाँ अब रह गयी है.../ बरगदों के बोनसाई/ हैं विवश से/ धूप में/ हर देह अब तपने लगी है।” पीपलों और बरगदों का परिवेश से अपदस्थ किया जाना महज पर्यावरणीय चिंता को अभिव्यक्त करना नहीं है अपितु उन व्यावहारिक मान्यताओं की तरफ संकेत करना भी है जिनसे हमारी पीढ़ी नदारद होती जा रही है। जहाँ बड़े पेड़ों को काटकर गमलों को सजाने की प्रथा इधर तेजी से विकसित हुई है वहीं संयुक्त परिवार को अपदस्थ कर गमलों के आकार में ‘परिवार’ को सीमित दायरे में देखने का प्रचलन भी बढ़ा है। जितना सच है यह कि धूप, अकाल और झंझावातों से बचने में गमले हमारी सहायता नहीं कर सकते उतना ही सच यह भी है कि ‘मियां-बीबी’ में सिमटता परिवार मानसिक और सामाजिक दृष्टि से हमें मजबूत नहीं रख सकते।          
बृजेश सोच से लेकर समझ तक विस्तार चाहते हैं इसलिए इनके गीतों में वह भावुकता, रोना-धोना नहीं है जो हमें और हमारी सम्वेदना को एक सीमित दायरे में कैद करके रख देती है। वह गंवई परिवेश के चूल्हे से महानगरीय राजनीतिक षड़यंत्रों तक निर्भीकता से भ्रमण करते हैं और समय की सच्चाई को सबके सामने रखते हैं। वे देखते हैं कि “मासूमों को पता नहीं है” कि उनके परिवेश में “सूख गयी आशा की खेती/ घर-आँगन अँधियारा बोती/ छप्पर से भी फूस झर रहा/ द्वार खड़ी कुतिया है रोती।” ‘आशा की खेती’ का सूखना और ‘कुतिया का रोना’ दोनों स्थिति किसी भयावह परिदृश्य की तरफ इशारा कर रही हैं। हम इन इशारों को समझने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं। हमारी अक्षमता पर कवि की यह चिन्ता कि “अब बवंडर रेत के उठने लगे हैं/ आँख में मरीचिका/ फिर भी पली है/ पाँव धँसते हैं/ दरकती हैं जमीनें/ आस हर अब/ ठूँठ सी होती खड़ी है” उन समस्याओं की तरफ एकाग्र होने के लिए सचेत करती है लेकिन हम इतने आत्ममुग्ध और वैयक्तिक हो चुके हैं कि “दृश्य से ओझल हुए हैं/ रंग सारे” जिसमें अपना हित छिपा है वह तो दिखाई दे रहा है शेष सभी स्थितियाँ नदारद हैं।   
बृजेश चुप होकर देखने और परिवर्तन के क्षण में सब कुछ अच्छा हो रहा है, यह कहने और सुनने का भी हिमायती कवि नहीं हैं। इनके यहाँ अभाव है, छटपटाहट है, विचलन है, पीड़ा है और इन सबके साथ जो ‘प्रश्न खड़े थे बाँह पसारे’ उन्हें ‘विह्वल मन के सूखेपन में’ रखकर देखने-दिखाने की प्रतिबद्धता है, जो हमें दो कदम आगे बढ़कर उत्तरदायित्व सम्भालने के लिए प्रेरित करता है। प्रेरित इसलिए भी करता है क्योंकि कवि की चिन्ता में राजा नहीं है और न ही तो राजा को खुश करने वाले उन संसाधनों की चिन्ता है, जिसकी व्यवस्था में लोग स्वयं को व्यस्त और मस्त रखते हैं। कवि की चिन्ता में वह निरीह प्राणी है जो राजा के शौक और उसकी जरूरतों के बीच निरपराध होता जा रहा है जिसकी पीड़ा और वेदना को न तो समाज समझ रहा है और न ही तो राज-व्यवस्था। इस एक गीत को पढ़ने के बाद एक पाठक की जो ज़िम्मेदारी बनती है या जो मूल चिन्ता निकलकर हमारे सामने आती है वही बृजेश नीरज के गीतों का सार और उद्देश्य है, यथा - 
मछली/ सोच-विचार कर रही/ आखिर/ आँख बचाऊँ कैसे
राज सभा के बीच/ फँसी अब/ नियति चक्र के बीच टँगी है 
दुर्योधन के/ हाथ तीर हैं/ नोक तीर की/ जहर पगी है 
पार्थ निहत्था/ खड़ा है चिंतित/ राज-सभा में जाऊँ कैसे 
चौसर की/ यूँ बिछी बिसातें/ खाना खाना/ कुटिल दाँव है
दुशासन की/ खिली हैं बाँछें/ ठगा हुआ हर लोक/ गाँव है 
वासुदेव भी/ सोच रहे हैं/ आखिर/ पीर मिटाऊँ कैसे।”  
यहाँ जितनी भी असमंजसताएँ हैं मछली की आँख को, यूँ कहें कि उसके जीवन को लेकर वही असमंजसताएँ एक रचनाकार के साथ-साथ हम सबकी विवशताएँ हैं। इनसे पार पाने का तरीका हमें विकसित करना होगा कि कम से कम किसी के शौक और शासन के मद में निरपराध को अपने प्राण न गंवाना पड़े। बृजेश के अन्दर बैठा कवि निःसंदेह हमें एक ज़िम्मेदार भूमिका के रूप में देखने के लिए विवश करता है। यह भी सच है कि कवि की विवशता जिस दिन आम आदमी की विवशता हो जाए उसी दिन सही अर्थों में सामाजिकता की भावना सम्पूर्ण होती है। 
- अनिल पाण्डेय

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