Wednesday, 22 October 2025

कठिन समय की अभिव्यक्ति है व्यंग्य!

     मैं क्यों लिखता हूँ, यह एकदिनी चिंतन नहीं होना चाहिए। हम जब भी लिखने बैठते हैं, पहले विचार करते हैं कि इस विषय पर लिखना ज़रूरी है भी कि नहीं? उस विषय पर कभी पहले हम जो पढ़ या लिख चुके हैं, उससे इतर कुछ कह पाएँगे? इसका उत्तर मिलते ही विषय अपनी विधा का चयन कर लेता है। इस तरह हम सहजता और अधिकतम रूप से ख़ुद को अभिव्यक्त कर पाते हैं। हमारी बात भी बेहतर ढंग से सम्प्रेषित हो पाती है। विषय चुन लेने के पश्चात थोड़ा समय विचार-मंथन के लिए होता है। तत्पश्चात हम लिखने को तैयार होते हैं।

    कविता या कहानी आपकी अभिव्यक्ति हो सकती है या किसी घटना और विषय की कमेंट्री भी पर व्यंग्य को लेकर मेरा मानना है कि यह महज़ अभिव्यक्ति या बयान भर नहीं है। यह विसंगति, अत्याचार अन्याय पर भरपूर प्रहार करता है। इससे यह खामख्याली नहीं होनी चाहिए कि आपकी व्यंग्य-मिसाइल से सम्पूर्ण लक्ष्य-भेद हो जाएगा। ऐसा होता तो परसाई और जोशी पहले ही इस कालजयी कर्म को कर डालते। पर हाँ, इससे विसंगति एकदम स्वेच्छाचारी नहीं हो पाती और ही इसे औपचारिक मान्यता मिलती है। व्यंग्यकार का काम हर कमज़ोर की आवाज़ बनना है, बिना इस बात की चिंता किए बग़ैर कि इससे उसके राजनीतिक साहित्यिक हित प्रभावित होंगे।

    एक सामान्य लेखक समाज का प्रतिनिधि होता है। व्यंग्य लेखन तो लेखन का उच्चतम मानक होता है। वह समाज, राजनीति और साहित्य सबको दिशा देता है, प्रेरित करता है। इस नाते व्यंग्यकार अन्य लेखकों के लिए आदर्श होता है। उसकी सबसे बड़ी चारित्रिक, नैतिक ज़िम्मेदारी स्वतः बन जाती है कि वह अपने लेखन से इतर आचरण करे। व्यंग्यकार ही यदि अमर्यादित और अनैतिक कर्म करने लग जाएगा तो फिर कुछ नहीं बचता। उसका अच्छा लेखन भी निष्प्रभावी हो जाता है। लिखने के साथ-साथ यह बात भी याद रखनी चाहिए। हम लिखने के समय कभी यह नहीं सोचते कि हमारे लेखन से क्रांति हो जाएगी तो क्या फिर हम रज़ाई ओढ़कर सोते रहें? नहीं, कम से कम व्यंग्यकार तो हर वक़्त मुस्तैद रहता है। सुविधाजनक सवाल तो सब कर लेते हैं, पर यदि एक व्यंग्यकार सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की आँख की किरकिरी नहीं बनता तो फिर उस पर सवाल उठते हैं। हम जब भी लिखते हैं, यह सोचकर नहीं लिखते कि यह पाठकों को पसंद आएगा या नहीं। हम इसे अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं। मेरी नज़र में व्यंग्य लेखन कठिन समय की अभिव्यक्ति है। जब हम क्षोभ या ग़ुस्से से तड़पते हैं तो व्यंग्य का जन्म होता है।

    बाक़ी अंततः पाठक ही तय करेगा कि यह मिथ्यालाप है, सरकारी-जाप है या प्रलाप?

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संतोष त्रिवेदी

जे 3/78 , पहली मंज़िल,

खिड़की एक्सटेंशन, मालवीय नगर

नई दिल्ली-110017

9818010808

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