Thursday 7 November 2019

उम्मीद बंधाती पत्रिकाएँ

लोक विमर्श और बिम्ब प्रतिबिम्ब दोनो पत्रिकाएं पढ़ी। दोनों में मेरा रचनात्मक सहयोग रहा। संपादकों ने कहा था कि पढ़ कर अपनी राय जरूर दूँ। अब कठिनाई यहीं से शुरू होती है। अपना लिखा छपने के बाद पत्रिका के उसी अंक पर पाठकीय टिप्पणी देना सख्त वहशत का काम है।वैसे भी मैं कोई विद्वान व्यक्ति नहीं हूँ। पर लघु पत्रिकाओं की सामाजिक भूमिका और दायित्व पर कुछ विचार मेरे भी हैं जिनको पाठकीय प्रतिक्रिया की तरह दर्ज कर रहा हूँ।
                      भूमंडलीकरण और भौतिकवाद ने विचारहीन क्षद्म बौद्धिकता (मीडियाकर) को साहित्य पर काबिज कराते हुए इसका बाजारीकरण किया तथा वैश्वीकरण से आती एकरूपता और एकरसता ने भूमंडलीकरण से उत्पन्न स्थितियों में अपनी जगह बना ली और हिन्दी साहित्य के लिए खतरा बन गए। युगों से साहित्य मनुष्य के मन की उत्पत्ति रही है।आज समय की गति के अनुसार अलग अलग प्रांतों में साहित्य का अलग अलग ढांचा निर्मित तो हो रहा है लेकिन दिनोंदिन हिन्दी साहित्य दरिद्र होता जा रहा है। जितना धन आज साहित्य की नसों में दौड़ रहा है पहले कभी नहीं दौड़ा। चीजों का लेन देन करने वाला समाज कभी संपन्न नहीं हुआ है। दनादन उपद्रव मचा हुआ है। सूचना क्रांति के दौर में अदृश्य कर दिए गए सच को सामने लाना आज की साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
              दरअसल अस्वीकार, सुधार ,परिवर्तन और विस्तार की परिक्रियाएँ हमेशा गतिशील रहतीं हैं और ऐसे में पाठकीय अपेक्षाओं को समकालीनता की चुनौती की तरह संपादकों को लेना पड़ेगा। एक सच यह भी है कि दुनिया में कुछ भी सोलह आना नहीं होता। तब ये है कि एक परिवर्तन अपने साथ सैकड़ों परिवर्तन ले कर आता है। किसी भी अच्छी पत्रिका का संपादकीय बेहद महत्वपूर्ण होता है। इससे पत्रिका की तत्कालीन भूमिका स्पष्ट रहती है। दूसरी बात कि संपादक को यह भी तय करना पड़ेगा कि वह पुरानी परंपरा के साथ आगे बढ़ना चाहता है या उसका विस्तार चाहता है या फिर नई सामाजिक चुनौतियों को सामने लाना चाहता है। इस संदर्भ में समाज,देश और संस्कृति के प्रति पत्रिका नियोजित तरीके से रचनात्मक सामाग्री जुटाएगी या फिर दोयम दर्जे के अप्रासंगिक हो चुके विमर्श ( व्याख्यानों में जिन विमर्शों को उठाया जाता रहा है उनका किसी भी रूप में लेखकीय मानसिकता के साथ तादात्म्य नहीं बैठता) को ही घसीटना जारी रखेगी। गौरतलब है कि रचनाएं और उनकी भाषा सिर्फ कथ्य का वाहक भर नहीं हैं बल्कि उनका सामाजिक दायित्व भी होता है। तो पत्रिका में छपने वाली रचनाओं से मेरे जैसे पाठक की अपेक्षा होती है कि वो लिखे गये सम्पादकीय को संतुष्ट करें। भावनात्मक प्रतिबद्धता और संवेदनात्मक मूल्यों -आदर्शों के अलावा भी बहुत सारे अन्य जरूरी पक्ष होते हैं जो दिमागी हलचल के साथ पत्रिका को एकरसता से बचाते हैं। 
              उमाशंकर सिंह परमार को शानदार दस्तख़त के लिए बधाई और उम्मीद कि लेखकों के चुनाव में दुहराव से बचते हुए नए लेखकों को मौका देते रहेंगे।
 अनिल पाण्डेय को सृजनात्मक पहल के लिए शुभकामनाएं। रेखाचित्र -संस्मरण बिम्ब प्रतिबिम्ब का एक कमजोर पहलू है उम्मीद है अगले अंक में और निखार आएगा।
- सिद्धार्थ वल्लभ 

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