Thursday 7 November 2019

चिट्ठी आई है

बिंब प्रतिबिंब पत्रिका का प्रथम अंक 15-20 दिन पहले ही प्राप्त हो गया था परंतु नौकरी और कुछ निजी व्यस्तताओं के चलते पढ़ नहीं पाया था। अभी दो- तीन दिन में पत्रिका को पूरा पढ़ पाया हूँ।
किसी पत्रिका का प्रथम अंक का संपादन अपने आप में एक चुनौती होती है, लेकिन इस चुनौती को संपादक (अनिल कुमार पाण्डेय) ने पूरी तरह स्वीकार करके पाठकों को एक बेहतर विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका प्रदान की है। पत्रिका का संपादकीय  एक विशेष महत्व रखता है। बिंब प्रतिबिंब के संपादकीय में विभिन्न संवेदनशील पहलुओं पर विचार किया गया है। 
भरत प्रसाद के आलेख 'आलोचना के नामवर : नामवर की आलोचना' को पढ़ने के बाद विदित होता है कि एक विख्यात शीर्षस्थ आलोचक साहित्य की राजनीति में आने के बाद किस तरह अपने कद से नीचे गिर जाता है। इसके साथ नामवर की आलोचना का विश्लेषण भी किया गया है। किसी विख्यात आलोचक के बारे में ईमानदारी के साथ ऐसा लिखना सब के बस की बात नहीं हैं, भरत प्रसाद का ये साहस बेहद सराहनीय है। चंदन सिंह ऋषि ने अपने आलेख में कथेतर सहित्य की विकास यात्रा को अच्छे से समझाया है। सिद्धार्थ वल्लभ का लेख 'इस मिट्टी में पली-बढ़ी उर्दू' उर्दू की विकासयात्रा को प्रस्तुत करता है। नंदल हितैषी के लेख द्वारा इलाहाबादी लोकनाट्य संस्कृति परम्परा के बारे में जानकारी  मिलती है।
युवा आलोचक उमाशंकर परमार का अनिल कुमार पाण्डेय द्वारा लिया गया इंटरव्यू  विशिष्ट है। जिसमें आलोचक ने साहित्य की राजनीति और केन्द्रिकता पर प्रहार किया है। युवा किसे कहा जाए इसका उत्तर भी काफी रोचक एवं विचारणीय है। इस इंटरव्यू में साहित्य की केन्द्रिकता, पुरस्कार माफिया, पत्र-पत्रिकाओं की राजनीति और लेखकीय ईमानदारी आदि विभिन्न पहलुओं पर आलोचक द्वारा सार्थक और संतुष्टिपरक उत्तर दिए गए हैं।
इसी प्रकार ऊषा रानी राव द्वारा कवि, आलोचक विजय कुमार के इंटरव्यू में भी विभिन्न पहलू निकलकर सामने आए हैं।
रूपसिंह चंदेल ने 'बाबू प्रताप नारायण श्रीवास्तव' की जीवनी प्रस्तुत की एवं उनके द्वारा की गई बहुमूल्य साहित्य सेवा को उचित सम्मान न मिल पाने के लिए खेद भी प्रकट किया। जो बिल्कुल उचित है। विजय कुमार गुप्त के संस्मरण द्वारा उनकी पढ़ाई के प्रारंभिक दौर के संघर्षों परिलक्षित होते हैं। यह संस्मरण पढ़कर मुझे भी अपने कॉलेज के दिन आ गए, जहाँ लड़को- लड़कियों के प्रेम-प्रसंगों को लेकर विनोदपूर्ण चुहलबाजियाँ हुआ करती थीं। 
प्रभात मिलिंद के संस्मरण 'कौन छूटा कहाँ -कहाँ' में स्कूल के दिनों के साथ-साथ दोस्ती में हिंदू-मुस्लिम मधुरता का भी चित्र दिखाई देता है। आरती तिवारी के संस्मरण बचपन की यादें' में अपनी अमूल्य संस्कृति विविधता के दर्शन होते हैं।
श्रीप्रकाश शुक्ल के यात्रावृत्तांत 'कुलधरा के खंडहर' ने बहुत प्रभावित किया। लेखक ने जैसलमेर व कुलधरा का इतिहास भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यह यात्रावृत्तांत पढ़ने में जितना रोचक  हैं, उतना ही इसका कुलधरा प्रसंग हृदयविदारक है। सजीवता के साथ प्रस्तुतीकरण के कारण कई बार हम लेखक के पास ही स्वयं को खड़ा महसूस करते हैं। 
गीता पंडित व मालिनी गौतम की डायरी विधा भी काफी अच्छी लगीं। वंदना देव शुक्ल की एकांकी/लघुनाटक 'ये सच नहीं' शिल्प, भाव एवं मंचीय सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट है। परिचयदास का निबंध 'साहित्य संस्कृति पर समकालीन विचार' भी सार्थक हुआ।
श्यामसुन्दर दुबे ने आत्मकथात्मक लेख के माध्यम से अपनी वंशावली प्रस्तुत की है और अपने पितामह के जीवन संघर्ष को भी इंगित किया है।
कवि विशेष के लिए दोनों कवियों का चुनाव बहुत सही है। गणेश पाण्डेय की सातो कविताओं में साहित्य की राजनीति, पुरस्कार की जुगाड़बाजी, मजनू कवि एवं कवि के चारित्रिक पतन को विषय बनाया गया है। इसके साथ ही नवगीतकार बृजेश नीरज को भी पत्रिका में स्थान देकर संपादक ने नवगीत के महत्व को अनदेखा नहीं किया है। बृजेश नीरज के गीतों में बिडंबना, छटपटाहट, पीड़ा एवं यथार्थपरकता के दर्शन होते हैं। दोनों विशेष कवियों को पढ़कर काफी अच्छा लगा। वीणा भाटिया एवं डॉ. नीलोत्पल रमेश की समीक्षाएँ अच्छी लगीं। 
निष्कर्षतः यह कहना ही पड़ेगा कि बिंब -प्रतिबिंब का प्रथम अंक ही अपने आप में विधा विविधता लिए हुए  है। वे सभी विधाएँ जो अन्य कुछ पत्रिकाओं में नदारद रहती हैं उन्हें यहाँ उचित सम्मान मिला है।
व्यंगात्मक निबंध जो अब स्वतंत्र व्यंग विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है का भी इस पत्रिका को इंतजार रहेगा ऐसी आशा है। बहुत सावधानी बरतने के बाबजूद भी अधिकतर पत्र- पत्रिकाओं में टंकण त्रुटि रह ही  जाती है, यह पत्रिका में भी ऐसा कई जगह पर देखने को मिला है। बाकी इस पत्रिका के बहुत से आलेखों एवं अन्य विधाओं में आए तथ्य हिंदी विषय के विद्यार्थियों के लिए काफी ज्ञानवर्धक हैं। संपूर्ण पत्रिका अपने आप में विशिष्ट हैं जिसमें संपादक का संपादन कौशल स्पष्ट लक्षित होता है। अब बिंब प्रतिबिंब दो का बेसब्री से इंतजार है। 

-- विवेक आस्तिक

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