कविता खंड
कविवर श्रीयुत श्रीप्रकाश जी द्वारा विरचित काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ यह अपार हर्ष का विषय है।बिना कुछ पिछला लिखे आगे लिखा नहीं जा सकेगा। अतः यह आवश्यक समझ अपनी बात कह रहा हूँ। मेरा सम्बन्ध निराला साहित्य परिषद् से ‘सप्त स्वर’ के प्रकाशन से कुछ समय पूर्व हुआ था। सभी कवि स्थानीय होने के कारण शीघ्र ही आत्मीय भी बन गये थे। ‘सप्त स्वर’ के प्रकाशन की भूमिका बनी और सफ़ल प्रकाशन व लोकार्पण हुआ।विषयांतर और विस्तार के कारण उस पर चर्चा नहीं करूँगा किन्तु यह प्रकाशन परिषद् के लिए मील का पत्थर साबित हुआ यही वास्तव है।
मैं कोई समीक्षक नहीं वह तो विद्वान् हुआ करते हैं। हाँ इतना अवश्य है कि जब कोई पुस्तक पढ़ता हूँ तो उसकी प्रतिक्रियास्वरूप अपने हृदय की बात कह देता हूँ।श्रीप्रकाश जी प्रायः अपनी रचनाएँ कम ही सुनाते थे। उन पर प्रसाद व निराला का सम्यक रूप से प्रभाव देखा जा सकता है।प्रस्तुत काव्य संग्रह में प्रकाशित रचनाएँ जो प्रथम खंड में संग्रहीत हैं मेरी सुनी हुई नहीं हैं।मैंने श्रीप्रकाश जी का यह रूप नहीं देखा था। श्रीप्रकाश जी शब्दों के मितव्ययी हैं। अतः वे थोड़े में ही कहना जानते हैं। यह उनकी विशेषता है।दैन्य भाव से ‘मां वर दे’ वाणी वंदना में कवि ने वह सब कुछ पा लिया है जो एक कवि को चाहिए।चरणों की आभा के अतिरिक्त और क्या चाहिए, इसके पश्चात जीवन का उत्तरोत्तर विकास निश्चित हो जाता है।‘वाह री दुनिया’ में इससे सूक्ष्म व्याख्या और क्या होगी किन्तु मजबूरी में फरसा लिए क्या सन्देश देती है यह स्पष्ट होता तो क्या बात थी।
‘दीपक से’ सत्य की आभा से भारत भूखंड को आलोकित करने का आह्वान वह भी लोक हितार्थ जिसमें देर न करने का अनुरोध।‘उसी को’ कविता में श्रीप्रकाश का आध्यात्म दर्शन प्रतिलक्षित होता है। हाँ प्रतिलक्षित परिवर्तन अपने पास रख लिए एक पहेली की तरह। जगत नियंता से सत्य का मार्ग पूछने वाला बटोही कवि कभी प्रकाश और आभा की बात करता है तो कभी सत्यम शिवम् सुन्दरम की। लोककल्याण ही तो उसका अभीष्ट दिखता है।‘मुक्तांगन’ में कालिदास के मेघदूत का निस्यंद, विरहरत कवि शून्य में प्रेयसी की खोज़ करना चाहता है।संभव है कि मुक्तांगन गुलज़ार हो सके।
‘जीवन क्षणिक है’ में कवि ने युधिष्ठिर की तरह यक्ष प्रश्न को हल करने का प्रयास किया है।सत्कर्म, दुष्कर्म, उपदेश, ब्रह्माण्ड, जीव. सत, असत, आत्मा, परमात्मा और इस संसार सागर का मंथन करते हुए निस्सार शून्य पर ठहरकर प्रत्येक को सोचने पर विवश कर लेखनी को विराम देता है।‘अंतर संसार’ में नाना रूपों और प्रश्नों की कुहेलिका जड़ चेतन के प्रश्न और उत्तर तलाशती कहाँ है शांति एक जटिल प्रश्न है जिसकी खोज़ में प्राणी युगों-युगों से भटक रहा है।यही परिवर्तन का मूलमंत्र है। ‘लिख दे’ में कवि ने लेखनी से वह सबकुछ लिखने को कहा है जो कल्पना, यथार्थ, जीवनहितार्थ यहाँ तक कि जीवन के बहुआयामी व संसार के बहुरंगी चित्रान्तुरक्ति की विकल सीमा में कवि की आत्मा अपने पूरे दर्शन समाज के दर्पण में करती है और आहत होने पर भी असंख्य टुकड़ों में प्रतिबिंबित हर्ष, विषादको जीवन सरिता के चंचल प्रवाह को लिखने का साहस बटोरकर दृढ़ता से खड़ा है।
‘अन्दर टटोल’ में कवि आत्माभिमुख हो चरैवेति का मन्त्र देता है वही जीवन की सार्थकता है। अंतर के समग्र विकास से सबकुछ सुलभ होगा ऐसा उसका दृढ़विश्वास है। यही नहीं सत्य की खोज़ भी वह इसी मार्ग पर चलकर करने हेतु प्रयासरत दिखता है। ‘उधर भी देखूँ’ कविता ज्ञानालोक हेतु ईश्वर की प्रार्थना करता है जिसके बल से वह जीवन की विकटतम कठिनाइयों से दो दो हाथ करना चाहता है। वह किसी राहत की चाह किये बिना विपक्ष की आँखों में आँख डालकर देखने की सामर्थ्य रखता है।
‘मम स्वार्थ’ की बात कहकर ईश्वर से परस्पर हितार्थ की बात कहता है। भक्ति का यह सखा भाव है जो अच्छा लगता है। तो मेरे अपने, मैं चलता, एक दिन शीर्षक कवितायेँ मन को टटोलने को विवश करती हैं। कविता-1 में कवि ने कविता के सर्जन की बात की है इसे परिभाषा मान लेने में क्या हानि हो सकती है।
परिवर्तनशील संसारे मृतः को वा न जायते के समान्तर किन्तु विपरीत धारणा है। यहाँ वस्तुओं का रूप बदल जाता है यह वैज्ञानिक सत्य है किन्तु कवि ने अंतिम सत्य के रूप में नया पाना चाहा है।आदि और परम्परा का स्पष्ट मानक तैयार किया गया है ‘परम्परा’ में। जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्यत् की श्रृखला को सद्गुणों से तोड़ने का प्रयास या यूँ कहें कि सफ़ल प्रयास है।मेरी समझ से स्वप्न में सत्य को खंगालना ही ‘अंतर्द्वंध’ है।
वृक्ष कबहूँ नहिं फल भखै नदी न संचय नीर। निष्काम कर्म द्वारा ऐसा ही कुछ कहा है कवि ने। द्वैत-अद्वैत की बात यदि अर्चना के माध्यम से ही कही गयी है तो आश्चर्य कैसा? संभ्रम के माध्यम से कवि अलौकिक वातावरण में जाना अवश्य चाहता है किन्तु भुलावा देकर नहीं। यहाँ प्रीतम पर विश्वास करने की आवश्यकता है क्योंकि प्रेम और विश्वास एक दूसरे के पूरक हैं।‘सद्गति दे’ दीपक के जलने पर कज्जल व धूम तो अवश्यम्भावी है। सुख-दुःख में समान रहने का विवेक यदि है तो यह सहज ही समझ आ जाएगा कि काजल किसी के चरित्र व जीवन पर अलग-अलग रूप में प्रभाव डालता है बस उसके अभीष्ट की भावना शुभ हो।
‘भूखा’ में दो बिम्ब निराला जी की उस कविता की याद दिलाते हैं यथा- वह आता/ दो टूक कलेजे के करता/ पछताता, पथ पर आता आदि अनेक प्रश्न मानस पटल पर उभरते हैं। घर आता, सो जाता।काश! अगले दिन ऐसा न होता। ‘वाह रे’ मनुष्य मानवयंत्र बनकर रह गया है। प्रगति मिली किन्तु विषफल के रूप में– ‘पी रहा बस पी रहा/ अमृत सरीखा विष’ और अर्थ का इतना महत्त्व कि मनुष्य केवल पैसे के लिए जी रहा न कि जीवन यापन के लिए पैसा कम रहा है।
‘नए जनपद’ में कवि की आशा साफ़-साफ़ दिखती है। छाएगी इक दिन उजाली रात/ मुझसे हो गयी है बात।प्रत्यक्ष वार्ता रहस्यवाद की ओर इंगित करती है।नेति-नेति का चिंतन कम होगा तो आकुलता स्वाभाविक है। उत्तर तो स्वयं में ही मिलेंगे ऐसा मेरा मानना है। ‘वह वारतिय’ कवि के मानस को झकझोरती है।प्रसाद की श्रद्धा का क्षरण देखते ही वह विकल हो जाता है। तभी तो कहता है, मर्यादा के बंधन तोड़ो। कहकर क्रांतिबीज बोने का कुतूहल है।‘भिखारिन’ को देखकर उसका कराहना धूल में बिखरे चावल व्यंग्य करते हुए इससे अच्छा उदाहरण कोई हो ही नहीं सकता– ‘धूल में वैसे मिले कि जैसे कि/ दुःख में व्यंग्य करता व्यक्ति कोई हंस रहा हो!’
‘पथरकट्टा’ में निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ की झलक जिसमें कर्म की निष्कामता भले ही न हो किन्तु कठिन कर्म व जीवन की विद्रूपता अवश्य दिखती है। ‘एकांत में’ स्वस्थ्य चिंतनशील व्यक्ति इसी प्रकार सोचता है और यह उसके प्रति कृतज्ञता का अच्छा भाव है।आत्म दीपो भव ‘आप में’ दिखाई देता है। कवि आत्मालोक में समस्त जग को देदीप्यमान देखना चाहता है।
‘मति वर दे’ यह वाणी वंदना, ‘वर दे वीणा वादिनि से कुछ सीख लेते हुए प्रतीत होती है गठन में।‘आत्मपरिचय’ या यूँ कहें कि हृदय में वह छायाबिम्ब जिसके लिए कवि विकल दिखता है। न मिलता चित्र का आभास, यही विभ्रम है। जिसमें पड़कर मनुष्य स्वयं से दूर हो जाता है तो कह उठता है ‘कौन तू मेरे हृदय में’। इसी प्रश्न का उत्तर अगली कविता 2 में मिलता है। प्रेम की रसधार ही संसार को डुबोने का सामर्थ्य रखती है।
प्रायः जिस सत्ता से सीधे बात होती है उसमें बाधा यामिनी हो या कोई अन्य। भोर तो सुनिश्चित होता है इसीलिए सजग हो जीवन नौका उसी को सौंपने का मन बनाना अच्छी बात है।‘अभागा’ पराजय नहीं जीवन का कडुवा घूँट है जिसे पीकर कोई भी इसी तरह के प्रश्नों में उलझकर रह जाता है।इसी भाव की पूरक कविता ‘सम्बन्ध’ में सहज ही देखा जा सकता है। ‘घूरा’ मात्र कचरे का ढेर हो ऐसा नहीं है। वह तो ऊर्जा का स्त्रोत होता है, सहनशक्ति की पराकाष्ठ है तभी तो प्रायः सहनशील व्यक्ति को ‘घूर’ की संज्ञा दी जाती है अतः उसके डांटकर बोलने की बात असहज है।
मुक्तक/ गीत खंड
सप्त स्वर का एक स्वर जब स्वर को परिभाषित करेगा तो स्वर की सिद्ध परिभाषा ही निकलकर आएगी।अंतर की करुणा को अनुभूत करना सच्चे अर्थों में कविता है। रही किधर बहने की बात तो इसका निर्धारण कल्पना में नहीं वरन यथार्थ में जीकर ही हो सकता है।विश्वास के बिना सृजन की कल्पना भी नहीं की जा सकती और जब इसकी धुन हो क्या पर्वत क्या आंधी क्या दुर्गम पथ। हृदय की करुणा यदि बहेगी तो– उमड़कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान। यही सत्य है। यही नियति है और यही अभिव्यंजना भी।
कहने को ये पाँच मुक्तक भले ही अलग हो किन्तु समग्र रूप से यह प्रेम और जीवन का गीत है जिसमें सम्पूर्ण जीवन का परिदृश्य दिखता है। चाह में चेतना राग में दीपक का प्रेम किन्तु घुटन का अभिप्राय संभवतः विश्वास के लुटने से पीड़ादायी अवश्य हो गया है किन्तु जीवन में सत्य को दृढ़ता से स्वीकारना ‘नेह बदले में तनिक सा ले लिया था’ अच्छा लगता है।
दिनकर की पंक्तियाँ– दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो’ याद आ जाती है। ये चार मुक्तक लोक क्रांति की ज्वाला से ज्वलंत समग्र क्रांति को अपने में समेटे वास्तव में जन-जन की पीड़ा नहीं ओजस्विता है। कवि से भी मानवता हित में रक्तदान की अपेक्षा की गयी है।‘धरती प्यासी है उस मानव के श्रोणित की/ जिसके अंतर में लोकप्रेम की कविता है/ धरती प्यासी है उन कवियों की कविता की/ जिनके अंतर में लेशमात्र मानवता है।’ अर्थ और यथार्थ को स्वीकारने की बात है। मानव अर्थवादी होकर अनर्थ करता ही जा रहा है। शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह ही नहीं पूरी व्यवस्था ही प्रश्नों के घेरे में है।कच्चा-चिट्ठा है यह बिगड़ी हुई शिक्षण प्रणाली का– ‘है नहीं बस छात्र जन की बात/ गुरुजनों में दोष पाए जा रहे हैं’ और ‘अर्थ मानव ने लिया जब से जनम/ चाकरी के हित पढ़ाया जा रहा है।’
‘स्मृति’ को पढ़कर बाबू जयशंकर प्रसाद के ‘आँसू’ की याद आती है। कवि ने स्मृतियों को उसी प्रकार व्यक्त किया है जैसा कि आँसू में। मैं कह नहीं सकता किन्तु संभव है कवि ने स्मृति खंडकाव्य ही लिखा हो। यहाँ स्थानाभाव के कारण कुछ अंश प्रकाशित कराये गये हों। यह एक स्वस्थ रचना है जिसमें सम्पूर्ण जीवन जीने की परिकल्पना है स्मृतियों के सहारे– ‘दुःख के सागर में कूदा/ सुख के मोती लेने को/ मैं डूब गया मणि पाकर/ कुछ रहा नहीं देने को।’
‘एक स्वप्न’ दो दल वाली कविता है। कविता में यथेष्ट पुष्प सौन्दर्य है। स्वप्न में भी हुई भूल कवि की सचेतक दृष्टि का परिचायक है। प्रायः लोग भूलों पर परदे डाल दिया करते हैं किन्तु यहाँ स्वीकारोक्ति प्रशंसनीय है। स्वप्न में प्रकट हुई प्रमदा की माया के आगे भी सजग दृष्टि विजित दिखती है क्योंकि वह उसकी वक्र दृष्टि को भेदने में सक्षम हो जाता है किन्तु फिर भी वह पूछता है– ‘कहाँ रहती हो क्या है नाम/ बताओ अपना सुन्दर धाम’ यहाँ कवि ने उसके सौन्दर्य की बानगी तो फिर भी दे ही दी है यथा- ‘तिल छोटा सा चमक रहा था/ उसके अधरों के कुछ नीचे/ मानो श्वेत कमल पर भौंरा/ बैठा हो निज आँखें मींचे।’श्वेत कमल निर्दोष सौन्दर्य का अनूठा उदाहरण है।
‘मत सुनो प्रिय मीत मेरे गीत’ गीत का उद्गम पीड़ा, व्यथा, करुणा। जीवन के विभिन्न प्रकार के संकुल दुःख दिखाई देते हैं। चूँकि प्रिय को वह प्रेम करता है और उसे दुखी नहीं करना चाहता। इस गीत का यह अंतिम चरण दृष्टव्य है- ‘सोचता था जिंदगी में शांति का आभास लूँगा/ जिंदगी में उलझनों से मैं क्षणिक अवकाश लूँगा/ आद्र नयनों की पहेली बूझ लूँ कैसे बता दो?/ आज मानस मध्य में मृदुगीत फिर उलझन बने हैं।’
वेदना और अश्रु एक दूसरे के पूरक हैं। हाँ कवि इन दोनों का कहाँ और कैसे अनुभव करता है यह अलग बात है।यह गीत मैंने स्वयं श्रीप्रकाश जी के मुख से सुना है। वे पढ़ते हुए भाव विभोर हो जाते थे। मुखमंडल पर प्रत्येक पंक्ति के भावों का उतार चढ़ाव स्पष्ट देखकर ऐसा लगता था कि कविता स्वयं निकल रही है।श्रीप्रकाश जी तो निमित्त मात्र हैं– ‘आज सुस्मृत हुई जिंदगी की व्यथा/ प्यार की गीतिका अधूरी कथा/ जागरण ले जगाकर कहे छेड़कर/ साँस की श्रृंखला पर व्यथित गीत को/ राग देते रहो मैं पिघलती रहूँ।’
श्रीप्रकाश जी जिज्ञासु प्रवृत्ति के हैं उनकी यह प्रवृत्ति उनके काव्य में सर्वत्र देखने को मिलती है।वे प्रश्नों और उनके उत्तर में कभी स्वयं तो कभी समाज से तो कभी परासत्ता से आँखें मिलाकर पूछते हैं।उनका यही स्वरुप इस कविता में दिखता है तभी तो वे काल की गति मापने का साहस करते हैं जबकि काव्यगति के प्रश्न पर प्रायः लोग मौन रह जाते हैं किन्तु यहाँ कवि उसके स्वागत में नवल संगीत देने की बात करता है। ‘शांतिवन के इस भवन में आज निश्चय ही विरल हो/ इसीलिए ही मैं तुम्हारे आगमन के स्वागतम में/ नित्यप्रति कवि को नवल संगीत देना चाहता हूँ।’ मैथिलीशरण गुप्त की यह रचना– ‘दोनों ओर प्रेम पलता है/ सखि पतंग तो जलता ही है दीपक भी जलता है’ समर्पण और उत्सर्ग की भावना से प्रेरित यह गीत सुन्दर है– ‘मृत्यु पाकर मुक्ति का सन्देश मैं गलहारता हूँ/ इसलिए ही मैं तड़पता मृत्यु को स्वीकारता हूँ/ पार उसके प्यार मेरा– मैं शलभ हूँ।’जैसा कि अंत में शीर्षक से पता चलता है कि कवि परमसत्ता के मधुर व मृदुल सचेतन आनंद को पाकर तृप्त होना चाहता है इस संसार से मुक्ति की अंतिम कामना लेकर।
‘आओ मेरे राम!’ भारतीय परिदृश्य के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालती है। समाज में फैली विकृतियों पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है। मूल्यों का क्षरण उसे आहत करता है। वह राम, कृष्ण के रूप में दैवी शक्तियों का आह्वान करता है जिससे शकुनि, धृतराष्ट्र, दुस्शाशन, कंस, अर्जुन का मोह, कालिय नाग, इंद्र का संत्रास, अनेक नकारात्मक शक्तियों से देश को मुक्ति दिलाना चाहता है किन्तु अर्जुन का गांडीव हुंकार भर रहा होता तो कृष्ण को गीता ज्ञान सुनाने की आवश्यकता न पड़ती तथापि जहाँ सत्य की मर्यादा खंडित होती है तो श्रीप्रकाश जैसा कवि चुप कैसे रह सकता है।‘निशागीत’ प्रियतम से जीवन के यथार्थ का प्रतिवेदन किन्तु प्रेम की असफलता ‘जो कभी भी मिल न पायें हैं हमेशा वे किनारे।’ कवि हृदय की करुणा को उजागर करती है।
‘अर्चना’ माँ शारदे की सुन्दर वंदना है किन्तु प्रतिभा के साथ घोर का प्रयोग कुछ कम सम्यक लगता है।‘छल गया जीवन फिर फिर बार’ यहाँ नियति के आगे सामान्यजन एक कन्दुक की भांति ही तो रह गया है जबकि असमय मृत्यु क्रूर यथार्थ का बोध कराती– तभी तो वह कह उठता है– ‘कैसे कह दूँ यह संसृति अपना साथी है’ जटिल समस्याओं में उलझा जीवन सच्चे साथी को नहीं तलाश पाता– ‘सुख के सब साथी दुःख में न कोई’ इस बात को स्वीकारना ही पड़ता है क्योंकि संसार स्वार्थी है और यही वास्तव है। कवि फिर भी सजग है।जागरण की बात करता है।‘मेरे साथी सो मत जाना’ साँसों के रहने तक निरंतरता बनाये रखना ही जीवन का दूसरा नाम है।संघर्ष व सत्कर्म के साथ वह आगे बढ़ना चाहता है तभी तो कहता है– ‘साथी जीवन तो बस श्रम है’ प्रातः से संध्या तक दिन से रात तक सर्दी गर्मी वर्षा में श्रम का संबल ही तो है जो उसे बढ़ने की प्रेरणा देता है। पतझड़ के बाद बसंत का आना आशा के पथ पर चलना ही तो जीवन की सार्थकता है।
‘अव्यक्त होते हुए भी’ सब कुछ व्यक्त करने की काव्य कला में श्रीप्रकाश जी बेजोड़ दिखते हैं क्योंकि घनीभूत पीड़ा आँसू बनकर बहती है किन्तु पाषाण पिघलकर कविता बन जाय यह अव्यक्त नहीं रह जाता।जो पीड़ा पहुँचाए उसे गीतों से अभिनंदित करना वह भी मूक लेखनी से और समस्त जगत को कल्याण के सावन में हरा-भरा कर दे तो बताओ अव्यक्त क्या है।
कर्मपथ पर निरंतर चलने और निस्वार्थ सेवा की बात जो ‘मैं दीपक’ के माध्यम से कवि ने आजीवन कर्म कामना करना ही जीवन है ऐसा रूपक सुन्दर बन पड़ा है। घोर तम का प्रभात वेला में क्षरण तो सिद्ध है हाँ हम स्वयं को भूल बैठे हैं। अतः दुःख का कारण भी स्पष्ट है पाश्चात्य प्रभाव और उसकी अंधी दौड़ में व्यवस्था का बिखराव।
बहुधा नियति की विडंबना और व्यंग्य पर जब दृष्टि जाती है जिस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और लिखा जाएगा।नियति नहीं, नियति का खेल मायाजाल विरोधाभास यह सब हमें देखने को मिलता है। कवि कर्म में निरत रहते हुए भी उससे मुक्त होना चाहता है। यह उसकी नियति ही तो है।जीव जंगम और नियति का वह संगम चिरंतन है बंधू।
स्व और परा यह विभाजन ही प्रश्नों का मूल उद्गम है। ‘आत्मीय विरोधाभास’ कविता में यह स्पष्ट दिखता है। यह अनंत उसी तरह सत है जिस तरह स्व।सारे प्रश्न विघटन से उत्पन्न हुए हैं अतः स्व को समझने के पश्चात कुछ समझने का न अवसर बचता है और न स्थान।
‘इस स्वयं में क्या छिपा है’ कवि का अपना दार्शनिक विवेचन है अतः वह अपने सारे प्रश्नों का हल खोजता फिरता है कस्तूरी मृग की भांति। प्रकृति के नाना व्यापारों में वह स्वयं को निहारता है और फिर ऐसा नहीं समझकर दूसरे आलंबनों को आंकने लगता है। जिज्ञासु मन अनंत काल से प्रकृति के रहस्यों को जानने को उत्सुक रहा है।वह कभी स्वयं से पूछता है तो कभी सृष्टिकर्ता से तो कभी प्रकृति के नाना रूपों से। ठीक उसी प्रकार कवि ने विश्वसंचालक से सीधे वार्ता का माध्यम बनाकर इस संसार के प्रत्येक रहस्य को जानना चाहा है- ‘देखने को लोचनों की दृष्टि आकुल हो रही है/ चल रहे क्रमपार क्या है बुद्धि व्याकुल हो रही है/ विश्व संचालक बता दे, विश्व मन के पार क्या है?/ देख लूँ अपने स्वयं में विश्व में उस पार क्या है?’ जीवन संघर्ष को सहर्ष अपना कर कवि ने जो कविता कर डाली है उसे सहेज न सका क्योंकि जीवन न वह प्याली ढुलका दी यही सत्य है। ढुलकी प्याली में पुनः करुणा भरने का तभी तो वह कहता है– ‘सुख को छोड़ दिया इस मन ने/ पीड़ा को गलहार किया है/ मैंने दुःख से प्यार किया है।’
वेदना, करुणा में अलौकिक मिलती हुई दिखाई देती है तभी तो वह सत्यम-शिवम्-सुन्दरम की खोज़ में आगे बढ़ता है।उसकी सजगता का प्रमाण यह है कि खो न जाना। जीवन के विभिन्न विकारों व विघ्न बाधाओं में मिलन की सीमा तक अपने गंतव्य को पाने तक सजग रहने की आत्मप्रेरण शक्ति ही तो उसे निरंतरता प्रदान करती है। ‘सुस्मृति के स्वर’ कविता में कवि ने अपने विगत जीवन चित्रों का अंकन किया है। मुंशी प्रेमचंद ने कहा है कि विगत कितना ही दुखद हो किन्तु उसकी स्मृतियाँ सुखद होतीं हैं। ‘डुबो लेते दृग बीते चित्र/ स्मृति उठ गिरती है लाचार।’ और इन सुखदुख की स्मृतियों के कारण ही कवि को अतीत से प्यार होना स्वाभाविक है क्योंकि जो हृदय में है उसी के परिचय से अनजान कोई कैसे रह सकता है।हाँ गीत गाने की इच्छा है वह भी साथ साथ चलते हुए यह अच्छा सुयोग है। ‘जीवन का कैसा है प्रभात’ पढ़कर ऐसा लगता है कि कवि ने प्रभात को भी प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर दिया है क्योंकि विकास यहाँ निर्विवाद नहीं दिखता वरन तमस्छाया उसे आच्छादित कर रही है यही अद्भुतता उसे उलझन में डाल देती है जिस पर अंतर्दर्शन मुस्कुरा उठता है।
‘क्रांतिबीज’ निश्चित रूप से एक जागरण गीत है जहाँ मानवता की उद्दीप्त ऊर्जा निरंतर प्रवाहित होती है।उत्साह और ओज प्रधान यह रचना श्रेष्ठ है। यहाँ शासक और शासित का द्वन्द्ध दिखता है।महलों और झोपड़ियों के बीच संघर्ष का स्पष्ट संकेत है। चंचल प्रधान स्वभाव तो है ही मन का जैसे स्थिर जल में तरंगें प्लवित होती रहती हैं उसी प्रकार मन की चंचलता उसकी नियति है। उसकी चंचलता को नियंत्रित करने का प्रयास इस गीत के माध्यम से सुन्दर बन पड़ा है- ‘विश्व के मोहक सुखों के साथ उड़कर/ मन विहग कुछ देख ले इस पार मुड़कर/ खेलता क्यों आत्मसंयम राह पर/ भाग जाता तू स्वयं की चाह पर।’
इस ग्रन्थ की अंतिम रचना ‘कौन अपना है यहाँ पर’ जैसे इस विश्व को मिथ्या नश्वर और सारहीन व प्रपंचयुक्त बताया है फिर भी विश्व में कोई तो होगा अपना जो यह आभास दिलाता है कि यह नश्वरता में भी निरंतरता का समावेश करने वाला कोई तो है– जो अपना लगता ही है।
सृजन की इस श्रृंखला में और भी कड़ियाँ पिरोते हुए श्रीप्रकाश जी साहित्य साधना करते रहे। उनके बारे में बहुत कुछ इन कविताओं ने कह दिया है। वे कोटिशः बधाई के पात्र हैं मेरी ओर से उन्हें हार्दिक बधाई, साधुवाद!
‘यह जीवन का गीत इसे प्रतिपल बजने दो,
हार हृदय के तार-तार पर स्वर तिरने दो,
श्वासों का संगीत निरंतर घोल रहा है-
कानों में मृदुगीत सरस सौरभ घुलने दो।’
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