Sunday, 14 April 2019

आह्लाद की आशाओं के अर्जमंद कवि बृजेश नीरज


-    प्रद्युम्न कुमार सिंह
कुछ फूट रहा था
लावा सा
समा रहा था
धरती की कोख पर
फूट रही थीं कोपलें
पेड़ों की डाल पर।

जिस प्रकार मानवीय अस्तित्व का केन्द्र उसका हृदय होता है उसी प्रकार समग्र सृष्टि का हृदय संवेदनाएँ होती हैं। ज़िन्दगी में कई ऐसे मोड़ आते हैं जब व्यक्ति को कई वस्तुओं में से किसी एक का चयन करना होता है तब चयन बड़ा ही मुश्किल होता है क्योंकि कभी विकल्प स्पष्ट और साफ नहीं होता है। ऐसे समय में विकल्पों के बीच से सही का चयन करना होता है। ऐसी विषम स्थिति में भी जो अपने भावों के अनुरूप चयन कर उसे तर्क की कसौटी में कसकर श्रेष्ठ साबित करता है वही सच्चा अन्वेषक होता है। बृजेश नीरज एक ऐसे ही अन्वेषक हैं जो छन्दमुक्त और छंदबद्धता के मध्य छन्दबद्धता का चयन करते हैं। जिस प्रकार कोई पुष्प अपनी प्रशंसा की कल्पना करके नहीं खिलता है ना ही वायु अपने साथ कारवां के चलने की उम्मीद से बहती है वरन उसका होना उसके अस्तित्व का प्रमाण होता है, बृजेश नीरज का कविता संग्रह ‘आँख भर आकाश’ कुछ ऐसी ही अन्वेषणा का परिणाम है।  
             आखिरकार बृजेश नीरज की शख्सियत क्या है? क्यों पढ़ा जाय उनका कविता संग्रह ‘आँख भर आकाश’? क्या हमें आँख बन्द करके किसी का समर्थन या विरोध करना चाहिए? तो इसका उत्तर मिलेगा, नहीं, हमें आँख खोलकर पूरी तसल्ली के साथ ही उस पर चर्चा करनी चाहिए। इसी संदर्भ में बृजेश के ‘आँख भर आकाश’ को जानना और समझना समीचीन होगा। कविता केवल भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति का नाम नहीं होती वरन भावों के वैशिष्ट्य की अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। छन्दमुक्त रचना वैशिष्ट्यता में ही केन्द्रित होती है जबकि छन्दयुक्त रचना विशिष्टता एवम छन्दानुशासन की अनिवार्यता को महत्व प्रदान करती है। आज जब छन्दमुक्त कविता का चहुँओर बोलबाला है और छंदयुक्त रचना को दोयम दर्जे के रूप में देखा जा रहा हो, ऐसे समय में बृजेश जैसे समर्थ कवि ही छन्दयुक्त रचना रचने का साहस कर सकते हैं। वे बड़ी बेबाकी से प्रतिरोध की अलख जगाते दिखाई पड़ते हैंअग्नि में प्रतिरोध की समिधा बनेगी/ वेदना को और थोड़ा सा जगा लूँ।
              यद्यपि छन्दयुक्त रचना हमेशा से जनमानस को प्रभावित करती रही है और अपने कथ्य को बड़ी ही सहजता से समाज में आज भी पहुँचाने का कार्य कर रही है। चरणों का स्तुतिगान इसीलिए आज भी उत्सुकता के साथ सुने और सुनाये जाते हैं। आज के मंचीय परिदृश्य में सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिये द्विअर्थी फूहड़ रचनाएँ छन्दबद्ध लय के साथ प्रस्तुत करते हैं जो मनोरंजन तो खूब करती हैं और समसामयिक उपलब्धि भी हासिल कर लेती हैं किन्तु कालजयी होने की क्षमता नहीं रखती हैं। आज का समाज कपोल-कल्पित कल्पनाओं की अपेक्षा यथार्थ पर अधिक विश्वास करता है। वह कवि या सहित्यकार से अपेक्षा रखता है कि वह कविता को भडुवागीरी से अलग कर यथार्थ के धरातल पर खड़ा करे। इसके लिये उसे यदि छन्दभंगता भी स्वीकार करनी पड़े तो वह उसे भी स्वीकार करे। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी दृष्टिकोण जो सक्रिय ऊर्जा उत्पन्न करता हो या करने की क्षमता रख रहा हो उसे स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है क्योंकि भावनाएँ और दृष्टिकोण एक-दूसरे के कारक के रूप में कार्य करते हैं। बृजेश साहस करते हुए कबीर के सदृश्य दोनों को फटकारने का कार्य करते हैंमज़हबों में आपसी जो भेद है/ क्या खुदा का राम से विच्छेद है। 
             यदि छन्द रचना के सरोकारों में साधक ना बन सके तो बाधक भी ना हो। बृजेश की छांदस काव्य साधना सर्वजन की पीड़ा के साथ आगे बढ़ती है और उसके लिये पूरी शिद्दत के साथ खड़ी नज़र आती है। मैं यह बात किसी मोहवश नहीं कह रहा हूँ अपितु तर्क की कसौटी पर कसते हुये कह रहा हूँ कि छांदस काव्य साधना का जैसा उत्कर्ष बृजेश नीरज के काव्य संग्रह ‘आँख भर आकाश’ में देखने को मिलता है वैसा समकालीन रचनाकारों में देखने को प्राय: नहीं मिलता है। बृजेश आवश्यकता के अनुरूप आक्रोश भी व्यक्त करते हैं। वे यथार्थ के चितेरे कवि हैं, वे जनसमस्याओं से जूझने वाले कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी रचनाधर्मिता इसकी गवाही देती है- गाँव नगर में हुई मुनादी/ हाकिम आज निवाले देंगे/ चूल्हे अपनी राख झाड़ते/ बासन सारे चमक रहे हैं।
             बृजेश बड़ी ही मासूमियत के साथ चूल्हे का राख झाडना और उस पर चढ़ने वाले बासनों (बर्तनों) का चमकना व हरियाती लता और फूल का महकना जैसे साधरण एवम सहज शब्दों के माध्यम से यह बताने का प्रयास करते हैं कि एक आम आदमी के जीवन में छोटी सी खुशी भी उसे बहुत बड़ा सुकून देती है जिसके सामने वह उन सारी बड़ी तकलीफों को भी भुला देता है जिनसे वह रोज दो-चार होता है, उसी प्रकार जैसे घर में अँधेरा छाया हो और दियासलाई या आग की लौ या कोई प्रकाश का ज्योतिपुंज जलाकर उस अँधेरे से निजात पायी जा सकती है- स्याह अँधेरा हो/ धरा पर छाया/ विवश करता सोचने को/ पाने को निजात/ जरूरी है एक लौ का/ दीप बन टिमटिमाना। बृजेश का श्ब्द सामंजस्य इतना सटीक होता है कि उसमें से एक भी शब्द अलग करना कविता को उससे अलग करने की तरह है। वे सम विषम के साथ ऐसा सामन्जस्य स्थापित करते हैं कि जैसे वे हमेशा से साथ रहते आये हों। नागफनी और बीहड़ का सम्बंध, अक्षर और बीज का सम्बंध दृष्टव्य है- नागफनियों से भरे बीहड़ों में/ अक्षरों के बीज कुछ माँ बो दिये हैं।
               बृजेश का लेखन छोटे-छोटे सम्पुटों को साथ लेकर चलता है या यूँ कहें कि उन्हें ही वे महत्ता प्रदान करते हैं। उनका मानना है कि छोटे-छोटे सम्पुट ही बड़े कार्यों को अंजाम देने वाले होते हैं। व्यक्ति में यदि उत्साह हो तो वह बड़ी से बड़ी बाधा से भी टकराने से गुरेज नहीं करता, जैसे जुगनू एक बहुत ही छोटा जीव होता है किन्तु घने अंधकार से छुटकारा दिलाने का प्रयास करता रहता है और अपनी अल्प चमक से लोगों को उत्साहित करता रहता है गगन तिमिर की गागर में/ ढेरों जुगनू आन भरें। इसी प्रकार दीवार का चिटकना, छत से बूँद का टपकना, सहेजना और सीलन जैसे पुराने किन्तु संकोचवश कम प्रयुक्त होने वाले शब्दों के माध्यम से अपनी रचनाधर्मिता को गति देते हैं, यह उनका ही वैशिष्ट्य है कि वे इन सभी के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाने में सक्षम हो सके हैं चिटक गई/ दीवारें भी/ छत से/ बूँद टपकती है/ जमीं/ सहेजती थी/ मैंने/ मुझसे दूर खिसकती है/ नयनों की/ परतें सूखीं/ दिल में/ सीलन छाई।
इसी तरह बृजेश के अनुसार संवेदनहीन होते संसार में चेतन तो चेतन, अचेतन भी अपने सहज स्वभाव को त्यागने लगते हैं जो किसी बड़ी त्रासदी का संकेत भी है, जैसे शहर का पथराना, नदी का दुबकना, विकास के नाम पर गगनचुम्बी इमारतों से पर्यावरण संतुलन का बिगड़ना पथराते इस शहर किनारे/ सहमी दुबकी नदी पड़ी थी/ ऊँची दीवारों में फंसकर/ चुप चुप ठिठकी हवा खड़ी थी।
सामाजिक रिश्तों की टूटन कवि को अन्दर तक झकझोरती है और वे इस टूटन को अपने काव्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाते हैं किन्तु कहीं पर भी गेयता खण्डित नहीं होती है, वह उसी भाव प्रवणता के साथ खड़ी दिखती है जो उनके कहन के कटीलेपन के साथ परिष्कृत रूप से दिखाई पड़ती हैरिश्तों के इस बंजरपन में/ संवेदन जब हुये छिछोरे/ जैसे तैसे सपन पिरोये/ तिनका तिनका भाव बटोरे।
 एक तरफ बृजेश गज़ल जैसी गेय शैली को अपनी रचना का आधार बनाते हैं तो दूसरी ओर मात्राओं पर आधारित छन्द को बृजेश उचित प्रयोग करते नज़र आते हैं। चाहे कुण्डलिया हो या दोहा या फिर मुक्तक हो, जापानी विधा हाइकू हो या फिर सानेट हो, सभी में उन्होंने अपनी प्रतिरोधी प्रतिभा का परिचय बड़ी कुशलता के साथ दिया है। उनके ध्यान में हमेशा से सर्वहारा वर्ग रहा है जो पूँजी, सत्ता द्वारा सताया जाता रहा है और उसका मानस प्रतिरोधी संघर्ष के लिये तत्पर दिखता है- बाज़ारी व्यवहार में, मर्यादा का ह्रास/ नैतिकता सारी बनी, अपसंस्कृति का ग्रास/ अपसंस्कृति का ग्रास, क्षरण मूल्यों का दिन दिन/ संवेदन से शून्य, भाव अवमूल्यन प्रतिदिन/ सम्बंधों पर दाँव, हुये ऐसे व्यापारी/ हित साधन ही लक्ष्य, हुई नियति बाज़ारी।
जिस प्रकार कुण्डलिया में वे माहिर हैं वैसे ही दोहा छंद मानो उनकी उंगली पकड़कर चलता है- 
लहर लहर हर भाव हैं भंवर हुआ है दंभ/ विह्वल सा मन ढूँढ़ता रज कण में वैदंभ।
इस होली के रंग में डूबा सब संसार/ तुम बिन सूनी मैं हुई सूना ये घर द्वार।
जिस तन्मयता के साथ वे कुण्डलिया और दोहा लिखते हैं उसी अंदाज़ में मुक्तक भी रचते हैं। एक मुक्तक दृष्टव्य है डाल से छूटी इक लता है/ ज़िन्दगी इक अधूरी सी कथा है/ धूप इतनी सगी सी हो गई है/ छाँव भी अटपटी लगने लगी है।
बृजेश सानेट के तो मर्मज्ञ हैं। उनका सानेट अन्य किसी से भी कमतर नहीं है
एक सुनहरी आभा सी छाई थी मन पर/ मैं भी निकला चाँद सितारे टाँके तन पर/ तभी जोर की आँधी संग संग फूस उड़ा/ तब फूल, कली, पत्ता, पेड़ों से सभी झड़ा।
              निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है बृजेश के काव्य संग्रह ‘आँख भर आकाश’ में अनुभूति की तरलता, सघनता, प्रवाह और आयतन का विस्तार है। गीतों और लयात्मकता बन्धों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें सिर्फ नारेबाज़ी नहीं वरन नारों को तरल अनुभूति में बदलने की प्रवृत्ति है। उनका विषय जितना वैविध्यपूर्ण है शिल्प उतना ही संतुलित और सुगठित है। उनका मनना है कि जिस बंध में नाद सौन्दर्य नहीं होता वह आधुनिक सरोकारों से जुड़ नहीं सकता। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि नाद की व्यंजक छटा ही आधुनिकता का कारण बनती है। बृजेश जितना सौन्दर्य के कुशल सर्जक हैं, सर्जना के क्षेत्र में जितने अधिक क्लासिक हैं, भाव के क्षेत्र में उतने ही आधुनिक हैं। यही कारण है कि उन्हें पढ़ना जितना सरल व सहज होता है उसे समझना उतना ही कठिन। इस ‘आँख भर आकाश’ की रचनाएँ जीवन और जीवन की विविधता से गुजरते हुये, सम्पूर्ण सृष्टि को आत्मसात किये हुये इक्कीसवीं सदी की नवीन कविताएँ हैं जो अपनी वस्तुपरकता के विरूद्ध विचार, प्रतिरोध और प्रगतिशीलता को साथ लेकर लेकर चलती हैं, जिसकी भाषा और संवेदना मिलकर समवेत हो जाते हैं। जब कवि अपनी रचनाओं में अपनी निजता थोपने के प्रयास करते दिखाई पड़ते हैं ऐसे समय में बृजेश उसे सहजता और सुबोधता प्रदान करने का प्रयास करते हुये उन सबसे अलग चलने का प्रयास करते हैं।
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