वक़्त
यह कैसा वक़्त है
कि किसी को कड़ी बात कहो
तो वह बुरा नहीं मानता
जैसे घृणा और प्यार के जो नियम हैं
उन्हें कोई नहीं जानता
ख़ूब खिले हुए फूल को देखकर
अचानक ख़ुश हो जाना
बड़े स्नेही सुह्रदय की हार पर
मन भर लाना
झुँझलाना
अभिव्यक्ति के इन सीधे-सादे रूपों को भी
सब भूल गए
कोई नहीं पहचानता
यह कैसी लाचारी है
कि हमने अपनी सहजता ही
एकदम बिसारी है
इसके बिना जीवन कुछ इतना कठिन है
कि फ़र्क़ जल्दी समझ में नहीं आता
यह दुर्दिन है या सुदिन है
जो भी हो संघर्षों की बात तो ठीक है
बढ़ने वालों के लिए
यही तो एक लीक है
फिर भी दुख-सुख से यह कैसी निस्संगिता
कि किसी को कड़ी बात कहो
तो भी वह बुरा नहीं मानता
आगत का स्वागत
मुँह ढाँक कर सोने से बहुत अच्छा है,
कि उठो ज़रा
कमरे की गर्द को ही झाड़ लो।
शेल्फ़ में बिखरी किताबों का ढेर
तनिक चुन दो।
छितरे-छितराए सब तिनकों को फेंको।
खिड़की के उढ़के हुए
पल्लों को खोलो।
ज़रा हवा ही आए।
सब रौशन कर जाए।
... हाँ, अब ठीक
तनिक आहट से बैठो
जाने किस क्षण कौन आ जाए।
खुली हुई फ़िज़ाँ में
कोई गीत ही लहर जाए।
आहट में ऐसे प्रतीक्षातुर देख तुम्हें
कोई फ़रिश्ता ही आ पड़े।
माँगने से जाने क्या दे जाए।
नहीं तो स्वर्ग से निर्वासित
किसी अप्सरा को ही
यहाँ आश्रय दीख पड़े।
खुले हुए द्वार से बड़ी संभावनाएँ हैं मित्र!
नहीं तो जाने क्या कौन
दस्तक दे-देकर लौट जाएँगे।
सुनो,
किसी आगत की प्रतीक्षा में बैठना
मुँह ढाँककर सोने से बहुत बेहतर है।
दीठ ना मिलाओ
सूर्य है, दीठ न मिलाओ
नहीं
आँख भर आएगी।
पुष्प यह, डाल मत बिलगाओ-
गंध झर जाएगी।
उस की सुवास से प्राण अभिराम करो।
चन्र वह, हाथ मत फैलाओ-
आस मर जाएगी।
छिटकी जुन्हाई में छाया ललाम करो।
प्रतीक्षा
करूँगी प्रतीक्षा अभी।
दृष्टि उस सुदूर भविष्य पर टिका कर
फिर करूँगी काम।
प्रश्न नहीं पूछूँगी,
जिज्ञासा अन्तहीन होती है।
मेरे लिए काम जैसे
जपने को एक नाम।
मैं ही तो हूँ
जिसने उपवन में
बीजों को बोया है।
अंकुर के उगने से बढ़ने तक
फलने तक
धैर्य नहीं खोया है
एक-एक कोंपल की चाव से
निहारी है बाट सदा।
देखे हैं
शिशु की हथेली मसृण
हरित किसलय दल
कैसे बढ़ आते हैं।
दुर्बल कृश अंग लिए उपजे थे
वे ही परिपुष्ट बने
झूम लहराते हैं।
मैं ही तो हूँ
जिसने प्यार से सँवारी है
डाल-डाल
आएँगी कलियाँ
फिर बड़े गझिन गुच्छों में
फूलेंगे फूल लाल
करूँगी प्रतीक्षा अभी
पौधा है वर्तमान
हर दिन हर क्षण।
नव कोंपल पल्लव समान
हरियाए, लहराए,
यत्न से सँवारूँगी।
आख़िर तो
बड़े गझिन गंध-युक्त गुच्छों-सा
आएगा भविष्य कभी।
करूँगी प्रतीक्षा अभी।
फूल झर गए
फूल झर गए।
क्षण-भर की ही तो देरी थी
अभी-अभी तो दृष्टि फेरी थी
इतने में सौरभ के प्राण हर गए।
फूल झर गए।
दिन-दो दिन जीने की बात थी,
आख़िर तो खानी ही मात थी;
फिर भी मुरझाए तो व्यथा हर गए
फूल झर गए।
तुमको औ’ मुझको भी जाना है
सृष्टि का अटल विधान माना है
लौटे कब प्राण गेह बाहर गए।
फूल झर गए।
फूलों-सम आओ, हँस हम भी झरें
रंगों के बीच ही जिएँ औ’ मरें
पुष्प अरे गए, किन्तु खिलकर गए।
फूल झर गए।
कम्पनी बाग
लतरें हैं, ख़ुशबू है,पौधे हैं, फूल हैं।
ऊँचे दरख़्त कहीं, झाड़ कहीं ,शूल हैं।
लान में उगाई तरतीबवार घास है।
इधर-उधर बाक़ी सब मौसम उदास है।
आधी से ज़्यादा तो ज़मीन बेकार है।
उगे की सुरक्षा ही माली को भार है।
लोहे का फाटक है, फाटक पर बोर्ड है।
दृश्य कुछ यह पुराने माडल की फ़ोर्ड है।
भँवरों का, बुलबुल का, सौरभ का भाग है।
शहर में हमारे यही कम्पनी बाग़ है।
यथास्थान
नहीं, वहीं कार्निस पर
फूलों को रहने दो।
दर्पण में रंगों की छवि को
उभरने दो।
दर्द :उसे यहीं
मेरे मन में सुलगने दो।
प्यास : और कहाँ
इन्हीं आँखों में जगने दो।
बिखरी-अधूरी अभिव्यक्तियाँ
समेटो,लाओ सबको छिपा दूँ
कोई आ जाए!
छि:,इतना अस्तव्यस्त
सबको दिखा दूँ!
पर्दे की डोर ज़रा खीचों
वह उजली रुपहली किरन
यहाँ आए
कमरे का दुर्वह अंधियारा तो भागे
फिर चाहे इन प्राणों में
जाए समाए
उसे वहीं रहने दो।
कमरे में अपने
तरतीब मुझे प्यारी है।
चीजें हों यथास्थान
यह तो लाचारी है।
हर ओर जिधर देखो
हर ओर जिधर देखो
रोशनी दिखाई देती है
अनगिन रूप रंगों वाली
मैं किसको अपना ध्रुव मानूँ
किससे अपना पथ पहचानूँ
अंधियारे में तो एक किरन काफी होती
मैं इस प्रकाश के पथ पर आकर भटक गया।
चलने वालों की यह कैसी मजबूरी है
पथ है – प्रकाश है
दूरी फिर भी दूरी है।
क्या उजियाला भी यों सबको भरमाता है?
क्या खुला हुआ पथ भी
सबको झुठलाता है?
मैने तो माना था
लड़ना अंधियारे से ही होता है
मैने तो जाना था
पथ बस अवरोधों में ही खोता है
वह मैं अवाक् दिग्भ्रमित चकित-सा
देख रहा-
यह सुविधाओं, साधनों,
सुखों की रेल पेल।
यह भूल भुलैया
रंगों रोशनियों का,
अद्भुत नया खेल।
इसमें भी कोई ज्योति साथ ले जाएगी?
क्या राह यहाँ पर आकर भी मिल पाएगी?
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