Monday, 2 September 2019

इन दिनों चर्चा में

पंजाब में बहुत से उपन्यास लिखे गए। जिनमें रविन्द्र कालिया मोहन राकेश जगदीश चंद्र वैद्य.. यह ऐसे नाम हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर गए। इसमें निश्चय ही जालंधर को साहित्यिक गतिविधियों में प्रमुख माना। हालांकि इसके बाद
पंजाब में. अनेकों लेखकों ने उपन्यास रचे।
चर्चा में रहे पर मुकाम न मिला। उपन्यास आए और गए। लेकिन इन दिनों जो उपन्यास चर्चा में आया वह है डा. अजय शर्मा का ताजा उपन्यास ' महामृत्यु का ब्लैकहोल' । बेशक डा. अजय के अब तक आए पिछले उपन्यासों के कथानक अलग रहे पर इस नए उपन्यास जिसे लोकोदय प्रकाशन लखनऊ ने छापा एकदम अलग कथानक और विषय वस्तु लेकर है। डा. अजय शर्मा बताते हैं कि लगभग दस साल पहले यह विषय उनके जेहन में था लेकिन उनका तजुर्बा न था सो धीरे धीरे यह खोज जारी रही और अब मैने इसे पूरा किया। स्पष्ट है कि उपन्यास मेहनत मांगता है स्पष्ट विषय वस्तु मांगता है घटनाएं उसमें घटित होती हैं और उसमें स्पष्टीकरण न हों तब भी आप चूक जाते हैं और इन सब चीजों को समक्ष रखते हुए लेखक सचमुच बधाई का पात्र है कि इस उपन्यास को उन्होंने जीवंत बना दिया है।
हमारे समाज में पीड़ा है दुखांत है किसी. के पास इतना समय नहीं कि कोई किसीके दुख का साझीदार बने। ऐसे में यह तथाकथित गुरू जीवन को खूशहाल बनाने के नाम पर समाज को प्रलोभन देकर अपने सम्मोहन जाल में फंसाते हैं उन्हे निमंत्रण देते हैं। पैसे झाड़ने के लिए ऐजन्ट हैं। वे आपके पास आएंगे मीठे बोल और सूरत इतनी प्रभावशाली कि आपकी जेब ढीली करवा ही लेंगे। फिर काम शुरू होता है तथाकथित स्वामी का बनाम गुरू जी का। यह गुलरू अपने शिष्यों की सामाजिक आर्थिक स्थिति के बारे पहले से ही जानकारी जुटाकर रखते हैं। एक स्थान पर स्वामी जी उपन्यास के प्रमुख पात्र को कहते. हैं 'यहां जो भी आता है उसका पूरा गणित आश्रम वालों को पता होता है। यहां कोई भी परिंदा पर नहीं मार सटता।' और अगर कोई पलटवार कर्ता है तो स्वामी जी के माथे पर त्योरियां उभर आती हैं।
मुझे मालिन का यह कहना कि हम रात को एक साथ मेडीटेशन करेंगे तो एक आत्मा का जन्म होगा, चौंका गया। फिर लेखक का बहुत कुछ स्पष्ट करना मुझे अपने समय में ओशो भक्तों द्वारा लगाए गए मेडीटेशन कैंपों की याद दिला गए वहां भी कुछ ऐसी ही स्थिति हुआ करती थी। वही कल्चर इसी उपन्यास में नजर आता है और यह है भी सच। समाज में जो घटता उसमें नए समीकरण जुड़ते जाते हैं। डा. अजय शर्मा के इस उपन्यास में डा. आकाश का पात्र उनके भीतर का अंतर्द्वंद्व इस उपन्यास को ऐसे मोड़ पर ले आता है कि ऐसे स्वामियों के तथाकथित. आश्रमों में होने वाले क्रियाकलापों पर हैरत होती है। आम सामाजिकप्राणी मीलों लंबे चौड़े फैले आश्रम वहां की सफाई कर्मचारी खाना पीना अपने आकर्षण में बांध लेता है। और फिर वहां आने जाने का सिलसिला उन्हें कहीं का नहीं छोड़ता। डा. आकाश के स्वामी जी से सीधे सवाल भी उन्हे परेशानी की स्थिति में लेजाते हैं।
लेखक ने मेडीटेशन टीचर बनने की प्रक्रिया से गुजरते हुए कुछ ऐसे अनुभव हासिल किए और पाठकों के साथ सांझा किया। कैंप में डाक्टर. आकाश का एक सवाल. अगर हम महामृत्यू को प्राप्त कर लें तः इससे क्या होगा?
स्वामी जी का कहना था यहां आने की आज्ञा किसने दी? आपके लिए पिच तैयार की गई है समाधि कखी अवस्था में मेडीटेशन में आएं। लेकिन डा. आकाश की जिज्ञासा सवाल दर सवाल करती है।
डाक्टर अजय के भीतर का लेखक शांत नहीं होता। वे सिर्फ आश्रम तक ही सीमित नहीं रहते उन्होने मनुष्य के शारीरिक भूगोल के बारे भी अनुसंधान किया क्योंकि इस उपन्यास में कुछ ऐसे तर्क भी हैं। चूंकि वे खुद डाक्टर हैं इसीलिए सांइस और ग्लोबलाइजेशन के बारे में. कई उदाहरण हैं।
लेखक को और अधिक जानने की जिज्ञासा अशांत कर जाती है लेकिन बार बार कोर्स करना या तो उनकी नियति है या अधिक जानने की इच्छा। जहां तक जिंदगी जीने और खूबसूरती से जीने में फर्क तो है। लेकिन वे क्रियाएं करवाते जो उपदेश देते उसे ही आगे चलकर काट जाते। मेडीटेशन के पूरे अभ्यास लेखक ने घटनाएं जोड़ते हुए प्रकट की।
खंड तीन में टीचर कोर्स पूरा होने पर स्वामी जी से दीक्षा लेना इस उपन्यास को सार्थक कर्ता है। एक बहुत बड़ा समागम और भाषण। आत्मा का जिक्र पर उसका वजूद? यह सब लेखक को इस आश्रम से नहीं मिलता पर लेखक को शिष्य परंपरा का तमाशा तो देखना ही था। एक साधु के अनुसार दीक्षा लेते समय पानी और थाली का महत्व बताया जो स्वामी के पास पडी थी। डा. आकाश उसी तरह स्वामी जी के नजदीक गए और स्वामी जी ने क्रिया शुरू कर दी।
स्वामी जी कहते हैं आजके बाद मैं तुम्हारा राम भी कृष्ण भी मैं राम रहीम भी विष्णु भी। शिव भी शव भी मैं। नर भी नारायण भी। और आकाश का मूंह खुलवा उसमें थूक कर कहा अब मैं ही तुम्हारे मुंह में स्थापित हो गया हूं। मैं ही हूं जो तुम्हें जन्म मरण से मुक्त करूंगा। मैं तुम्हे महामृत्यू दूंगा। यहां इन तथाकथित स्वामियों की मानसिकता उजागर होती है। भगवान बने बैठे हैं यह स्वामी।
फिर अचानक मीडिया का आना और आश्रम के सहयोगियों और मीडिया की झड़प आकाश का सच बोलना उसकी असहमति उस कहानी को नया मोड़ दे गई। इलेक्ट्रिक मीडिया और प्रिंट मीडिया भला कहां खड़ा होने देगा एक बहुत बड़े फराड के साथ? आश्रम के बाहर सिक्योरिटी और कई सवाल जिनके जवाब अभी नहीं मिले पर सच्चाई तो यही है न..... ।
शुरू से अंत तक रोचकता बनी रहती है इस उपन्यास में। आज. कल जीवन को खुशहाल बनाने में ऐसी आश्रमों से जुड़ी यह कहानी अभी तक उजागर भी नहीं हुई। भाषा शैली रोचक। सीधी सपाटबयानी इस उपन्यास की एक खास जगह होनी ही चाहिए।
- डा. गीता डोगरा।

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