Tuesday 5 November 2019

लोक की पहचान के कवि - महेश कटारे सुगम

महेश कटारे सुगम जाने माने ग़ज़लकार हैं। ग़ज़ल में उनका अपना मुहावरा है और अपनी भाषा है अपने आक्रोश भरे तेवर हैं। इन सबको मिलाकर उनकी अपनी पहचान भी है। दुष्यन्त ने हिन्दी ग़ज़ल को अरबी फारसी उर्दू की रूमानियत से उतार कर राजनीति और समाज की तरफ़ ले गये। अदम गोंडवी साब ने ग़ज़ल को जीवन और सामाजिक सरंचनाओं की निचली सतहों तक की यात्रा करा दी। महेश कटारे सुगम ग़ज़ल को गाँव गिराँव और गली मुहल्लों तक ले जाते हैं। न केवल भाषा में वह संवेदनाओं की हर निर्मिति में ठेठ गँवई रहते हैं। मेरे हाथ सुगम जी का कविता संग्रह लगा है यह लोकोदय प्रकाशन से आया है। इस संग्रह की कविताएँ पढ़कर मैं चकित हूँ।आश्चर्य है मुझे कि इतना बेहतरीन कवि कैसे ग़ज़ल की तरफ चला गया। मुझे लगता है सुगम जी की कविता ग़ज़ल से बहुत आगे है। कारण कुछ भी हो कविताओं में जिस तरह से श्रमशील मेहनकश समुदाय, उनकी मेहनत, उनका पसीना, उनकी लूट उनका शोषण, उनके सपने विविध कलात्मक भंगिमाओं तथा तर्कनिष्ठ आधारों के साथ अन्तर्विष्ट हैं वह काम साधारण लेखक नहीं कर सकता है। यहाँ तक कि मैंने बड़े कवियों में देखा है कि जब उनकी पारिवारिक व जातीय अस्मिता की बात आती है तो वह लोग विचारधारा और तर्क के स्तर पर असफल हो जाते हैं। लेकिन सुगम की पारिवारिक कविताओं में सच का कसैलापन इतना अधिक है कि पाठक सच से न केवल रूबरू होता है बल्कि कवि के साथ तादाम्य स्थापित कर वह कवि की तरह पीड़ित भी होता है। वह समझ जाता है कि शोषण जलालत और अवमूल्यन का सबसे बड़ा रक्षक लोकतन्त्र है। लोकतन्त्र इस व्यवस्था को बचाए रखने का साधन बनकर रह गया है। इन बातों को बेहद सतर्क और सधी हुई भाषा में लोक की समूची सांस्कृतिक पहचान, वर्गीय अवस्थिति के साथ देखा और परखा गया है। ग़जल की बतकही का प्रभाव इन कविताओं मे भरा पूरा है। जिस जमीन में कवि टिका है उस जमीन का पर्यावरण वहाँ की भाषा और भूगोल तो है ही वहाँ के लोग भी हैं और वह लोग कर्मशील समाज के हैं। वैयक्तिक चरित्रों का सृजन करते हैं और रोजमर्रा की समस्याओं को लेकर संवाद करते हैं। संवाद या बातचीतों से ही वह समस्याओं का सामान्यीकारण कर देते हैं। सुगम दादा आपने अच्छे अच्छों के कान काट लिए ..बधाई
- उमाशंकर सिंह परमार

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