Friday 11 May 2018

अर्द्धरात्रि है यह


किताब - अर्धरात्रि है यह (लम्बी कविता)
कवि – सुधीर सक्सेना
प्रकाशक - लोकोदय प्रकाशन



अन्यस्ततो अन्यत्र, लोकसीमानुरोधिनाः
सम्यगाधीयते यत्र सः समाधिः स्मृतो यथा (काव्यादर्श)

अचेतन सत्ता (प्रकृति) में लोक की सीमाओं को भली प्रकार दर्शा देना और लोक का सम्यक अध्ययन करके लोक हेतु रचना करना ‘समाधि’ कहलाता है। समाधि को यहाँ रचनाकार की अन्तःप्रक्रिया समझना चाहिए। दण्डी काव्य सरोकारों और रचनाधर्मिता का पारस्परिक वर्णन करते समय लोकजीवन से जुड़े रचनाकारों को ‘समाधिस्थ’ कहते हैं। इसका आशय है कि प्रकृति और सांसारिक घटनाओं व उपादानों का अभिधा विधान तब तक काव्य नहीं होता जब तक वह लोक की उपयोगिता का निर्वहन न करे और सच्चा लेखक वही है जो सांसारिक उपादानों को वैयक्तिक अनुभव के बावजूद लोक की सार्वभौमिक अनुभूति और अभिव्यक्ति का माध्यम बना देता है। टी एस इलियट इसे ही ‘वस्तुनिष्ठ पारस्परिकता’ कहते थे। यह काम छोटी और बड़ी हर एक कविता में होता है लेकिन लम्बी कविता में कुछ अतिरिक्त सावधानी की जरूरत होती है। कविता कवि की निजता से मुक्त रहे वह सार्वभौमिक लोक की सम्बद्धता को बरकरार रखे तथा कविता के भीतर का काव्य तत्व घटनाएँ विचार आदि काव्य सरोकारों की निर्मितियाँ बनी रहे निरन्तरता बनी रहे यह अतिरिक्त सावधानी है जिसका निर्वहन करना सामान्य काव्यभाषा के लिए बड़ा जोखिम है। लम्बी कविताओं के लिए मुक्तिबोध एक चुनौती रहे हैं, चुनौती थे नहीं मगर एकेडमिक आलोचकों में मुक्तिबोध का आतंक इस तरह व्याप्त रहा कि वह हर एक लम्बी कविता को मुक्तिबोध ‘फार्मेट’ में ही विवेचित करने के आग्रही रहे हैं। इससे बहुत कुछ छूट गया। यह छूटना बहुत नुकसानदेह रहा। असहनीय अपठनीय दोहरावग्रस्त रूपगत एकरसता से बोझिल ‘आलोचना अनुरूप’ लम्बी कविताओं की भारी-भरकम भीड़ में ‘लोकचेतना’ से युक्त प्रकृति, इतिहास, राजनीति, व्यवस्था के प्रति आक्रोश, मिथक, पुराकथाओं व समय की घटनाओं को लेकर जनजीवन को विवेचित करने वाली लम्बी कविताएँ आलोचना से छूट गयीं। जबकि धूमिल ने इस परम्परा की शुरूआत कर दी थी। बाद में मलय, विजेन्द्र ने खूब लम्बी कविताएँ लिखीं। इन लम्बी कविताओं का आस्वाद और बिम्ब मुक्तिबोध से पृथक है इसलिए ‘छूट’ गये। वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना ने बहुत पहले ‘बीसवीं सदी इक्कीसवीं सदी’ लम्बी कविता लिखी थी। इस कविता में दो शताब्दियों को नायकत्व दिया गया तथा अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद, भूमंडलीकरण के पूर्वाभास पर यह अलग तरह की कविता है। उनकी एक और लम्बी कविता धूसर में बिलासपुर वर्ष 2015 में प्रकाशित हुई। यह एक शहर की ऐतिहासिकता, भूगोल, राजनीति, संस्कृति और साहित्य के साथ लोक की मनोवृत्ति व परिवर्तनों को रेखांकित करती है। उनकी तीसरी लम्बी कविता ‘अर्धरात्रि है यह’ इस वर्ष प्रकाशित हुई है। यह लम्बी कविता ऐतिहासिक और सांस्कृतिक उपादानों के माध्यम से समय की हिंसा को चिन्हित करती हुई सत्ता और पूँजी के अराजक कृत्यों का पर्दाफास करती है। इस कविता में ‘अर्धरात्रि’ हमारे इस समय का परिदृष्य है। समय की भयावहता और आमजन की चेतनाविहीनता का परिदृष्य है। सत्ता और उससे जुड़े तत्व अर्धरात्रि में पूर्ण सक्रिय हैँ। दिन में जो नारा दिया जाता है अर्धरात्रि में उस नारे के खिलाफ़ आचरण किया जाता है। आधी रात को गोलीबारी होती है। दंगे फैलाए जाते हैं। अस्मत लूटी जाती है। लोग आन्दोलन करते हैं मगर आधी रात से नहाई हुई दिल्ली इन आवाजों को अनसुना करती है। "अर्धरात्रि में वे/ होते हैं अपनी नंगई पे निहाल/ बर्बरों के कुल में/ नायकों के रक्त तिलक की बेला है/ अर्धरात्रि"। अराजकता, बर्बरता, हिंसा और आतंक की बेला है अर्धरात्रि। यहाँ अन्धकार जीवन के साथ-साथ सत्ता द्वारा की गयी हिंसक आदतों को समग्रता से देखने का प्रयास है। साथ ही रचनाकार की अभिव्यक्ति पर किए गये आक्रमण व साम्प्रदायिक अराजकता में रूपायित प्रशासन को परखने का माध्यम है। यहाँ सहभागी आम जनता है और इस परिवेश में मौजूद मनुष्य तथा उसके संकटों की नयी होती अवस्थितियों को एक सवाल की तरह दिखाने की इमानदार कोशिश है।
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