Thursday 28 November 2019

कदाचित अपूर्ण

विकट समय का विकट-बेचैन कवि। लाउडस्पीकरों से धार्मिक पुराणों का धारासार वाचन, परन्तु टोला ही नहीं दस कोस तक किसी की आँखों में रामकथा का करुण जल नहीं दिखता। टी बी से बाप बेटा ही नहीं कई पीढ़ियाँ मृत्यु को चुन रही हैं। दुःख की अगाध जलराशि में एक सधा हुआ पत्थर फेंकने वाला मौनमूक योद्धा, जिसे युद्ध के परिणामों के विषय में कोई शक नहीं है। उल्लास की दुनिया से बाहर का कवि, दुनिया के उल्लास में बिना हस्तक्षेप किए, दुनियावी दुःख धंधा पर सतर्क टिप्पणी करने वाला कवि। उदास मौसम, उदास चेहरे और उदासी की ईंट का कवि। पुलिस के डर से चोरी छिपे लाश को जलाने वाले हजारों लोगों से बहुत दूर कुहासे में दबा कवि। कुहासा उसकी सुविधा भी है और शिल्प भी। उसे सही जगह की तलाश है, पर सही ट्रेन की नहीं। हजारों हजार कुम्हारों के बीच का एक विलक्षण कुम्हार, जिसे गीले मिट्टी का गुणधर्म पता है, जो चाक के असली चाल को जानता है, जिसे पता है नये घट को कितने बल से स्पर्श करें, कहाँ सुरक्षित रखें। अपने शब्दों को सर्वाधिक स्नेह से उठाकर वाक्यों में जगह देने वाला कवि। नागार्जुन की भूमि में अज्ञेय! परन्तु अंजुरी में अपने ही तालाब का जल।
       ऐसा भी नहीं है कि मनोज सब-कुछ छोड़कर कलावंत ही बने रहना चाहते हों। समाज को देखने, समझने, दुत्कारने का उनका अपना स्टाइल है। वे पूरा दम लगाकर पत्थर नहीं फेंकते हैं, ज़य जयकार (हो-हो)के साथ पत्थर नहीं फेंकते, परन्तु उनको पता है कि पत्थर कहाँ फेंका जाए-
देखो कैसा है समाज, कैसे हैं पड़ोसी
सरकार तो मच्छरदानी भी नहीं रह गई है
- रवि भूषण पाठक

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