Thursday 9 January 2020

कुछ भी नहीं होता अनन्त

 प्रतिरोधी स्वर को अभिव्यक्त करती कविताएँ
                                            डॉ. नीलोत्पल रमेश
‘कुछ भी नहीं होता अनंत’ प्रद्युम्न कुमार सिंह का पहला कविता-ंसंग्रह है। इसके पहले कई साझा कविता संकलनों में इनकी कविताएँ संकलित हो चुकी हैं। साथ ही इनकी कविताएँ देश की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्र-ंपत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रही हैं। इन्होंने एक आलोचना पुस्तक ‘युग सहचरः सुधीर सक्सेना’ का संपादन भी किया है।
प्रद्युम्न कुमार सिंह की कविताएँ प्रतिरोधी स्वर को मुखर करती हैं। इन्होंने अपनी कविताओं में प्रतिरोध को मुख्य विषय बनाया है। समाज, देश विदेश, आसपास, जहाँ प्रतिरोध की आवश्यकता पड़ती है, कवि का कवि हृदय अभिव्यक्त हो उठता हैं। कवि हमेशा मनुष्यता के पक्ष में एक सिपाही की तरह खड़ा प्रतीत होता है। इनकी कविताएँ पाठकों को सहज ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेती हैं। यही कारण है कि वर्तमान हिन्दी कविता का मूल्यांकन इनकी कविताओं के बिना अधूरा ही रह जाएगा। प्रद्युम्न कुमार सिंह की कविताओं के बारे में जवाहर लाल जलज ने ठीक ही लिखा है कि ‘‘प्रद्युम्न कुमार सिंह प्रतिबद्ध जमीनी कवि हैं। वे लोकधर्मिता, जनपक्षधरता एवं मानवीयता के प्रबल पोषक हैं। वे जैसा महसूस करते हैं वैसा लिखते हैं और नव्यता, परिवर्तनशीलता, याथार्थता, समरसता एवं जनवादिता का सेतु रचने हेतु समुद्यत दिखते हैं।’’
जब कवि का हृदय व्यथित होता है तो जो रचना जनमती है, वह बहुत ही मारक होती है। उसमें कवि की वेदना साफ-ंसाफ दिखाई पड़ती है। उसे पाठक भी आसानी से महसूस कर लेता है। इसी को आर0डी0 आनंद ने इस रूप में लिखा है-ं‘‘मनुष्य तथा प्रकृति के आंतरिक और बाह्य द्वंद्व के संघात से जो कुछ भी घटित होता है, उसे कवि अपनी कविता में सृजन करता है। कविता समय की सुदृढ़ आलंकारिक सौंदर्य का शाब्दिक सृजन भर नहीं होता, वरन् यह दौर अपने साहित्यिक अभिव्यक्ति में प्रतिरोधी संस्कृति का वाहक है।’’
‘कुछ भी नहीं होता अनंत’ कविता में कवि को उम्मीद है कि सब कुछ समाप्त हो जाने के बाद भी बहुत कुछ बचा रह जाता है, यही कारण है कि कवि को कहना पड़ता है-ं‘कुछ भी नहीं होता आनंत’। इस कविता में कवि स्पष्ट कर देना चाहता है कि मनुष्यों को विभाजित करने का जो नजरिया है, वह ठीक नहीं है। वह कहता है-
‘‘जो मनुष्य की मेधा और कल्पना की
परिधि में है वह
कुछ भी नहीं होता अनंत
न आर्थिक/ न नैतिक/ न राजनैतिक
न ऊँचाई। न गहराई
बावजूद इसके किए जाते हैं
वर्गीय विश्लेषण
खींची जाती है
विभाजक रेखाएँ
निर्मित की जाती है नवीन अवधारणाएँ
और खोजे जाते हैं
उनके उत्स’’
‘प्रेम की -शुरूआत’ कविता में कवि प्रेम की व्यापकता को व्यक्त करता है। वह कहता है कि प्रेम को व्यक्त करने के लिए अव्यक्त लिपि का होना आवश्यक है। प्रेम सिर्फ महसूस करने की वस्तु है। इसे भीतर ही भीतर महसूस किया जा सकता है। कवि प्रद्युम्न कुमार सिंह ने लिखा है-ं
‘‘इन्हें व्यक्त करने की
कोई अव्यक्त लिपि
जरूर होनी चाहिए
जिससे केवल और केवल
प्रेम को लिख पाना
आसान होता है।’’
‘एक ताजा आत्महत्या’ कविता में कवि व्यथित है-ं किसानों की आत्महत्या से। वह बेचैन है कि किसानों की आत्महत्याएँ सत्ता के गलियारे के लोगों के लिए आत्महत्याएँ नहीं हैं, बल्कि वे उसे अन्य हत्या के रूप में सिद्ध करने को बेताब हैं। उसकी गरीबी का फायदा भी वे लोग ही उठाते हैं जो दबंग हैं, समर्थ हैं। कवि कहता है-ं
‘‘मगर वो चाहते हैं बिना किसी प्रतिरोध के
इस भूखे कर्जखोर किसान की,
पोस्टमार्टम रिपोर्ट उसे मानसिक रूप से
विक्षिप्त शराबी घोषित कर दे।
अदालत के सामने गीता की शपथ लेकर,
पेशेवर हैवान उसकी जवान बेटी को,
बदचलन घोषित कर दे, 
वो जानते हैं’’
‘प्रतिरोध के साथ’ कविता में कवि प्रतिरोध करने के लिए अंतिम समय तक तैयार दिखाई पड़ता है। इसके एवज में भले ही उसे कोेई भी कष्ट उठाना पड़े, वह सह लोगा। किन्तु अपना प्रतिरोध जारी रखेगा। वह व्यक्त करते हुए कहता है-
‘‘दबती जा रही थी
सिसकती आवाजें
जाने क्यूँ नहीं
आ रहा था
समझ माजरा कुछ
फिर भी खड़ा था
ताने सीना
प्रतिरोध के साथ’’
‘संघर्षरत्’ कविता में कवि का -शब्द हर जगह पर संघर्ष करते हुए प्रतीत होता है। वह आक्रोश को व्यक्त करने में भी समर्थ है। उसके शब्द अन्याय के विरुद्ध हमेशा खड़ा मिलेगा। कवि कहता है-ं
‘‘हर शब्द
एक सुलगता
आक्रोश है
जो खड़ा मिलेगा
हर वक्त
शोषण के विरुद्ध
संघर्षरत’’
‘बांसुरी के पोरों में’ कविता के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि इसमें से जो आवाज निकलती है, वह भूख की है, प्रेम की है। बांसुरी का आविष्कार भी अपने आप में एक नई क्रांति है। इसमें से निकलने वाली आवाज किसी बेचैन व्यक्ति को स्वर देती है। कवि कहता है-ं
‘‘तलाश रहा खुद का वजूद
इंसानों की तरह
यह कैसा देश
इंसान जैसा वेश
नंगे बदन खाली पेट।’’
        ‘योग्य पुत्र’ कविता के माध्यम से कवि आज की पीढी की ओर संकेत किया है। आज के पुत्र पिता को पिता नहीं समझते हैं, उनके दुख को दुख नहीं समझते हैं। जब उन्हें सहारा की जरूरत होती है, तब वे बेसहारा छोड़ दिए जाते हैं। इसी दर्द को कवि ने बहुत ही मार्मिक ढंग से इस कविता में प्रस्तुत किया है। वह कहता है-ं
‘‘पर अफसोस !
तुम कभी भी नहीं समझ सके
पिता को
और नहीं समझ सके
पिता की डांट का मतलब
यही थी उनकी पीड़ा
जो जीते जी उन्होंने कभी भी
नहीं होने दिया व्यक्त!
वे योग्य पिता के निभाते रहे
सभी फर्ज
पर तुम कभी नहीं बन सके
एक योग्य पुत्र।’’
‘वे तुम से छीन लेना चाहते हैं’ कविता में कवि वर्तमान परिदृश्य को पूरी तरह से व्यक्त करने में सफल हुआ है। हमारे देश की जो स्थिति है, वह ठीक नहीं है। पूरा देश डरा और सहमा हुआ महसूस कर रहा है। देश का माहौल खराब है। चारों तरफ अफरा-ंतफरी मची हुई है। ऐसी स्थिति में कवि की ये पंक्तियों दृष्ट्व्य हैं-ं
‘‘वे तुमसे छीन लेना चाहते हैं
तुम्हारी आज़ादी
काट देना चाहते हैं
तुम्हारे उठे हुए हाथ
और खड़ाकर देना चाहते हैं
खौफ का जिन्न।’’
‘देखना चाहिए था’ कविता में पंगु होते समाज की व्यथा को व्यक्त करने में कवि को पूरी सफलता मिली है। लोगों के आँख, कान, दिमाग सब कुछ सुन्न पड़ गए हैं। यही कारण है कि कुछ भी होने के बाद भी प्रतिरोध के स्वर नहीं निकल पाते हैं। वे जिंदगी की खूबसूरती को ही खोते जा रहे हैं। अब तो प्रेम, भाईचारा जैसा कोई शब्द ही नहीं रह गया है, उनके लिए। कवि कहता है-
‘‘आपसी मतभेदों में भी जो
खोजते थे प्रेम
अब वे खंजर लेकर
घूम रहे हैं
टूटन की कड़ियों में भी खोजते थे जो
संधिसूत्र
आज वे सभी व्यस्त हो चुके हैं
बोने में
नफरत के बीज।’’
‘वर्जनाओं के विरुद्ध’ कविता में कवि प्रतिरोधी स्वर को मुखर करता है। वह जहाँ-ंजहाँ भी अन्याय देखता है। प्रतिरोध करता नजर आता है। अब पहले की स्थितियाँ नहीं रही कि लोग चुपचाप सब सह लेंगे। प्रतिरोधक क्षमता का विकास धीरे-ंधीरे ही सही, हो चुका है। कवि इस क्षमता को समाज में फैलाना चाहता है। वह कहता है-ं
‘‘वर्जनाओं के विरुद्ध
तनी हुई मुट्ठियों में
अभी भी बची हुई है
इतनी सामर्थ्य
कि वे भर सकें
तुम्हारे विरुद्ध
हुंकार
और दर्ज करा सकें
अपना प्रतिरोध।’’
‘हम तब्दील हो चुके हैं’ कविता में कवि ने आज की पीढी की ओर इशारा किया है कि आज की पीढी पूरी तरह से यांत्रिक हो चुकी है। वे इससे बाहर नहीं निकलना चाहती है। इसके भयावह परिणाम से कवि चिंतित है। वह इससे डरा हुआ है कि कहीं आने वाली पीढी अपंग न हो जाए। वह अपनी कविता में लिखता है-
‘‘क्योंकि हम तब्दील हो चुके हैं
रिमोट संचालित यांत्रिक
मशीनी गिरोह में 
जिसे जरूरत होती है मात्र
एक अदद विद्युत तरंगीय
संकेत की।’’
‘कुछ भी नहीं होता अनंत’ प्रद्युम्न कुमार सिंह की कविताओं के संग्रह में साठ कविताएँ संकलित हैं। ये कविताएँ हमें आश्वस्त करती हैं। लेकिन कवि से इससे भी बेहतर की अपेक्षा करवाती है। इसमें की अधिकांश कविताएँ प्रतिरोधी स्वर को मुखर करती हैं। जहाँ भी अन्याय, शोषण, अत्याचार होता है, कवि प्रतिरोधक क्षमता के साथ उपस्थित नजर आता है। पुस्तक की छपाई साफ-ंसुथरी है और प्रूफ की गलतियाँ भी नहीं हैं।
‘कुछ भी नहीं होता अनंत’ 
कविता संग्रह
कवि- प्रद्युम्न कुमार सिंह
प्रकाशक- लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ

समीक्षक- नीलोत्पल रमेश
पुराना शिव मंदिर बुध बाजार गिछी ए
जिला-हजारीबाग 
झारखण्ड
पिन कोड -829108
मोबाइल 09931117537 व 08709791120

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