Sunday, 6 April 2025

अपनी बात - दहेज़ में साली

     

मैंने पहली कविता 1957 में लिखी जो उन दिनों बनारस से निकलने वाले अखबार ‘आज’ में छपी। उसके बाद मैंने कुछ मुक्तक भी लिखा और छपा भी। लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद भी कविताएँ न लिख पाता था। हाँ, कहानियाँ आसानी से लिख लेता था। एक कविता ‘बनारस की बातें’ लिखकर छोड़ दिया था। करीब 58 साल बाद उसे फेसबुक पर डाला तो लोगों ने उसकी तुलना फिल्म ‘कागज के फूल’ के एक मशहूर गीत से की जो साहिर लुधियानवी द्वारा लिखा गया था, और बड़ी प्रशंसा मिली।



मैट्रिक पास करने के बाद मैंने बनारस के सेंट्रल हिन्दू कालेज, कमच्छा में दाखिला लिया, तत्पश्चात बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में बी.काम. की शिक्षा प्राप्त करने लगा। मैं शिवाला के 3/20 नंबर मकान में माता आनंदमयी लेन में अपने बड़े भाई मोती लाल के साथ रहता था। वे यूनिवर्सिटी में ही मेडिकल की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। इसी मकान में रहते हुए मैंने कई कहानियाँ लिखीं और छपी भी। एक उपन्यास ‘एक अभिनेत्री की डायरी’ भी लिखा जो ‘मुक्तिपथ’ मासिक में धारावाहिक छपा।

बी.काम. करने के बाद मैंने 1960 में एम.काम. करने के लिए, प्रयाग विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। उसी साल हिन्दी विभाग के हिन्दी परिषद द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में मैंने अपनी कहानी ‘तबादला’ जमा किया। यूनियन हाल में गल्प सम्मेलन हुआ जिसमें सब प्रतियोगियों की कहानियाँ खचाखच भरे हाल में पढ़ी गईं। अध्यक्ष थे डा. रामकुमार वर्मा और मुख्य अतिथि थे स्व. सुमित्रानंदन पंत। कुछ देर बाद ही निर्णय सुनाया गया। मुझे प्रथम पुरस्कार मिला। अगले साल भी कहानी प्रतियोगिता में मेरी कहानी ‘क्या मुझे कुत्ते ने काटा है?’ को फिर प्रथम पुरस्कार मिला। वहीं रहते हुए मैंने 6-7 लेख ‘कादम्बिनी’ में भेजे। उस समय संपादक थे स्व. बालकृष्ण राव। सभी लेख स्वीकृत हो गए। दो लेख छपे भी। तब तक नए संपादक आ गए स्व. रामानंद ‘दोषी’। उस समय कादम्बिनी इलाहाबाद से ही छपता था। मैंने "दोषी" जी से मुलाकात किया और स्वीकृत रचनाओं के छपने के बारे मे पूछा। वे बोले- "मैं हर महीने आपकी रचना छाप सकता हूँ, लेकिन हर महीने अलग-अलग नाम से छपेगी।" मैंने कहा कि- "देर से ही सही लेकिन मेरे नाम से ही छपेगी।" यह कहकर मैं चला आया। उसके चंद दिनों बाद ही बाकी सभी स्वीकृत रचनाएँ यह नोट लगाकर वापस आ गईं कि- "कादम्बिनी के नये रंग-रूप में आपकी रचनाओं को स्थान देना संभव नहीं। अतः सधन्यवाद वापस भेजा जा रहा है।" असल में मैं संपादक की राजनीति का शिकार हो गया था। सर सुंदरलाल हास्टल में ही मेरे सामने वाली ब्लाक में मशहूर कहानीकार व लेखक सुरेन्द वर्मा भी रहते थे। उन्होंने मुझसे शहर के लेखकों की हर महीने होने वाली मीटिंग्स में जाने का मशविरा दिया था। लेकिन मैंने ध्यान न दिया, जिसका खामियाजा मुझे उठाना पड़ा। उन दिनों सिविल लाइन्स के काफी हाउस में लेखकों का जुटान हुआ करता था। इन्हीं सुरेन्द्र वर्मा को उनके एक उपन्यास पर अकादमी पुरस्कार मिला।

एम.काम. करने के बाद मैंने कलकत्ता में बिड़ला के हिन्दुस्तान गैस फैक्टरी में एक साल तक काम किया लेकिन पिताजी के आकस्मिक निधन होने से और अपने ही नगर में आकर अपना पुश्तैनी व्यापार और खेती संभालने लगा। समय न मिलने से लिखने का काम नाममात्र ही रह गया। फिर भी मेरा एक बाल उपन्यास ‘चीनी जादूगर’ लखनऊ के ‘शब्दलता’ मासिक में छपने लगा। इसकी 5-6 किस्त ही छपी थीं कि पत्रिका बंद हो गई। दुर्भाग्य से उसकी पांडुलिपि भी खो गई। ‘शब्दलता’ में ही दो कहानियाँ ‘शहर का हाथी’ और ‘आँखों का इलाज’ भी छपीं। आकाशवाणी से भी कहानियों का प्रसारण हुआ।

समय गुजरता गया। हमारे बड़े भाई डा. मोतीलाल खेतान ‘मोती’ जो कि एक अच्छे कवि हैं, ने नगर में ही प्रभात काव्य संस्था की स्थापना किया था। कवि गोष्ठी महीने में दो बार होती थी। मेरे बड़े भाई ने दबाव डाला कि मैं भी गोष्ठी में चला करूँ। मैंने हामी भर ली और सितंबर 2004 में पहली बार कवि गोष्ठी में भाग लिया। इसके बाद तो मेरी कलम चल पड़ी और मैं हर बार गोष्ठी के पहले ही नयी कविता लिख देता था। मैं भोजपुरी और हिन्दी दोनों में लिखने लगा और नगर के बाहर भी कवि गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में भाग लेने लगा। अखबारों में जाने कितनी बार मेरे कविता की हेडलाइन लगी। मैंने इलाहाबाद, लखनऊ, बंगलौर, कलकत्ता, दिल्ली, बनारस आदि शहरों में भी कविता पाठ किया।

अक्टूबर 2014 से मैंने फेसबुक पर लिखना शुरू किया। फेसबुक मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ। फेसबुक पर मैंने सैकड़ों कविताएँ, कहानियाँ, संस्मरण और लेख लिखा। बहुत से प्रशंसक और मित्र भी हुए जो मेरा उत्साहवर्धन किये। मैं उनका भी आभारी हूँ। पत्र-पत्रिकाओं से भी रचनाएँ भेजने का आग्रह आने लगा।

मैं स्व. बेखटक ‘मिर्जापुरी’, स्व. रामनवल मिश्र, स्व. सत्यनारायन ‘सतन’, प्रो. रामदेव शुकल, प्रो. अनन्त मिश्र, प्रो. कृष्णचंद्र लाल, प्रो. चितरंजन मिश्र, प्रो. शुभदा पांडे आसाम, सर्वश्री नरसिंह बहादुर ‘चंद’, डा. वेदप्रकाश पांडे, डा. आद्या प्रसाद दिवेदी, आर.डी.एन श्रीवास्तव, राजेश राज, सूर्यदेव पाठक ‘पराग’, के.एन. श्रीवास्तव ‘आजाद’, श्रीमती प्राची राज, संतोष पटेल (दिल्ली), केशोमोहन पांडे (दिल्ली) आदि का भी आभारी हूँ। भोजपुरी पंचायत के संपादक कुलदीप कुमार, डा.सुमन सिंह, जयशंकर प्रसाद द्विवेदी, लोकोदय प्रकाशन व बृजेश नीरज लखनऊ, हर्फ प्रकाशन, जलज कुमार ‘अनुपम’ व डा. अशोक लव दिल्ली व लछमन शिवहरे रेलवे का भी आभारी हूँ जिनके सहयोग व प्रेरणा से यह सब संभव हुआ।

- जगदीश खेतान 

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