Sunday, 6 April 2025

ख़ामोशी के क्षण में कविता से आत्मालाप

 केदारनाथ अग्रवाल ने जनपद बाँदा को न केवल हिन्दी साहित्य में एक पहचान दिलाई बल्कि कवियों-लेखकों की एक प्रगतिशील पीढ़ी भी तैयार की। बाबू केदारनाथ की शिष्य मण्डली में जनपद बाँदा के युवा एवं वरिष्ठ सभी प्रकार के लेखकों की उपस्थिति थी। जयकान्त शर्मा भी बाँदा के उन चन्द कवियों में से हैं जिन्होंने केदारनाथ अग्रवाल की रचनाधर्मिता को आत्मसात करते हुए प्रगतिशील जनवादी गतिविधियों को जनपद बाँदा की जमीन पर संचालित किया तथा समाज के विभिन्न वर्गों व समूहों के बीच जनवादी प्रगतिशील सांस्कृतिक परम्परा को पहुँचाया। जयकान्त शर्मा प्रारम्भ में इप्टा से जुड़े रहे। बाँदा के ही अजित पुष्कल और अहसान आवारा  के साथ वह इप्टा की सांस्कृतिक गतिविधियों के संचालक थे। वह निरन्तर लिखते रहे, पढ़ते रहे तथा जमीनी हस्तक्षेप करते रहे। वैचारिक और सांस्कृतिक आन्दोलनों तथा जनपद के बड़े आयोजनों में व्यस्त होने के कारण वह अपने लेखन के प्रति थोड़ा उदासीन भी रहे। उनकी बहुत सी पुरानी पाण्डुलिपियाँ जिनमें सत्तर-अस्सी-नब्बे के दशक के आलेख व कविताएँ भी सम्मलित हैं आज उपलब्ध नहीं हैं। उनकी पुरानी पाण्डुलिपियाँ यदि आज उपलब्ध होतीं तो इस कवि के रचनात्मक और वैचारिक विकास अनुक्रम को भली प्रकार परखा जा सकता था। फिर भी जयकान्त शर्मा जिस पीढ़ी के नुमाइन्दे हैं, उस पीढ़ी से आज की युवा पीढ़ी बहुत कुछ सीखती रही है। आज की समकालीन कविता की वास्तविक पृष्ठभूमि इसी पीढ़ी के रचनात्मक आधारों पर टिकी है जिन्होंने हिन्दी कविता में व्याप्त अज्ञेयवादी बाजपेयीवादी महानगरीय मध्यमवर्गीय सौन्दर्यशास्त्र तथा मूल्यों का प्रतिरोध किया। यदि अस्सी के दशक के युवा कवियों ने अपने रचनात्मक सरोकारों को केदार, त्रिलोचन, नागार्जुन से न जोड़ा होता तो आज प्रगतिशील कविता व जनवादी चिन्तनधारा साहित्य के इतिहास से अपदस्थ हो चुकी होती। यही कारण है कि सत्तर और अस्सी के दशक को हिन्दी कविता में ‘कविता की वापसी’ का दशक कहा जाता। हालाँकि यह नारा अशोक बाजपेयी का था मगर इस अभियान के विरोध में खड़े तत्कालीन युवा वर्ग ने इस दशक को प्रगतिशील कविता की वापसी बना दिया और अचानक केदार, त्रिलोचन, नागार्जुन महत्वपूर्ण कवि बन गये।

जयकान्त शर्मा की रचना प्रक्रिया तथा उनके सरोकारों को हम बगैर अस्सी के दशक को तथा इस दौर की प्रक्रिया को समझे हुए नहीं पहचान सकते हैं। ये कविताएँ वैयक्तिकता और सामाजिक दायित्वबोध का बेहद संश्लिष्ट प्रक्षेपण हैं। जयकान्त शर्मा को मैंने बाँदा के एक आयोजन में सुना था। सम्भवतः पहली बार उनको मैंने देखा भी था। गम्भीर बीमारी की अत्यन्त पीड़ादायी अवस्थिति में भी उनकी जिजीविषा और साहित्य के प्रति लगाव देखते ही बनता है। घोर हताशा भरी परिस्थितियों के बावजूद उनमें आशा की किरणें साफ़ झलकती हैं। जीवन के साथ उनके संघर्ष और उनकी आशावादिता का परिणाम हैं उनकी कविताएँ। व्यक्ति जब पीड़ा के घोर क्षणों को भोगता है तब वह केवल आत्मालाप नहीं करता, वह अपनी नियति के दायरे भर से संवाद नहीं करता अपितु समूची मानवीय सत्ता की अस्मिता का बोध रखते हुए अस्तित्व और अनस्तित्व की लड़ाई लड़ता है। यह आत्मसंघर्ष जयकान्त की कविताओं का मूल स्थापत्य है। उनमें लेश मात्र कारुणिक दम्भ नहीं है, न ही वैराग्य की वैष्णवी भंगिमा है। वह जीवन के लिए, जीवन के कमजोर क्षणों को चिन्हित करके, उन क्षणों के बीच से ही अपनी ऊर्जा निचोड़ते हैं। वह रचनात्मकता की खोज कर रहे हैं।

जयकान्त जीवन की पीड़ादायी अवस्थितियों के बीच अपनी रचनात्मकता को सहेज कर संघर्ष कर रहे हैं। अब तक वे चुपचाप पढ़ते-लिखते रहे हैं, उन्होंने कभी कवि होने का दम्भ नहीं पाला। उनका सम्पूर्ण लेखन अनुभवगत यथार्थ से उपजा है जिसमें उनकी व्यक्तिगत पीड़ा से लेकर अपने आस-पास के वातावरण से प्राप्त अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है। जयकान्त जी ने बीमारी के दौर में घोर पीड़ा से गुजरते हुए बेहतरीन कविताएँ लिखी हैं। जीवन-संघर्ष के दौर में लिखी गई उनकी वे सभी कविताएँ इस पुस्तक में संग्रहीत हैं। काव्य संग्रह का शीर्षक घुटनों पर चलती उम्मीद की किरणउनकी व्यथा और जिजीविषा दोनों को दर्शाता है। इस संग्रह की कविताओं में बीमारी, उससे उपजी पीड़ा, दुःख ने अपनी अभिव्यक्ति पाई है। इन अभिव्यक्तियों की विशेषता यह है कि इनमें निजी दुःख के साथ सामाजिक सरोकारों ने भी स्थान पाया है। जयकान्त लेखन के दौरान व्यष्टि से समष्टि तक की पूरी यात्रा करते हैं। उनकी कविताओं में जीवन का एक-एक क्षण मौजूद है, एक-एक अनुभूति, व्यक्तिगत अनुभव और अपने आस-पास, अपने समाज का अनुभवगत यथार्थ उपस्थित है। यही इन कविताओं का अलहदापन है।

जयकान्त की कविताएँ सुगढ़ और प्रयोजनबद्ध हैं। कविता में वस्तुओं की उपस्थिति और कार्यात्मक अनुप्रयोगों को किस तरह आकर्षक बनाया जाता है, इस कला से वे भली प्रकार वाकिफ हैं। यही कारण है कि उनकी कविताएँ अव्यवस्थित और पेशेवर एकरसपूर्ण अभिव्यक्ति के इस युग में एक नयेपन के अहसास के साथ आती हैं और पाठक को इस नयेपन से चमत्कृत करती हैं। समकालीन कविता में विमर्शों का हस्तक्षेप बढ़ा है तथा अभिव्यक्ति के नये संवाद अन्वेषित होने के बजाय एक गैरजरूरी रचनात्मक विवशता देखने में आ रही है विमर्शों की समस्त रचनात्मक प्रक्रियाएँ फार्मूलाबद्ध हो चुकी हैंजयकान्त विमर्शमूलक कविता भी लिखते हैं। इसके अतिरिक्त विमर्शों से मुक्त भी लिखते हैं। विमर्श और विमर्शों की बुनावट में परम्परागत नारेबाजी नहीं है अपितु पीड़ाबोध और कारुणिक संवेदना है। उनकी सत्यवती कविता इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। कविता के वे विषय जो क्लासिकल हैं जो रीति और परम्परा में उपलब्ध हैं उन पर भी जयकान्त लिखते हैं, विशेषकर उन विषयों पर जिन पर बाबू केदार की कलम चली है, मगर एक नयी भाषा और नयी मनोनिर्मिति के साथ वह कविता के तमाम फार्मूलों में जबरदस्त तोड़-फोड़ करते हैं। फार्मूले की तोड़-फोड़ तथा इस तोड़-फोड़ को सुगढ़ व एक बयान की तरह बनाकर पदार्थ, विषय घटना श्रंखला में नये सम्प्रेषण की तीव्रता, प्रभावोत्पादकता बढ़ाते हुए कविता को रुपाकृति प्रदत्त करते हैं। जयकान्त की कविताओं में विमर्शमूलक कविता के बहुत से उदाहरण हैं।

जयकान्त की कविताओं में भाषा विन्यास और वस्तु विन्यास ग़जब का है। वह वस्तुओं की सार्थकता और उपस्थिति की प्रासंगिकता दोनों का समन्वय करते चलते हैं। अधिकांश वाक्य छोटे हैं मगर सटीक और व्यंजक हैं। छोटे-छोटे कथन कविता में तभी शोभाकारी होते हैँ जब वह गम्भीर अर्थसंरचना के कारक बनें तथा सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग रहते हुए जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण की समझ स्पष्ट करें। जयकान्त यह काम बखूबी करते हैं। उनकी कविता में पीड़ा के विभिन्न आयाम व उसकी सार्वभौमिकता की स्थापना इसका प्रमाण है। इसी तरह गीतात्मक भंगिमाओं में कविता का शिल्प व विधान दोनों जगत की शाश्वत ‘लय’ और गतिशील प्रकृति की दार्शनिक अभिव्यक्त कर रहे हैं। इन कविताओं में कवि का अपना पक्ष कथात्यात्क रूप में अनुस्यूत है। विधान नया है भाषा पृथक है। बयानों में अन्तर्लय और रिदम हैं इसलिए कवि का पक्ष का फार्मूलों से हटकर प्रकृति और जगत की शाश्वत बहुस्तरीयता व वैविध्यता प्रकृतिकृति बनकर कविता में उपस्थित होता है। यह कला कविता में सामुदायिक उम्मीदों और चिन्तनधाराओं को व्यक्त करने की सबसे सक्षम टेक्निक है। प्रेम, उम्मीद और मानवीय संवेदनाओं-वेदनाओं को अस्पताल के माध्यम से कविता की रुपाकृति में ढालकर एक नयेपन का अविष्कार करती ये कविताएँ भाषा और कहन को एक आकर्षक भंगिमा से युक्त करती हैं तथा मनुष्य और प्रकृति के चिरन्तन साहचर्य को माध्यम बनाकर प्रकृत करने की भूमिका का निर्वहन करती हैं। जयकान्त की कविताएँ समकालीन कविता में एक नयी चिन्तनधारा की प्रस्तावना करती हैं। दार्शनिक मूल्यों व जीवन मूल्यों को प्रकृति की व्यापकता से जोड़कर मनुष्य के बहुपक्षीय परिवेश को विस्तारित नजरिए से देखना तथा भाषा के विधान के तमाम खतरों को उपेक्षित करते हुए आशाओं और सम्भावनाओं के परिपाक को प्राप्त करना, क्लासिकल सैद्धांतिकी में आधुनिक विसंगतियों का इससे सुन्दर चित्रण किसी भी समकालीन कविता में नहीं है। इन कविताओं में प्रकृति का प्रक्षेपण मनुष्य की वस्तुस्थिति का अनुकरण या अनुनिर्मिति कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रकृति के मुक्त व स्वाभाविक व्यापारों के प्रयोगात्मक विधान के अपने खतरे होते हैं। सबसे बड़ा खतरा यह होता है कि कवि अपनी कल्पना के अनुरूप प्रकृति व वस्तु को देखना पसंद करता है। इससे यथार्थ कल्पना की निर्मिति प्रतीत होने लगती है तथा जिन वस्तुओं और कलापों की उपस्थिति आम पाठक की कामना होती है वह सब अमूर्त होने लगते हैं। दृष्य वस्तु का अमूर्त होना कल्पना का चरम है। यह संकट बड़े-बड़े कवियों में रहा है। अमूर्तन कविता की विशिष्टता नहीं है, अवगुण है। प्रकृति व्यापार और मानव व्यापारों की पारस्परिक सहनिष्ठता व साहचर्य उनकी कविताओं को इस संकट से बचा लेता है। जयकान्त की कविताएँ समकालीन कविता में नये शिल्प व आस्वाद का नया हस्तक्षेप हैं। वह अपनी अपार सम्भावनाओं को सहेजते हुए बचाते हुए भी कविता की चालू जमात तथा आलोचकीय मुहावरे से पृथक भी हैं। जयकान्त की कविताओं का सामने न आना हिन्दी आलोचना की आभिजात्य परम्परा का सबसे बड़ा प्रमाण है तथा आलोचकों के ऊपर सवालिया निशान है। 

- बृजेश नीरज 

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