प्रद्युम्न कुमार सिंह मेरे अति प्रिय मित्रों में हैं। हमारी मित्रता की दास्तानें हैं, इन दास्तानों में आत्मीयता की रंगत है, त्याग का जज्बा है, मेहनत है, संघर्ष का सह-दायित्व भी है। अनेक दिन और अनेक रातें हैं जब हम दोनों साथ-साथ रहे, लड़े, घूमे-फिरे और साहित्य के भीतर परिव्याप्त कुलीनतन्त्र के विरुद्ध सुनियोजित भाषा का अन्वेषण किया। प्रद्युम्न कुमार सिंह को हम लोग पीके सिंह कहते हैं। बबेरू के चौराहों, बाजार और स्कूलों में यही नाम इनकी पहचान है। हम दोनों ने एक साथ लिखना शुरू किया। बाँदा और बबेरू के अहंकारी कवियों और लेखकों, मठाधीशों से असंपृक्त रह दोनों ने किसान आन्दोलन के समानान्तर साहित्य आन्दोलन खडा किया। विस्तार हुआ, साथी बने, लोग छोड़कर गये तो नये लोग जुड़े भी। हम सभी साथी अडिग और अपने कर्तव्य पथ पर अविचल रहे। पीके सिंह की कविताओं को पढ़कर मैंने देखा कि उनका एक्टिविज्म उनकी कविताओं का मौलिक स्वर बनकर उभरा है। कविता संग्रह में अन्तर्ग्रथित चिन्ताएँ उनकी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में शामिल चिन्ताएँ हैं जिनके सामने मानव विरोधी शक्तियों से मुठभेड़ करने का ईमानदार संकल्प मौजूद है।
इन चिन्ताओं को उन आभिजात्य चिन्ताओं से जोड़कर देखना जो पराजयबोध को यथास्थिति का संवाहक बनाकर आँसू में डूबने की चालाक आदत का प्रदर्शन करते हैं, पीके सिंह की कविताओं का गलत पाठ होगा। जीवन को विहंगम परिदृश्य में देखना, महसूसना तथा जीवन के विस्तार को परखते हुए असंगतियों व यन्त्रणाओं की गहरी शिनाख्त करना कवि के अपराजेय आत्मविश्वास व संवेदनों की गरमाहट का प्रतीक है। यही कारण है कि अपने समूचे ताप के साथ ये कविताएँ जीवन में गहरी आस्था उत्पन्न करती हैं। पीके सिंह की भाषा और विधान दोनों में कलावादी चटखारे नहीं हैं। यहाँ भाषा में जटिल कथनों का अभाव है। सीधे और सतर्क बयानों में कहना उनकी आदत है। शब्दों की फिजूलखर्ची से वह बचते हैं। ये कविताएँ पाठक को जटिलता और वायवीय भावुक अतिकल्पनाओं से बचाकर जीवन में सजग रहने की हिदायत देती हैं और कविताओं में अनुस्यूत संवेदनों की आवेगपूर्ण अभिव्यंजना तथा स्पेस की कमी पाठक को सीधे कविता में प्रवेश करने का मार्ग सुलभ कराती हैं। ऐसी कविताओं में प्रवेश करने का भी अपना एक तरीका होता है जो कवि की रचना प्रक्रिया में समाया रहता है। कविता का एक छोर पकड़कर यात्रा करना जोखिम भरा काम है। अस्तु पाठक की सावधानी यही है कि वह कवि के भीतर की संवेदना का छोर स्पर्श करे। फिर तो कविता स्वतः प्रकट होकर लोकजीवन की गहराइयों में ले जाती है जहाँ पाठक और लेखक दोनों की संवेदनाओं, अनुभूतियों और भाषा के तार परस्पर एकमेव हो जाते हैं।
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उमाशंकर सिंह
परमार
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